वैदेही की आत्मकथा - भाग 99

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 99 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

हा राघवेन्द्र !  हा रघुनाथ !     पर मेरी कौन सुनता  ..........बड़ी तीव्र गति से रावण का रथ चल रहा था ........मैं  इधर उधर देखे जा रही थी ......मेरी दृष्टि  ज्यादा नीचे ही थी ..............वर्णन से बाहर जा चुकी थी मेरी वेदना .........मैं  बारबार  जटायू जी को भी याद कर थी कि .......ओह ! मुझ भाग्यहीना के कारण  जटायू जी  के प्राण चले गए  ।

कोई तो दीख जाए .........मैं  नीचे ही देख रही थी  ......अपनें स्वामी श्रीराम तक सन्देश  पहुंचानें के लिए कोई सूत्र तो हो ...........

तभी मैने देखा ........एक पर्वत शिखर है ..........वहाँ पाँच  शक्तिशाली से दीखनें वाले वानर दिखाई दिए .........मैने अपना उत्तरीय फाडा  अपनें सारे आभूषण उतारकर  उसमें बाँध कर  नीचे फेंका .........मैं सीता हूँ ....जनक पुत्री सीता ......आप लोग  मेरे भाई बनना ...........मेरे स्वामी श्रीराम को  मेरा सन्देश दे देना .......मुझे  राक्षस रावण हरण करके ले जा रहा है ............मै चिल्लाकर बोली थी  ।

रावण हँसा ...............ये  वानर  अब तुम्हारे राम की सहायता करेंगे !

बाली से भाग कर  ऋष्यमूक पर्वत में छुपे बैठे  ये वानर   तुम्हारे राम की सहायता करेंगे  ?     रावण हँसता ही जा रहा था  ।

कापुरुष !   दुष्ट !   डरपोक !       अपनें आपको तू वीर कहता है .....अगर हिम्मत थी तो मेरे श्रीराम के सामनें आता ...............मैं  रावण को धिक्कारनें लगी थी ............तू अब बच नही सकता  रावण !   तू कहीं भी छुप जाए  मेरे श्रीराम  तुझे  खोजकर  काल के गाल में डाल ही देंगें  ।

पर मैं जब क्रोध में  बोलती  तब रावण मौन हो जाता ............वो मेरी बात का उत्तर नही देता ......अपना ध्यान कहीं और लगा लेता था ।

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ये है मेरी लंका .........देखो !   सुन्दरी !    ये है  स्वर्णमयी मेरी लंका ।

उसनें  ऊपर से ही मुझे बताया .........पर  मैं क्यों देखनें लगी  उसकी लंका को ...........मै बस रोये जा रही थी .................

उसनें अपना रथ अपनें अन्तःपुर में ही उतारा ...............

इस को समझाओ !  इसकी सेवा करो ......इसको मणि माणिक्य वस्त्र जो चाहिये अविलम्ब दो .............रावण नें अन्तःपुर में उतरते ही अपनी राक्षसियों को आदेश दिया था  ।

रावण  आदेश देकर चला गया  था  किसी कार्य के लिए  ।

 सुन्दरी !  बात मान लो ............ये वस्त्र पहन लो ..........ये मणि धारण करलो .........हम आपके केश बनानें आई हैं ..............ये उबटन है  लगा लो ...........कई राक्षसियाँ  मेरी सेवा के लिये आगयी थीं  वहाँ ।

मैं घुटनों में अपना सिर रखकर रोती रही ....................

देख !   तू अगर बात नही मानेगी  तो हम  तुझ पर बल प्रयोग  करेंगी ।

राक्षसियों नें मुझे धमकाना शुरू कर दिया था  ।

कौन करेगी  बल प्रयोग ?    दो   सभ्य नारी  आगे आयीं .......।

क्या नाम है तुम्हारा ?    मेरे ऊपर स्नेह बरसाती हुयी बोलीं थीं  ।

सीता !    मै  रघुकुल नन्दन श्रीराम की भार्या हूँ .........ये  रावण मुझे हरण करके  ले आया है .......मैं ये कहते हुए  फिर रोनें लगी थी ।

मैं   रावण की पत्नी हूँ ....मन्दोदरी ..................मैने  मन्दोदरी की ओर देखा .................वो सुन्दरी थी ............और मैं  महाराज रावण के छोटे भाई  विभीषण  की भार्या   "सरमा" हूँ .................

माँ !   आप लोग  यहाँ हैं  ? 

मैने देखा .............एक  सुन्दर सी युवती ............साँवली थी वो ......पर नैन नक़्श तीखे थे उसके .....तीन चोटी बना रखी थी  .......वो  गम्भीर थी.........उसनें मुझे  देखा ............और ध्यान से देखा ...............ताऊ जी  सुधरेंगें नही ताई  !   उसनें मन्दोदरी की और देखा था ये कहते हुए ......      वो   इतना कहकर मेरी और आई ............

मेरे पास आई ...............मैं उससे थोड़ी खिसकी.........मुझे यहाँ किसी को स्पर्श नही करना था .........चाहे महिला ही क्यों न हो ।

आपके पति  ?   

उस युवती  नें मुझ से पूछा ।

श्रीराम .......मैने कहा  ।

ओह !    राम !  राम ! राम !      उसनें  बड़े प्रेम से  इस नाम का उच्चारण किया ..................

मै उसे देख रही थी .............इस युवती  का हृदय मुझे पवित्र लगा  ।

मेरे पिता जी कहते हैं    कि  "राम"  इस सृष्टि का  सबसे सुन्दर नाम है ।

तुम्हारे पिता जी  ?         मैनें उससे पूछा ..............

ये मेरी माँ हैं .............."सरमा" ...........उसनें बड़े प्रेम से अपनी माँ के गले में हाथ डालते हुए कहा  ..................

मेरे पिता हैं  श्री विभीषण जी .................

तभी  रावण आगया ...........................ये मानी की नही  ?    

राक्षसियों से उसनें क्रोधित होते हुए पूछा  ।

ये कोई बात सुनती ही नही ............किसी पदार्थ की और आकर्षित ही नही होती .............बस ऐसे ही बैठी है  और रोये जा रही है.....

राक्षसियों नें कहा  ।

ताऊ जी !      अगर आप आज्ञा दें  तो मैं कुछ कहूँ  ? 

उस विभीषण की बेटी नें  रावण से कहा  ।

हाँ  कहो ....क्या बात है   ........रावण  नें  शान्त होकर  पूछा ।

इन देवी को   यहाँ अन्तःपुर में न रखा जाए .......इन्हें अशोक वाटिका में रखिये...........और अशोक वाटिका में   किसी पुरुष  को प्रवेश की अनुमति न दी जाए .........बस सेवक और सेविकाएँ   रहेंगीं   ।

और तू सब सम्भाल लेगी ........है ना ?     रावण प्रसन्न हुआ था ।

हाँ  ताऊ जी ......मैं सब सम्भाल लुंगी ..............उस युवती  नें  सहजता में कहा ................।

लंका में तुम्हारे जैसा बुद्धिमान और कौन है  !

ये जैसा कहती है वैसा ही करो .............रावण नें आज्ञा दी ।

और अन्तःपुर की रानियाँ  भी वहाँ न जाएँ ..........ताऊ जी ! ये  आज्ञा भी आप दे दो ...........उस विभीषण की कन्या नें ये भी कहा  ।

और तुम्हारी आज्ञा से ही वहाँ सबकुछ होगा ..........ये कहते हुये रावण हँसा था ..............उस युवती  नें मेरी   और चुपके से देखा और आँखें  इस तरह मटकाई  जैसे  वो  रावण की ओर नही    मेरी और थी  ।

सारी व्यवस्था क्षण में ही हो गयी थी ...................

मुझे लेकर  वही युवती  अशोक वाटिका  आई.................

सुनो !  तुम्हारा नाम क्या है  ?  मैने पूछा था उससे .......

"त्रिजटा"........यही नाम बताया उसनें ......फिर  मुस्कुराते हुये बोली ...........मैं आपके  साथ हूँ .......चिन्ता मत करो  ये रावण तुम्हारा कुछ नही बिगाड़ सकता  ................

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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