आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 142 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
चित्रकूट ! मुझे बहुत आनन्द आया ...........मैं पुष्पक विमान से चित्रकूट की शोभा देखनें लगी थी ................पर विमान हमारी इच्छा अनुसार ही चल रहा था ..........उसकी गति मन्द हो गयी .......वो चित्रकूट में ही उतरा ...............नाथ ! कोल किराँत भील देखिये ! सब आगये ............।
विमान के उतरते ही वहाँ के सभी भोले भाले लोग उछलते कूदते हाथ में भालों को उछालते हुए आ पहुँचे थे ।
लक्ष्मण भैया ! देखो ! हमारी पर्णकुटी वैसी ही है ..........
मेरे श्रीराम नें मेरी और देखा और मुस्कुराये बोले - इन्हीं लोगों नें देख भाल की है तभी पर्णकुटी सुरक्षित है ....।
त्रिजटा नें मुझ से पूछा .............रामप्रिया ! आप लोग यहीं रहते थे ?
हाँ त्रिजटा ! 12 वर्ष तक हम लोग यहीं रहे हैं ...............
मेरी बात सुनकर त्रिजटा आनन्दित हो उठी .........हनुमान सुग्रीव जामबंत विभीषण इत्यादि के साथ त्रिजटा भी उतरी ..........मैनें अपनें श्रीराम की ओर देखा ............उन्होनें इशारा करके कहा .......उतरो !
मैं उतरी विमान से .............ओह ! मुझे देखते ही पक्षियों नें हल्ला मचाना शुरू कर दिया था ................हिरण उछलते हुए मेरे पास आनें लगे ..............लक्ष्मण ! देखो ! ये वही हिरण .............जो मेरी गोद में ही पड़ा रहता था ..........कितना बड़ा हो गया ना !
लक्ष्मण हँसे.........वो हिरण मुझे छोड़ ही नही रहा था ।
सारे बन्दर आगये थे.........वो सब बहुत खुश लग रहे थे ।
केले ......मधु का छत्ता ............बन्दरों नें लाकर मेरे सामनें रख दिया ........मेरे नयनों से अश्रु बह चले थे ................।
भाभी माँ ! देखो ! ये आम्र का वृक्ष आपनें ही तो इसे रोपा था ........आज देखिए इसमें बौर भी आगये हैं .............।
मैं बहुत खुश थी .............फिर त्रिजटा का हाथ पकड़ कर ले गयी ..........देख ! त्रिजटा ! यही वह जगह है जहाँ मेरे श्रीराम मुझे फूलों से सजाते थे .........मैं ये कहते हुए लजा गयी थी ।
भीलों का झुण्ड आगया था वहाँ ........................सबके नेत्रों से प्रेमाश्रु ही बह रहे थे .....................विमान से उतरनें की सबनें प्रार्थना की मेरे श्रीराम से ..........पर मेरे श्रीराम नें कहा .........भरत मेरी प्रतीक्षा में है .......मुझे शीघ्र चलना होगा ।
हम सब वापस विमान में बैठ गए थे ।..........वैदेही ! आप सबको निमन्त्रण नही देंगीं अयोध्या आनें के लिए ? राज्याभिषेक में !
मेरे श्रीराम नें मुझे कहा ..........मैने समस्त भील भिलनियों से हाथ जोड़कर कहा .......आप सब आइये हमारी अयोध्या !
हमें भी अब अवसर दीजिये आपके सत्कार का !
मेरी बात सुनकर भीलनियाँ बोलीं ...........आप नही बुलाती तब भी हम जबरदस्ती आपके अयोध्या में आते ।
ऐसे कैसे आते जबरदस्ती ? लक्ष्मण हँसते हुए बोले ।
और लक्ष्मण से सब परिचित हैं .........इनकी बात का कोई बुरा भी नही मानता ।
क्यों ? 12 वर्षों तक हमनें इतना खिलाया पिलाया ........हिसाब नही लेंगीं ! ...........ये कहते हुये वो भोली भाली भीलनियाँ खूब हँसीं ................मैने भी हँसते हुए ......ठीक !
ओह निषाद राज ! ........सामनें से आरहे हैं .........आँखों में पट्टी बंधी है ..........दो लोग अपनें मुखिया को पकड़ कर ला रहे हैं ।
अब तो मेरे श्रीराम से रहा नही गया .....दौड़ पड़े विमान से उतर कर ।
निषाद राज ! उधर से निषाद राज नें जब सुना मेरे श्रीराम की अमृतवाणी कानों में जा रही है ..........
वो भी दौड़े .............नाथ !
दोनों गले मिले .....................ये क्या है आँखों में ?
उस पट्टी को निकाल दिया मेरे श्रीराम नें ।
आपको देखनें के बाद किसी को देखना नही चाहता था .......इसलिये ये पट्टी बाँध ली थी ..........हे नाथ ! आज बहुत अच्छा लग रहा है .....आपको देखते हुए ............भावावेश में निषाद राज थे ।
नाथ ! नाथ ! मेरी नाव ! मेरी नाव में ही आपको जाना है पार !
उधर से केवट दौड़ा आया .................
ये केवट है ............मैनें त्रिजटा को उसका परिचय दिया ।
बहुत भोला है ................हृदय निर्मल है इसका ........पता है त्रिजटा !
इसनें हमारे पैर धोये .........और जब तक पैर नही धोये तब तक हमें नाव में नही बैठनें दिया ..........मैने हँसते हुए कहा ।
पर क्यों ? त्रिजटा बात को समझी नही ।
क्यों की इसका कहना था ..........कि श्रीराम के चरणों की धूल जहाँ लग जाती है ......वहाँ से नारी निकल पड़ती है ........और ये अपनी नारी से परेशान था .............कहता था कि दूसरी कहाँ रखूंगा ।
त्रिजटा ! तुम्हे पता ही होगा शिला को छूआ तो अहिल्या प्रकट हो गयी थी ।
हाँ ........त्रिजटा बोली फिर .....कुछ सोच कर खूब हँसी .......केवट को देख रही थी और हँस रही थी ।
इसकी नाव नारी न बन जाए ! त्रिजटा हँसी जा रही थी ।
मेरे श्रीराम नें केवट को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
नही .....नाव में नही ..........तुम मेरे साथ विमान में बैठो और चलो अयोध्या .......केवट बहुत खुश हुआ .......मेरी पत्नी और मेरे बच्चे भी विमान में बैठेंगे ! उनकी भी बहुत इच्छा है आपके राज्याभिषेक देखने की .......... केवट विनती करनें लगा ।
हाँ हाँ ........बुला लाओ ! जाओ ! ........ केवट गया दौड़ा दौड़ा ।
त्रिजटा उसे देखकर हँस रही थी अभी भी ।
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महर्षि भारद्वाज के आश्रम में विमान पहुँचा .....................
मैं दाशरथी राम ......महर्षि ! आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ ।
ओह ! राम ! हृदय से लगा लिया था मेरे श्रीराम को महर्षि नें ।
फिर आसन दिया ..............
पर तुरन्त बोले - राम ! भरत कैसे हैं ?
मेरे श्रीराम के नेत्र बह चले थे.............कुछ नही बोल सके ।
राम ! हम ऋषि मुनि क्या तप करेंगें .........जो तप तुम्हारे अनुज भरत कर रहे हैं .......आहा ! महर्षि भारद्वाज भी भावुक हो उठे थे ।
तभी कुछ विचार कर मेरे श्रीराम नें हनुमान को बुलाया ........
हनुमान ! हमें हो सकता है कुछ बिलम्ब हो जाए ...........इसलिये तुम तुरन्त जाओ मेरे भाई भरत के पास .....और उनको बताओ कि मैं आरहा हूँ .......हम सब आरहे हैं ।
जो आज्ञा प्रभु ! हनुमान नें मस्तक झुकाया और उड़ चले अयोध्या की ओर ..........................
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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