वैदेही की आत्मकथा - भाग 137

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 137 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही  ! 

 महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में बैठकर अपनी आत्मकथा लिख रही हूँ ........मेरी क्या कथा ?  कथा तो मेरे श्रीरघुनाथ की है ......मेरी तो व्यथा ही है ............पर  आज जब मैं उन प्रसंगों को स्मरण करती हूँ ....जब मैं लंका के अशोक उद्यान में थी .....और मुझे त्रिजटा बता रही थी  कि दशानन रावण मरणासन्न अवस्था में पहुँच गया  ..........बस मृत्यु उसका वरण करनें ही जा रही थी  कि .................मेरे श्रीराम नें लक्ष्मण को  भेजा  रावण के पास ...........।

है ना  !    आश्चर्य की बात !   पर मेरे श्रीराम हैं ही ऐसे ......शत्रु का भी  कभी   अपमान नही किया ..........अच्छाई बुराई सबमें है ........।

उस प्रसंग को मैं आज जब याद करती हूँ .....तब  रावण  की छबि मेरे मन में जो बनती है .......वो  श्रद्धा की   है ......और वैसे भी  वो हमारा आचार्य है ......रामेश्वर की स्थापना का  आचार्यत्व उसी नें किया था ।

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मेरे श्रीराम के   पसीनें सूखे भी नही थे  ...  रावण का वध करके ........कि तभी  जब देखा  रावण की साँसे चल रही हैं ......वो अभी मरा नही है -

लक्ष्मण !     रावण  हमारे आचार्य हैं ............रामेश्वर की स्थापना उन्हीं के द्वारा हुयी है .........और उस समय मुझे विजयी होने का आशीर्वाद भी उसी नें   दिया था ........।

तुम जाओ !      रावण के पास  लक्ष्मण !

ये सुनकर स्तब्ध होगये थे  लक्ष्मण ............और   उनके साथ समस्त वानर सेना के  मुख्य  जन  भी ।

चौंको मत  रावण परम विद्वान है ..............और मैं नही चाहता कि   नीतिशात्र  का यह सूर्य  मेरे सामनें ही अस्त हो जाए ........जाओ !  लक्ष्मण !   कुछ नीति ज्ञान ले आओ   उससे  ।  

लक्ष्मण  मुख ही देखते रहे थे ...........मेरे श्रीराम के  ।

जाओ लक्ष्मण !      विद्वान से  उपदेश लेना  ......कोई गलत बात तो नही है ......और  रावण जैसा  विद्वान  अगर   अपना अनुभव हम को बताये  तो  ये हमारा सौभाग्य होगा.....और मुझे दक्षिणा भी देनी है रावण को ।

लक्ष्मण गए  ........पर लौट कर  चले आये ..............।

मेरे पुकारनें पर भी रावण नें कोई उत्तर नही दिया  .....लक्ष्मण नें कहा ।

तुमनें   उनको प्रणाम किया  ?       मेरे श्रीराम नें पूछा था  ।

चुप रहे लक्ष्मण  ।

लक्ष्मण !    ज्ञान लेना है तो झुकना पड़ता है मेरे भाई ! 

और वैसे भी  ज्ञान का नियम है कि    सामनें वाले की श्रद्धा  बिना ज्ञान देना भी नही चाहिये ..............रावण  बहुत समझदार है ।

तुम जाओ !       और इस बार  ।

लक्ष्मण समझ गए थे ..................वो गए   इस बार ........

"मैं रघुवंशी  रामानुज लक्ष्मण...   निखिल शास्त्र निष्णात आचार्य  पौलस्त्य रावण के पदों में  प्रणाम करता हूँ".........लक्ष्मण नें झुक कर प्रणाम किया  ।

आहत, मूर्छित  धरती पर  विदीर्ण वक्ष,  उत्तान पड़े रावण नें  अपनें नेत्र खोले .............और लक्ष्मण को देखा  ।

मुझे  मेरे अग्रज  श्रीराम नें भेजा है  आपके पास .....और नीति शास्त्र का उपदेश मैं आपसे ग्रहण करूँ   इसलिये मुझे भेजा है .......अगर आप !

हाथ जोड़े हुए ही लक्ष्मण बोल रहे थे  ।

बड़ी गम्भीर वाणी में  दशानन बोला  - मेरी दशा देख ही रहे हो !    मेरा अंग अंग  तुम्हारे अग्रज राम के बाणों  विद्ध है......हे लक्ष्मण ! मैं बोलनें में  पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ....मेरी इन्द्रियाँ  शिथिल हुयी जा रही हैं ।

बस  मै  तो अब जा ही रहा हूँ ............तुम्हारे अग्रज के धाम वैकुण्ठ ।

पर  एक इच्छा थी ...........इसलिये मेरे प्राण रुके हैं ...............

रावण नें  अवसर नही दिया लक्ष्मण को कि वो पूछें .......क्या इच्छा ?

रावण   कहता गया............मैं  उन इन्दीवर  तुम्हारे अग्रज  श्रीराम को  एक बात  जी भर कर देखना चाहता हूँ  ।

कुछ देर रुक कर फिर बोलना शुरू किया ..................ठीक है  तुम नीति सीखनें आये हो मेरे पास ................फिर हँसा रावण  ।

ठीक है .......तुम्हारे  राम नें मेरे पास भेजा है तुम्हे .................मैं क्या तुम्हे  उपदेश दूँ .....और क्या नीति सिखाऊँ ........महर्षि वशिष्ठ के तुम शिष्य हो ............तुम सब जानते हो .........पर फिर भी आये हो मेरे पास   तो सुनो .....मैं तुम्हे अपना अनुभव कुछ बताता हूँ  ।

फिर रावण  कराहते हुए  ..............कुछ  देर शान्त होकर बोला ।

लक्ष्मण !      जो  सेवक ,    चाहे उसका स्वामी   कितना भी अप्रिय क्यों न लगे उसे .......पर उसकी हर बात मानता है .....यहाँ तक की अपनें प्राण भी  अपनें स्वामी को देनें के लिए तैयार हो जाता है ..........तो ये सब मात्र भय से सम्भव नही है  ......लक्ष्मण ! तुम्हे क्या लगता है   ये सब राक्षस  मेरे भय से ही मेरे लिए कार्य करते थे ...?    नही  ......भय से व्यक्ति कब तक   किसी की चाकरी कर सकता है ..?

लक्ष्मण !   मैने  इन सबकी सुविधा का ख्याल रखा ...........हर  सुख मैने इन सबको दिया  और इससे भी बड़ी बात  मैने इन्हें स्वतन्त्रता दी ......कुछ भी करनें की स्वतन्त्रता ........तभी तो इन लोगों नें  जानते हुये कि  हमें मरना है .............मेरे लिए ये सब मरे  ।

रावण बोलता गया ..........लक्ष्मण !       अपनें सेवकों को  कभी भय दिखाकर नही रखना चाहिये  ।

और दूसरी बात ...........सेवाशील , विनम्र ,  सत्य  पर चलनें वाला...  अगर हमारा  विरोध करता है ........तो उसकी बातें  सुननी  चाहिए  ।

मैने नही सुनी ............रावण नें स्वीकार किया  ।

आपनें विभीषण की बात क्यों नही सुनी  ?    

लक्ष्मण के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए  रावण नें कहा ............

  तुम्हे लगता है !  मुझे पता नही था  कि  विभीषण  सत्य के मार्ग पर है  ?    मुझे सब पता था ......वो सत्य के मार्ग पर ही चलता आया है .....और मुझे सत्य का ही उपदेश दे रहा था..............

पर मैने विचार किया ...........कि    !  अगर  विभीषण भी लंका में रहा  तो ये लंका  पूर्ण अनाथ ही हो जायेगी .....लंका को  राजा नही मिलेगा .......लंका को राजा मिले  इसके लिए मैने  विभीषण को  राम के पास भेज दिया था ।........रावण नें लम्बी  साँस ली  ।

कभी भी  लक्ष्मण !   शत्रु को कम मानकर उसकी   उपेक्षा नही करनी चाहिए ............मैने की .........जिसका परिणाम  सामनें है.....   रावण फिर  हँसा   ।

तुम लोग आगये थे   लंका के  सुबेल पर्वत पर ......पर मैं    मन्दोदरी के साथ  राग रँग में  ही व्यस्त रहा ..........ये राजा की प्रजावत्सलता नही थी ......जिसका परिणाम  देखो  !     रावण  बोले जा रहा था  ।

पर .............रावण  को कष्ट हो रहा था  अब ......वो  कुछ देर चुप रहा  .....फिर   कराहते हुए बोला ..........लक्ष्मण !   सदैव सफलता ही कल्याण कारी नही होती ........कभी कभी असफलता भी  जीवन  में कल्याण के मार्ग खोल देती है ................

लक्ष्मण नें ये बात जब सुनी ........वो  चौंके ........रावण के  समीप गए .............मतलब  क्या है  आपका   रावण  !    

मतलब ये कि ..................मैं जब  तक था ............तब तक मैने  तुम लोगों को  अपनी लंका में प्रवेश करनें नही दिया .......पर  अब    मैं जा रहा हूँ ..........तुम्हारे  वैकुण्ठ .............रोक सकोगे ?    कह देना  अपनें राम से .....रोक सको तो रोक लो ........हम लोग  जय और विजय ही तो हैं ......नारायण के अनादि पार्षद ! ...........रावण  फिर हँसा  ।

लक्ष्मण के नेत्र सजल हो गए थे ...........

आचार्य !   अब मेरे मन में आपके प्रति सच्ची श्रद्धा  जागी है ..........

तो बोलो !  विजयी कौन हुआ    राम या रावण  ?    फिर हँसा रावण ।

मैने  रामेश्वर की स्थापना के समय  आपको प्रणाम किया तो था ....पर  उस समय  मेरे अग्रज  श्रीराम प्रभु के कहनें पर ........हे   आचार्य रावण !  अभी भी मैने आपको प्रणाम किया ......मेरे  पूज्य  अग्रज के कहनें पर ......पर अब मैं आपको सच्ची श्रद्धा से प्रणाम निवेदित करना चाहता हूँ .............लक्ष्मण नें  हाथ जोड़कर  रावण के सामनें सिर झुकाया ।

लक्ष्मण !  अब मैं बोल नही सकता .............मेरा शरीर  अब बोलनें की हिम्मत नही कर रहा .........पर एक बात सुनो !   

जीवन में सबसे  महत्वपूर्ण कार्य को  पहले करो ...........छोटे  छोटे  कार्यों  को  ज्यादा  महत्व मत दो ...........बड़े  कार्य करो ......बड़े कार्य के लिए  छोटे कार्यों  को त्याग  दो ............हाँ  लक्ष्मण !      

रावण चुप हो गया  इतना बोलकर ।

आपकी कोई महत्वाकांक्षा  अधूरी रह गयी है ?     

लक्ष्मण नें पूछा  था  ।

हम राक्षसों की  महत्वाकांक्षा अधूरी ही रहती  है .................

अच्छा ! सुनोगे  लक्ष्मण !       रावण नें पूछा  ।

जी !     लक्ष्मण नें  सिर झुकाकर कहा  ।

इशारे से अपनें और पास बुलाया   लक्ष्मण को  रावण नें .........उसकी आवाज अब  धीमी हो रही थी ...............उसका शरीर शिथिल हो रहा था .........।

लक्ष्मण !    मैं खारे समुद्र को मीठा करना चाहता था .....मेरी ये बड़ी महत्वाकांक्षा थी ...............।

ओह !  लक्ष्मण  चौंक गए  .......ये आप कर सकते थे ?  

व्यक्ति अगर चाहे तो उसके लिए कुछ भी असम्भव नही है .........रावण नें  कहा  ।

पर कैसे  ?  

रावण नें बताया .......मैं सागर को अनेकों भागों में विभक्त करके ......उसे बाँध देता .........एक एक भाग के जल को सूर्य की किरणों से  ख़ौला कर   उसे भाप बना देता ........उसका जितना नमक था  उसका पर्वत   खड़ा कर देता .......और  भाप को  पानी बनाकर     पुनः   उसी समुद्र में ही भर देता ............रावण नें  ये कहते हुए लक्ष्मण की ओर देखा ।

लक्ष्मण की आँखें  चकित भाव से देख रही  थीं रावण को ......ओह !  इतना महान कार्य !........आपनें क्यों नही किया   राक्षस राज ! 

यही तो - बड़े कार्य को छोड़ कर  छुद्र कार्य में  अपनी  ऊर्जा लगा दी मैने ..

रावण दुःखी स्वर में बोला   ।

और कोई महत्वाकांक्षा  ?     लक्ष्मण का प्रश्न था  ।

हाँ .............एक और !   रावण बोला  ।

मैं स्वर्ग तक जानें की सीढ़ी बनाना चाहता था  ....रावण नें कहा ।

लक्ष्मण हँसे..........ये तो  सम्भव नही है  ।

मैने कहा ना !   असम्भव कुछ नही है   लक्ष्मण ! 

पर ये आप कैसे करते ?        लक्ष्मण नें जानना चाहा  ।

हाँ  मैं जानता हूँ  स्वर्ग कोई स्थूल लोक नही है ...............लक्ष्मण ! वो सूक्ष्म लोक है .............पर मैं स्थूल और सूक्ष्म  के बीच सीढ़ी बनाना चाहता था .........और ये कोई असम्भव कार्य तो नही है ।

ओह !    ये कार्य अगर हो जाता तो !      लक्ष्मण  स्तब्ध थे  ।

मैं चाहता था  कि  स्थूल शरीर  से ही  उस सूक्ष्म  लोक में  जा सके मनुष्य  ......हाँ  उस समय हो सकता है ........स्थूल शरीर  यहीं रह जाए ........पर   सूक्ष्म शरीर से ही    स्वर्ग का भोग भोगकर वापस आसके .......ऐसी व्यवस्था  !      पर  पुण्य से नही ........शक्ति बल से ....संकल्प बल से ...........।

रावण  बोला......मैं पापी और पुण्यात्मा का भेद मिटाना चाहता था  ।

पर इससे तो पृथ्वी   मैं मात्र राक्षस ही रह जाते .........हे रावण !  ठीक हुआ  आपकी ये इच्छा पूरी नही हुयी ..........लक्ष्मण  नें  गम्भीर विचार कर कहा  ।

रावण हँसा ..............अंतिम बात  लक्ष्मण !      प्रकृति परमात्मा की है उसके साथ खिलवाड  नही करना चाहिए ..............।

मैं जा रहा हूँ ........मैं इस शरीर को त्याग रहा हूँ ..........पर  ........

पर क्या  ?    

तुम  मुझे दक्षिणा नही दोगे ?      

रावण हँसा ....आचार्य बना लिया,  उपदेश ले लिया,   अब मेरी दक्षिणा ? 

माँगिये  आचार्य रावण !  लक्ष्मण नें कहा  था ।

बस मेरे सामनें    राजिव नयन श्रीराघवेन्द्र को  खड़ा कर दो ।

रावण की बात  पूरी हुए नही थी कि ...........

मैं आपके सामनें ही हूँ   आचार्य रावण !     श्रीराम  सामनें खड़े हैं .....मुस्कुरा रहे हैं ..........रावण नें  देखा........रावण भी मुस्कुराया ......अपलक नयनों से देखता रहा श्रीराम को.......देखता रहा .........

उसके स्थूल शरीर से  उसकी ज्योति निकली .......और  श्रीराम की परिक्रमा करते हुए  श्रीराम के ही चरणों में समा गयी ।

ये सारी घटना मुझे त्रिजटा नें ही सुनायी थी ...........।

श्रीराम भक्त रावण ?         हाँ ........यही सत्य है  ।

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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