वैदेही की आत्मकथा -138

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा -138 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं  वैदेही !

मेरे श्रीराम नें गम्भीर होकर कह दिया  हनुमान को  कि ....."जाओ और वैदेही को ले आओ" .........पर  उन राजिव नयन के नेत्र भर आये ......कितना दुःख पाई है उस बेचारी नें ........हाँ .........मैं  श्रीराम की अर्धांगिनी हूँ ..............मैं समझती हूँ   !

पर -    वो फिर  गम्भीर हो गए थे .............पर अब  वैदेही को स्वीकार करनें में लोकापवाद है .......!   ओह !    क्यों की राम अब कोई  व्यक्ति नही रहा ..........अपनें ही व्यक्तित्व को लेकर विचार करनें का अब उसे अधिकार नही है .............नही है ..........।

अब अयोध्या जाकर   पूर्वजों का महान सिंहासन स्वीकार करना है ....प्रजा के लिए जीना है अब ?    क्या  राम   की अपनी निजी  कुछ नही ..........सब प्रजा के लिये ..?.....लोक जन के लिये  ?

पर - अब मेरा कर्तव्य क्या  ?    श्रीराम  सिर झुकाये  यही सोचते रहे ! 

हाँ.................।

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विभीषण  आये ..............हनुमान आये ..........मुझे बुलाया है मेरे श्रीराम नें .............इन सबनें बताया  ।

मेरा  हृदय आनन्द के हिलोरे ले रहा था ..........मेरे राजिव नयन  को मैं देखूंगी !..........वो मेरे सामनें होंगें !............मैं दौड़ कर ........नही  वही  दौड़े आयेंगें  और मुझे अपनें हृदय से लगा लेंगें ..........।

मैं आनन्दित हो गयी थी  ।

पर हम  आपको ऐसे नही जानें देंगी  राघवी ! 

    विभीषण की पत्नी  सरमा नें   जिद्द करते हुए कहा ........।

पर क्या  ? 

हँसते हुए विभीषण नें कहा .......आपको  अपनें  भक्तों का ख्याल तो रखना ही  चाहिये !   

क्यों हनुमान !  आप क्या कहते हैं    ।

हनुमान सिर झुकाकर  प्रसन्न हो रहे थे  ।

पर  क्या  त्रिजटा ! 

हम सब आपको  सजावेंगी  रामप्रिया !  ........त्रिजटा नें आँखें मटकाते हुए कहा .........।

नही ! नही ..........मैं ऐसे ही जाऊँगी ...............मैने  जिद्द की ।

पर  -   त्रिजटा और उसकी माता  और यहाँ तक की स्वयं  मन्दोदरी भी  आयी...............सबनें  मुझे  सजाया ।

मेरे केश खोले.........मेरी जटायें सुलझाईं ......उवटन लगाकर  मुझे स्नान कराया......सुन्दर साडी .......आभूषणों से लदी  ।

सुवर्ण  की पालकी में  स्वयं   त्रिजटा उसकी माँ  मन्दोदरी.......ये सब लगी हुयीं थीं मुझे उठानें में .....चारों ओर से फूल बरसाए जा रहे  थे  ।

पर  ................................

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"वैदेही आयीं हैं ........पालकी में हैं "

मुझे  थोड़ी दूरी पर रोककर     विभीषण गए थे ...........श्रीराम के पास ।

पालकी में आनें की क्या आवश्यकता ?

गम्भीर श्रीराम नें  विभीषण को कहा .................

पर्दे में रहनें से कोई नारी पवित्र नही होती ..........वो पवित्र तो स्वयं के शासन से  ही  रहेगी ।

हे विभीषण !   वैदेही को कहो ..........वो पैदल चलकर आये  ।

ये वानर लोग   उनका दर्शन करना चाहते हैं ...........।

विभीषण के साथ   हनुमान और अंगदादि सब  साथ में  लाये थे .......और मुझे  ये बात बताई ..............

मैं पालकी से उतरी ...............

वानरों का हुजूम मुझे देखनें के लिए उमड़ पड़ा था...........सब मेरी चरण धूल ........और मुझे  देखकर   नमन कर रहे  थे  ।

पर मेरे साथ में ........हनुमान   , अंगद  सुग्रीव , नल नील  ये सब एक घेरा बनाकर चल रहे थे  ताकि मुझे कोई असुविधा न हो .......पर मेरा ध्यान  तो राजिव नयन पर ही था ..........ओह !   मैं उन्हें देखूंगी  ।

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मेरे सामनें    खड़े हैं   मेरे  श्रीराम !  

आर्यपुत्र !   मेरे प्राण !  मेरे जीवन धन  !   मैं  पुकार उठी  ......मैं दौड़नें जा रही थी    उनके हृदय से लगनें ........पर  ।

सीता !     मैने रावण का वध कर दिया.........मैने रावण को ये बता दिया की आर्य नारी के अपहरण का दण्ड ये होता है ............।

मैं रुक गयी .......मेरे कदम ठहर गए ...........मैने  आश्चर्य से  अपनें श्रीराम के मुख में देखा .............ओह !           

हाँ  बोलो !    वैदेही बोलो !      तुम इतनें दिन तक रावण के यहाँ रही .....".तुम पवित्र हो....इसका प्रमाण ?      ये क्या बोल गए मेरे श्रीराम !

मेरे ऊपर बज्रपात हो गया था .....मेरा हृदय फट रहा था .........

मै मूर्छित ही होजाती ......पर मैने अपनें आपको सम्भाला  ।

आप ये क्या कह रहे हैं  !     मैं  क्रोध और करुणा दोनों से भर गयी थी ।

आप मुझे जानते नही हैं  ?    मैने उनकी आँखों में देखा  ।

उन्होंने सिर झुका लिया ..............पर फिर सिर उठाकर बोले ..........तुम्हे भी अच्छा नही लगेगा ......जब अयोध्या का एक भी नागरिक इस बात को उठाएगा तो !    तब  ? 

मेरे श्रीराम नें मेरी और देखा ..........................

ठीक है .......................

लक्ष्मण !   आज  मैं तुमसे     माँग रही हूँ .......अपना आँचल फैलाकर माँग रही हूँ .....................

लक्ष्मण  रो पड़े थे    श्रीराम का यह गम्भीर और कठोर रूप देखकर ......हनुमान तो समुद्र के किनारे ही जाकर बैठ गए थे  और रो रहे थे ।

त्रिजटा   का मुख मण्डल  क्रोध से  लाल हो गया था ...............फिर उसके आँसू बह चले थे   ।

लक्ष्मण !  मुझे अग्नि  दो ..........मेरे लिए चिता तैयार करो  .........

नही ....नही ..........लक्ष्मण  मेरी ये माँग सुनकर  बिलख रहे थे ।

पर  श्रीराम नें  इशारा किया ...............लक्ष्मण को  ।

रोते हुए लक्ष्मण  लकड़ियाँ बटोर कर लाये ..............आग लगाई  ।

लक्ष्मण  इसके बाद तुरन्त मूर्छित हो गए थे  .....हनुमान   उधर समुद्र में मूर्छित हो गए थे ........इधर  सुग्रीव  जामवन्त  विभीषण    इत्यादि नें  अपनी आँखें बन्दकर  ली थीं  ।

हे राम !      

आकाश देवताओं की वाणी  से गूँज उठा ................................

हे राम !     वैदेही के समान  पतिव्रता  सृष्टि में दूसरी नही है  ........

हे राम !   जितनी कठोरता तुम बरत रहो है   ये उचित नही है ........

हे राम !  सीता परम सती हैं .........ये पवित्रतम हैं   ।

तभी   अग्नि में विस्फोट हुआ ...................चिता बिखर गयी .....

और उसमें  से  अग्नि देवता  प्रकट हुए ................मेरा शुद्ध  स्वरूप उन्हीं के पास था ...................।

मेरे श्रीराम नें  प्रणाम किया अग्नि देवता को ...................

अग्नि देवता  अंतर्ध्यान हुए   मुझे श्रीराम को देकर    ।

सिर झुकाकर समस्त देवताओं को    प्रणाम किया मेरे श्रीराम नें ।

आप कह रहे हैं .........आप समस्त देव कह रहे हैं ........आपको मेरा प्रणाम ...........मेरी वैदेही शुद्ध है ............रावण    क्या अपमान कर सकेगा इनका ..........मुझे पता है  ये  मेरी हैं .........इनका  मन बुद्धि चित सब कुछ मुझ में ही लगा है ..........पर  मैने जो किया .........कल को  कोई  मेरी सीता को दोष न दे -   इसलिए  किया ।

मेरे श्रीराम  नें मुझे देखा......मैने क्षमा  किया उन्हें ..........वो अब दौड़े मेरे पास ...........मेरा हृदय    रुक जाता .......पर मेरे श्रीराम नें आकर मुझे   अपनें हृदय से लगा लिया था   ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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