वैदेही की आत्मकथा - भाग 104

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 104 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

ये मेरा भाई है ....."मत्तगजेंद्र".......त्रिजटा आज अपनें भाई को भी साथ ले आई थी.......और मुझे प्रणाम करनें को कहा था  ।

कितनें भाई बहन हो तुम ?   मैने  त्रिजटा की ओर देखते हुए पूछा था ।

भाई !   तू जा .........रावण  आजायेगा  तो क्रोधित होगा .........क्यों की यहाँ किसी पुरुष का प्रवेश नही है ..............अपनी बहन त्रिजटा की बात सुनकर मेरे  सामनें  झुक कर प्रणाम करते हुए  वह चला गया था  ।

हम दो ही  भाई बहन  हैं .......त्रिजटा नें मुझे बताया   ।

ये मुझ से छोटा है   मत्तगजेन्द्र ........और  मैं  ।

त्रिजटा  !    तपस्या सफल हुयी  फिर  उन तीनों भाइयों की  ?    

मैने पूछा था ..........मुझे जानना था रावण के बारे में .......।

त्रिजटा सुनानें लगी थी  आगे की घटना  -

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दस हजार वर्ष बीत गए थे  तपस्या करते हुए  रावण को ................

उसके शरीर में दीमक लग गए थे ..........पर आज  रावण नें  अपनी आँखें खोलीं ............दस हजार वर्ष हो गए  फिर भी  विधाता ब्रह्मा मुझे वरदान देनें नही आये  !     

तो क्या   मेरे परदादा ब्रह्मा  भी  देवताओं से मिले हुए हैं .? 

फिर  अट्टहास करते हुए हँसने लगा था रावण ................फिर  अपनी मुट्ठी भींच ली थी..................अंगार जैसे  दो आँखें दीख रही हैं .........शरीर को  झाड़ा  तो  सारी मिट्टी गिर गयी  ।

अब मैं दिखाता हूँ  अपनें परदादा ब्रह्मा को   कि तपस्या किसे कहते हैं ।

वो  गया    लकड़ियाँ इकट्ठी कीं ............अग्नि का आव्हान किया ......

जल उठी  लकड़ियाँ .........तभी  रावण नें अपनें हाथ,  अपनें गर्दन में मारे ..........और लम्बे लम्बे  नाखूनों से     गर्दन को काट डाला  ......और चिल्लाते हुये  उस गर्दन को   अग्नि कुण्ड में   डाल दिया  ।

पर  ये क्या  विधाता को ये सब मंजूर न था ..........उसका मस्तक फिर  धड़ से जुड़ गया  था  ।

रावण फिर हँसा ......विधाता !  ऐसी तपस्या तुमनें देखी नही होगी !

फिर  रावण नें   उस मस्तक को भी  अपनें नख से काट कर चढ़ा दिया ।

ऐसे  नौ बार    अपनें मस्तक को काटता रहा   और चढ़ाता रहा .....मस्तक वापस  जुड़ जाते थे ................

अब बारी थी    दसवीं बार   सिर को काटकर चढानें की  ............रावण  रक्त से नहा गया था .........पर उसे इसकी क्या परवाह  !    उसे तो  तप करके   विधाता को रिझाना था .....और  इच्छानुसार वर माँगना था ।

दसवीं बार  में  रावण   फिर  अपनें नख से   अपनें ही सिर को काटकर  चढानें जा रहा था  कि .............

हे दशानन !      

एक  गम्भीर आवाज गूँजी    ।

ये किसनें मेरा नाम  करण कर दिया ......दशानन ?   रावण चौंका ।

तुमनें अपनें दस मस्तकों को चढाया है ........इसलिये  तुम्हारे पास अब दस मस्तक होंगें........पर ये  दस सिर     सहस्रों  सिर के समान हैं ......काटनें वाला कितना भी काट ले  पर  तुम्हारे सिर वापस आजायेँगेँ ......विधाता नें  रावण को ये बात भी बताई थी  ।

वरं ब्रूहि.....वरदान माँगो वत्स !   उन चतुर्मुखी  ब्रह्मा नें अब कहा था ।

रावण  आनन्दित हो उठा ........दशानन   दसग्रीव .........मेरे ये नाम कितनें अच्छे हैं ........धन्य हुआ मैं  ,  धन्य हुआ    रावण  हाथ जोड़कर खड़ा है  ब्रह्मा के सामनें ..............

वरं ब्रूहि ......वरदान माँगो वत्स !     फिर वही बात दोहराई विधाता नें ।

मुझे अमरत्व की प्राप्ति हो !

............रावण नें इस बात को बड़ी विनम्रता से कहा  था  ।

पर ये सम्भव नही है .................अमरत्व   मेरी सृष्टि में किसी को प्राप्त नही है .........ये वरदान  अलभ्य है वत्स !  कुछ और माँगो .......

विधाता नें  साफ शब्दों में कह दिया  ।

रावण कोई बुद्धिहीन नही था ..............उसनें तुरन्त कहा ........"वानर और मनुष्य को छोड़कर  मुझे कोई दूसरा न मारे" 

रावण यही सोच रहा था ..............बेचारा मानव  मुझे क्या मारेगा ....और बन्दर ? ........वो हँसा  था  ...........हे विधाता  !  आप यही वरदान मुझे  दो ..............।

एवमस्तु ..............ये कहनें में ब्रह्मा को क्या देरी लगनी थी  ।

रावण खुश हुआ........पर  उसनें देखा    मेरे बगल में दो और तापस तपस्या में लीन हैं......रावण  उन्हें देखकर  कुछ सोच ही रहा था कि.....ये तुम्हारे ही भाई हैं ...........माँ अलग अलग हैं तो क्या हुआ  पिता  तुम तीनों के एक ही हैं  -  ऋषि विश्वश्रवा  ।

रावण देख रहा था  कुम्भकर्ण को ......बड़ा वीर है ये तो ..........

तभी  विधाता मुड़े    कुम्भकर्ण की ओर ..............

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हे रामप्रिया !       रावण के विधाता से  वरदान मांगते समय   सारे देवों की साँसें अटकी हुयी थीं ..............

अब जब   विधाता ब्रह्मा  मुड़े थे  कुम्भकर्ण की ओर ..............

तब   देवताओं में खलबली मच गयी ................ये तो समस्त सृष्टि को एक ही बार में खा जाएगा ....................ये जहाँ जाएगा  वहीं   हाहाकार मचा देगा ...........हर दिन ब्रह्मा  सृष्टि बनायेगें  और ये हर दिन  उनकी सृष्टि का विनाश  करता रहेगा .....................

   "ये तो इन्द्रासन माँगनें जा रहा है"...............देवों नें पीछे मुड़कर देखा  तो  देवर्षि खड़े हैं........और मुस्कुरा रहे हैं..............।

सबनें  देवर्षि नारद जी के चरणों में प्रणाम किया ................

क्या कहाँ आपनें  देवर्षि  !  ये  मेरा सिंहासन मांगेगा, विधाता ब्रह्मा से ?

नारायण नारायण ..............मेरा अनुमान गलत नही होता  देवराज !

अब बचा लो अपना सिंहासन ..........नही तो तुम  गए ...और ये  कुम्भकर्ण आजायेगा .............बताना मेरा काम था .........अब मैं जा रहा हूँ  ..........नारद जी चल दिए थे  ।

देवर्षि !  देवर्षि !       अब उपाय तो बताते जाओ ...............कि हम क्या करें  !     उपाय !    नारद जी कुछ सोचे जैसा किये .........फिर बोले .....एक काम करो .......देवी  सरस्वती का आव्हान करो ..........

इन्द्र नें कहा ....कर लिया .........इन्द्र नें  स्मरण ही किया था कि   देवी सरस्वती  सामनें प्रकट थीं ...........

अब क्या कहना है  देवी सरस्वती से ?  देवराज नें पूछा  ।

नारद जी बोले ..............बस देवी  सरस्वती  कुम्भकर्ण की  जिव्हा में जाकर बैठ जाएँ .........और वह जब "इन्द्रासन" माँगे  तो  'निद्रासन"  बुलवा दे .......बस ......नारायण नारायण नारायण ........हँसते हुए नारद जी चल दिए थे आगे के लिये  ।

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वरं ब्रूहि ......वरदान माँगो वत्स कुम्भकर्ण !     

विधाता  ब्रह्मा नें कुम्भकर्ण को भी वरदान माँगनें के लिए कहा ।

वो कहनें जा रहा था .................इन्द्रासन .......पर  सरस्वती  उसकी जिव्हा पर  बैठ गयी थीं .......निद्रासन ..............कुम्भकर्ण बोला ।

रावण भी चौंक गया था   कुम्भकर्ण का वर सुनकर ............

एवमस्तु .............विधाता नें कहा    और  मुड़ गये   थे  विभीषण की ओर ...............यानि मेरे पिता  विभीषण ....त्रिजटा नें कहा  ।

" मेरी  श्रीहरि के चरणों में  रति हो "........बड़े प्रेम से  मेरे पिता विभीषण जी नें माँगा ...............।

विधाता  ब्रह्मा मुस्कुराये  मेरे पिता जी के मस्तक में अपनें हाथ रखे  और वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए  ।

रावण देख रहा था .............विशाल शरीर धारी ये कौन है  ? 

कुम्भकर्ण दौड़ पड़ा ............भैया !   मैं   आपका  अनुज कुम्भकर्ण ।

ऋषि विश्वश्रवा का  पुत्र .......रावण  प्रसन्न हुआ था     और बड़े प्रेम से  उसनें  अपनें  आलिंगन में भर लिया था   कुम्भकर्ण को  ।

पर  भैया !      मेरे साथ देवताओं नें छल किया है .............क्रोध से आँखें लाल हो गयीं थीं कुम्भकर्ण की ............

मैं जानता हूँ ...............देवता हमारे पक्ष में नही हो सकते .........तुम  इन्द्र का सिंहासन माँग रहे थे ....पर देवों नें छल किया  तुम्हारे साथ ...
रावण बोला.......।

 .....कोई बात नही ......हम बदला लेंगें इन देवों से ........रावण की पीठ थपथपाई  कुम्भकर्ण की ।

ये कौन है  ?       मेरे पिता  विभीषण को देखकर  रावण नें पूछा था  ...

भैया ! ये भी   हमारा ही भाई है ......विभीषण ............

मेरे पिता विभीषण नें आगे बढ़कर  अपनें बड़े भाई रावण के पैर छूए थे ......पर  इसनें क्या वरदान माँगा  ?      मेरी समझ में नही आया  ? 

श्रीहरि ...यानि विष्णु....ये कैसे हमारे कुल में विष्णु भक्त पैदा हो गया ?

रावण इतना कह ही रहा था कि ............

भैया ! मुझे भूख लग रही है .......और नींद भी आरही है ............

इतना कहते ही   कुम्भकर्ण नें   जो मिले उसे ही खाना शुरू कर दिया ....जल थल नभ के जो प्राणी मिले .......उसे ही पकड़ पकड़ कर खाना शुरू ..................कुछ देर में  नींद आगयी थी  कुम्भकर्ण को ....तब तक  उसकी  माँ कैकसी के पास  रावण ले गया  था ..........

शेष चरित्र कल ....

Harisharan

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