आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 141 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
"किष्किन्धा उतरना है ......पुष्पक विमान को नीचे उतारो"
हम लोग किष्किन्धा के ऊपर से होकर गुजर रहे थे .....वानरराज सुग्रीव नें कहा .....प्रभु ! किष्किन्धा ।
ये सुनते ही मेरे श्रीराम गम्भीर हो उठे थे......"विमान को नीचे उतारो"
वानरेन्द्र सुग्रीव बहुत प्रसन्न हुये ..........माँ जानकी के चरण स्पर्श से मेरी किष्किन्धा धन्य हो जायेगी ...........
हाँ पर मुझे तुम्हारी किष्किंधा का राजमुकुट लेना है ..........उसे मैं अयोध्या लेकर जाऊँगा ..............प्रभु नें ये बात भी गम्भीरता में ही बोली थी ........।
मैं देख रही थी मेरे श्रीराम की ये वाणी सुनकर सुग्रीव - हनुमान और जामबंत की ओर देखनें लगे ।
हे वानरराज ! वो मुकुट आप वानरों का नही है ........वो मुकुट रघुवंश का है ......उसके बिना हमारे कुल में कोई राजा नही बन सकता ..........बड़ी विचित्र बात कही थी मेरे श्रीराम नें ।
पर वो हमारा मुकुट यहाँ कैसे आया ?
लक्ष्मण नें ही पूछा था ।
लक्ष्मण ! बाली बहुत शक्तिशाली था उसके सामनें जो जाता उसकी आधी शक्ति वो खींच लेता था ................उससे युद्ध कर पाना सम्भव नही था ...................मेरे श्रीराम नें एक घटना सुनाई ...........
सब लोग सुन रहे थे ध्यान से ............
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मेरे पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ एक बार देवासुर संग्राम में गए थे ...देवताओं की सहायता के लिये ..............और साथ में माँ कैकई को भी ले गए ...............।
युद्ध में सहायता मात्र नही की ...........देवों को युद्ध जिताया भी ।
फिर लौटकर आरहे थे .......तभी हे लक्ष्मण ! इसी किष्किन्धा से होकर उनका विमान जा रहा था कि ........सामनें आकर खड़ा हो गया बाली ।
मेरे पिता जानते थे कि इससे लड़ना असम्भव है ...........क्यों की ये आधी शक्ति सामनें वाले की खींच लेता है ।
फिर क्या हुआ भैया ! लक्ष्मण नें पूछा ।
हम सब लोग सुन रहे हैं ध्यान से ..........विमान भी बहुत धीमी गति से चल रहा था ।
लक्ष्मण ! मेरे पिता नें युद्ध को टालना चाहा .........
वानरेन्द्र बाली ! क्या चाहते हो ?
आपकी ये महारानी कैकई.............बाली ये कहते हुए हँसा ।
मेरे पिता को उस समय बहुत क्रोध आया था ........पर विवेकवान व्यक्ति क्रोध को पचा जाता है समय देखकर ।
हम आर्यपुरुष हैं .........मर जायेंगें पर अपनी पत्नी को छूनें नही देंगें ...मेरे पिता नें दो टूक कह दिया था ।
बाली हँसा ..........ये मुकुट तो दे सकते हो !
मेरे पिता कुछ नही बोले .................वो चुप रहे ।
ये मुकुट दो या मेरे साथ युद्ध करो दशरथ ! बाली अब युद्ध के ही मूड में आगया था ।
पर ये मुकुट हमारे रघुकुल का है ...................
इसलिये तो मांग रहा हूँ ....साधारण मुकुट होता तो वानर राज माँगता ?
ये कहते हुए .....मुकुट को छीन लिया मेरे पिता के मस्तक से बाली नें ।
मेरे पिता लौट गए थे अयोध्या ............पर माँ कैकेई के सिवाय ये बात किसी को पता नही थी ।
मुझे माँ कैकेई नें ही बताया था एक दिन अकेले में ..............
कि हे राम ! क्या राज्याभिषेक होगा तुम्हारा ? क्या बनोगे राजा तुम ?
रघुकुल का मुकुट तो है ही नही यहाँ.............तुम्हारे पिता दशरथ जो मुकुट पहनते हैं.......वो नकली है ............।
फिर असली कहाँ है माँ ! मैने पूछा था ।
बाली के पास .........वानरराज बाली ...................
फिर मुझे ये पूरी घटना सुनाई माँ कैकेई नें ।
ओह ! इसलिये माँ कैकई नें आपको वनवास दिया था ?
सुग्रीव नें कहा ।
हाँ ......यह बात किसी को नही पता.........वनवास का कारण यही था .........मेरी माँ कैकई नें स्वयं अपयश लिया पर ...........
ये कहते हुये राजिव नयन के नयन भर आये .......मेरी माँ कैकई !
किष्किन्धा में उतरा पुष्पक विमान ...............सुग्रीव नें सूचना दे दी थी पहले ही .............सब लोग उपस्थित थे स्वागत के लिये .....
तारा और अन्य सुग्रीव की रानियाँ सब मुझे लेकर गयीं अपनें महलों में ........तारा सुन्दर बहुत है ..............त्रिजटा बोली थी ।
प्रभु श्रीराम के हाथों में वो मुकुट , जो रघुवंश का था वो दिया सुग्रीव नें उस मुकुट को लेकर मेरे श्रीराम नें अपनें माथे से लगाया था ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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