वैदेही की आत्मकथा - भाग 140

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 140 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

पुष्पक विमान उड़ रहा था  अपनी गति से ..............

वैदेही !  ये देखो !   यहाँ कुम्भकर्ण का वध किया है .......

मेरे श्रीराम बोले  ।

मैं देखनें लगी........ये गड्डा  जो बना है ना .......ये कुम्भकर्ण के धड़ के कारण है.......वो इतना महाकाय था........।

मैं हँसी.......तो मेरे श्रीराम  प्रसन्न हुए ......और   बोले .......नही  कुम्भकर्ण   के हाथ  पैर मैने पहले ही काट दिए थे .....मात्र धड़ के कारण   ये गड्डा हुआ  है    ।

और यहाँ  मेघनाद..........लक्ष्मण नें पीछे से  कहा  ।

मैने पीछे मुड़कर देखा    तो हाथ जोड़कर  नजरें  झुकाकर  लक्ष्मण बोल रहे थे...........।

लक्ष्मण को देखकर  मुझे  पंचवटी की बात याद आगयी ........मैने कितना भला बुरा कहा था  इन्हें ........ओह ! 

मैं क्षमा माँगना चाह रही थी ........पर लक्ष्मण की स्थित देखकर  मुझे उन्हें और संकोच में डालना अच्छा नही लगा   ।

हनुमान नें कहा .......यहाँ रावण का  वध किया था प्रभु नें   ।

तभी.....एकाएक आँधी चल पड़ी ........भयानक आँधी.......वृक्ष क्या    पर्वत भी उड़ रहे थे उस आँधी में ........।

पुष्पक विमान  पर कोई असर नही होता .......किसी का ........पर  पुष्पक विमान भी इस आँधी के कारण   अपना सन्तुलन खोनें लगा था ।

विभीषण की ओर  मेरे श्रीराम नें देखा .................विभीषण के भी समझ में नही आया  -  कि ये हो क्या रहा है   ।

आकाश में उड़ता हुआ  एक वज्र आया ...........और वो सीधे हनुमान के ही लगा ...............ओह !      हनुमान मूर्छित हो गए ...........

मेरे श्रीराम   उठे .......और  अपनें सारंग धनुष में   बाण लगाकर  छोड़नें वाले थे कि............उनके  बाण को ही काट दिया उधर से ।

ये कौन है ?        मैं  परेशान हो उठी .......................

"महारावण"      त्रिजटा    बोली  ।

महारावण ?         ये प्रश्न सबके मुँह से निकला   ।

हाँ ..........ये क्षेत्र उसी का है .....................त्रिजटा बोल रही थी  और  हम सब   उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे  ।

लंकापति रावण .......हे  श्रीराम !  आप जिसका वध करके आरहे हैं .....वैसे रावण  जैसे  तो   इसके यहाँ  अनेक हैं .......इसके  सेवक ही  लंकेश रावण से भी शक्तिशाली हैं  .........।

इस तरफ आनें से  रावण भी डरता था ..........त्रिजटा बोलती रही ।

हाँ एक बार  रावण को पकड़ लिया था ...........किसनें  महारावण नें  ?

मैने पूछा ।

 .....नही  रामप्रिया !    महारावण   के सामनें तो कुछ नही था   वो रावण.........इसके  छोटे छोटे सेवकों नें ही  पकड़ लिया था  रावण को .....और  अपनें घरों  में ले जाकर   उसके दस  सिर में  तैल डालकर  दीया जलाते थे .......दस दिन तक  रखा था   रावण को.......फिर एक दिन अवसर पाकर  भाग निकला था रावण  ।

त्रिजटा बता रही थी कि   तभी ............सागर उछलनें लगा .........

और सागर से ही  एक विशाल .....अत्यन्त विशाल देह वाला  राक्षस निकला ...........यही है महारावण !  .........त्रिजटा चिल्लाई ।

अपनी एक फूँक से ही    पुष्पक विमान को इसनें  हिला दिया था ।

सब  चिल्लाये ............हनुमान मूर्छित हो ही गए थे  ।

मेरे श्रीराम नें   फिर  धनुष  में बाण लगाया ..................तभी   उस महारावण नें     पुष्पक विमान को  पकड़ कर  घुमा दिया ...........मेरे श्रीराम  सहित  समस्त वानर गिर पड़े ..................

तुरन्त ही  एक पर्वत विष बुझा     महारावण नें लिया और मेरे श्रीराम के ऊपर  फेंक दिया   ................

ओह !   रक्त  निकलनें लगा था   मस्तक से ...........विमान में ही  मेरे श्रीराम भी मूर्छित हो गए ..........मैं चिल्ला उठी .......मेरे नेत्र क्रोध से लाल हो गए थे ...........मेरा मुख मण्डल    रौद्र हो उठा था  ।

मैं   आद्यशक्ति  के रूप में प्रकट होनें लगी थी .......मेरी हजारों भुजाएं ....मेरे  हजारों नेत्र ......मेरे   हजारों  मुखमण्डल ..............

चक्र,  शंख,  गदा , पद्म,   खड्ग  त्रिशूल  इन सबको धारण करके मैं प्रकट हो गयी थी ........आकाश से  देवता पुष्प बरसा रहे थे  ............

त्रिजटा  लड़खड़ाते हुए खड़ी हुयी थी ..........और वही  बोले जा रही थी ..........श्रीराम से  इसका वध नही होगा .......हे रामप्रिया !   इसका वध आपही कर सकती हो.........आपही इसका उद्धार करो .....।

हे भगवती !    सम्पूर्ण सृष्टि  आपको वन्दन करेगी .....इसका शीघ्र वध करो ..............सृष्टि , पालन और संहार   आपके द्वारा ही है ........आपसे ही है ..........आप शक्ति हैं ..........आप ब्रह्म की आद्य शक्ति हैं ...........अपनें स्वरूप को पहचानिये  ।

वो महारावण  पुष्पक विमान को लेकर  जा रहा था .................

मैने   मात्र अपनें एक अंगूठे से  उसकी गति रोक दी ............महारावण से  अब चला नही जा रहा था ............वो क्रोधित हो उठा .............उसनें  पुष्पक विमान  को  फेंक दिया  दूर अंतरिक्ष  में ।

हम सब लोग   पुष्पक विमान में ही थे ..............पर   मैने    विमान को सम्भाला .......और क्षण में ही  वो विमान फिर   महारावण के सामनें आगया था ........अब वो सम्भल पाता  या  हम पर प्रहार की कोशिश करता  उससे पहले ही    मैने  उसके ऊपर  गदा का प्रहार किया .........उसका मस्तक फट गया ........रक्त के  फुब्बारे निकले ।

वो चीखते हुए      सागर में ही   गिर पड़ा .......उसके गिरनें से  ऐसी लहरें उठीं थी सागर में      जैसे प्रलय का ही दृश्य उत्पन्न हो गया हो  ।

सब जयजयकार कर रहे थे मेरी .........पर मैने अपनें श्रीराम को जब देखा ........वो मूर्छित हैं ........मैं  तुरन्त अपनें  रूप में आगयी थी ..... मैने  अपनें श्रीराम को   गोद में लिया ......उनके  मस्तक को सहलाया ..........तब उनकी मूर्च्छा टूटी   ।

हनुमान भी उठ गए थे .........अन्य सब होश में आगये  थे  ।

पर  महारावण का वध मेरे द्वारा हुआ  ये बात किसी को पता नही चली ।

हाँ तब से मुझे त्रिजटा बहुत मानने लगी थी ...........मुझे "भगवती" कहती थी इस घटना के बाद से   ।

शेष चरित्र कल .............

Harisharan

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