आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 139 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
विभीषण ! मैं अपनी माताओं अपनें भाई परिजनों से शीघ्र मिलना चाहता हूँ .....मेरी व्यवस्था करो ........श्रीराम नें आदेश दिया था ।
विमान ! पुष्पक विमान बड़ा दिव्य विमान था वो ........सम्पूर्ण विमान स्वर्ण से निर्मित था ............ना किसी चालक की आवश्यकता कहाँ थी ! जिसके अधिकार में हो ये विमान उसकी इच्छानुसार ही चलता था ..............इस विमान में सारी सुविधायें थीं .....लोगों के अनुसार ये विमान बड़ा भी हो जाता और छोटा भी ।
शयन करनें की .......भोजन की व्यवस्था अलग ही थी ...........।
यह विमान अत्यंत मन्द गति से और शब्द से भी तीव्र गति से चल सकता था ..............और हाँ ये विमान जल में थल में आकाश में कहीं भी चल सकता था और कहीं भी उरत सकता था ।
गर्मी कितनी भी हो ......पर पुष्पक विमान का तापमान शीतल ही रहता .......और बाहर सर्दी हो .......तो विमान में गर्म तापमान ।
इस पर सर्दी, ताप, ओले, वर्षा आँधी किसी का भी प्रभाव नही पड़ता था .............
इसमें मणियों की ऐसी सुन्दर वेदियां बनी थीं .........जिसमें बैठा जाता था ..........सुन्दर सुन्दर गद्दे थे उन वेदियों में ।
विमान जब उड़ता था तब सुन्दर संगीत सुनाई देता था ......बाहर का कोलाहल सब शान्त हो जाता ।
ये कुबेर का विमान था ........रावण कुबेर से छिन कर लाया था इसे ।
मेरे सामनें जब पुष्पक विमान आया तब मैने उसे देखा था ...........।
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त्रिजटा नही दिखाई दे रही ? मैने विभीषण से पूछा ।
वो विमान को और सुसज्जित करनें में लगे थे ।
त्रिजटा कल से ही मूर्छित है ...............विभीषण बोले ।
क्या ! क्या त्रिजटा मूर्छित है ? पर क्यों ?
आप ही जानें .........वो पूर्ण आपकी भक्ता हो चुकी है .........विभीषण नें मुझे उत्तर दिया ।
क्यों परेशान हो उठी हो वैदेही ? मेरे श्रीराम नें मुझे उद्विग्न देखा तो पूछ लिया ।
वो त्रिजटा मूर्छित है ! मैने नाथ से कहा ।
देखो ! वो क्या चाहती हैं वैदेही !
आपके साथ अयोध्या जाना ...........विभीषण नें उत्तर दिया ।
पर ! मैनें अपनें प्रभु के मुखारविन्द में देखा ।
सब जा रहे हैं .........हनुमान सुग्रीव अंगद जामवन्त और ये विभीषण भी ..........वैदेही ! तुम अपना राज्याभिषेक अपनी सखी को नही दिखाओगी ?
मैं प्रसन्न हो गयी थी ...................मैने विभीषण की ओर देखा ......वो तुरन्त भागे अपनें महल की ओर ।
जब लौटकर आये तब वो बहुत प्रसन्न थे .........कह रहे थे अगर आप उन्हें अपनें साथ नही ले आजातीं तो त्रिजटा मर ही जाती ।
वो अब बहुत प्रसन्न है ............वो तैयारी में लगी है अयोध्या जानें की तैयारी में.........और वो अभी अपनें राजकोष में गयी है .....आपके लिये सबसे बहुमूल्य हार खोज रही है ............वो कह रही है जब आप महारानी बनकर सिंहासन में विराजोगी ......तब वह आपको अपनी तरफ से वही माला भेंट में देगी ..................।
विभीषण भी ये कहते हुये भाव में डूब गए थे .............
आपनें हमारी पुत्री त्रिजटा को और पत्नी को अपनी सखी बनाया .........हमारा कुल धन्य हो गया है ..................।
विभीषण ! मेरे श्रीराम नें विभीषण को फिर अपनें पास बुलाया ।
मेरा मन , मेरी बुद्धि, मेरा चित्त सब कुछ "भरत" में लगा हुआ है......मुझे डर है कि कहीं वो अपनें प्राण न त्याग दे.......इसलिये जितनी जल्दी हो सके अब हमें विदा करो ।
विभीषण तुरन्त उठे ...............उधर से त्रिजटा आगयी थी अत्यंत खुश थी वो ............सीधे मेरे हृदय से लग गयी .................
विमान में सब बैठनें लगे..........मध्य में दिव्य सिंहासन था .......उसमें मेरे प्रभु और मैं .......हम दोनों बैठे थे ।
हमारे पीछे लक्ष्मण और हनुमान चँवर लेकर ढुरा रहे थे ।
जय रघुवीर , जय जय रघुवीर .....जय रघुवीर , जय जय रघुवीर ।
जब विमान चल पड़ा ..............तब लंका वासी और वानर सेना सब जयजयकार करनें लगे थे ............।
ऊपर से विभीषण नें रत्नों और मणियों की वर्षा कर दी थी ।
मैं आनन्द से अपनें प्राणधन के साथ बैठी अत्यन्त सुख का अनुभव कर रही थी ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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