आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 98 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही .........मैं चिल्लाये जा रही थी .........रावण का रथ पूरे वेग से उड़ रहा था ..............दुष्ट ! नीच ! तू क्यों अपना विनाश आमन्त्रित कर रहा है ......मुझे तू जानता नही है मैं अजेय, जितेन्द्रिय यशस्वी श्रीरघुकुल नन्दन की अर्धांगिनी हूँ । .....मैं इतनें क्रोध में थी कि मेरा शरीर काँप रहा था ।..........महासर्प की मणि को छीन कर तू सकुशल रहनें की कामना कर रहा है .....मूर्ख है तू .........तू सोच नही सकता तू क्या कर रहा है .........।
रावण के चेहरे में मैने भय देखा ........पर वो छुपा रहा था ......
मैं राक्षसराज हूँ...........रावण मेरा नाम है ...........अरे ! देवता तक मेरे नाम से काँपते हैं .........तेरा राम क्या है ! तू चल तो मेरी स्वर्णमयी लंका में इस सामान्य मानवी राम को तू भूल जायेगी ।
मैं तुझे लंका की सर्वप्रधान महारानी बना दूँगा और रही बात राम की तो वो सौ योजन समुद्र पार लंका में कभी आ ही नही सकता ..........समुद्र से घिरी मेरी लंका अजेय है ...............।
दुष्ट रावण ! तेरे इस अपराध से तेरा सम्पूर्ण कुल नष्ट होगा ...........मैने उसे दुत्कारा .........नीच रावण ! भले तू कहीं छुपे .......चाहे पाताल या रसातल कहीं भी ....मेरे श्रीराम के उन अमोघ बाणों से तू बच नही सकता........और रही बात मेरे लंका में रहनें की ..........हँसी आती है मुझे और दया आती है तेरे कुल-जाति के लोगों पर कि तू उन्हें भी समाप्त करनें की सोच बैठा है ........अरे ! सूर्य अपना ताप छोड़ सकता है ....पर सीता अपनें राम को नही छोड़ सकती .....चन्द्रमा अपनी चाँदनी छोड़ सकता है ..........पर ये सीता अपनें राम को नही छोड़ सकती ।
ये जनकपुत्री, कभी राम के अतिरिक्त किसी और की हो ही नही सकती ।
मैं पूरी ताकत से चिल्लाकर बोली थी ।
मेरी रोषपूर्ण आवाज सुनकर रावण काँप गया था......वो मौन हो गया ........फिर धीरे से अपनें सारथि से कहा ........रथ को और तेजी से भगाओ ..........कहीं राम न आजाये ।
मैं कातर स्वर से अंजलि बाँधे प्रार्थना करनें लगी थी समस्त से........
हे वनराज ! हे वनदेवी ! हे वृक्षों ! हे देवी गोदावरी ! मेरे स्वामी श्रीराम के लौटनें पर उन्हें ये सब बता देना कि मेरा हरण इस दुष्ट नें किया है ।
हा लक्ष्मण ! मैं तुम्हारी अपराधिनी हूँ ...........मैनें तुम्हे क्या नही कहा .....ओह ! हे लक्ष्मण ! असहनीय वचन मैने तुम्हे कहे थे ....तुम इस विपद् में पड़ी हुयी सीता को क्षमा कर देना ............फिर पुकार उठी थी मैं .......लक्ष्मण ! हा लक्ष्मण ! कहाँ हो तुम ............दौड़ो ! देखो ये राक्षस रावण मुझे ले जा रहा है ........मेरे स्वामी ! आप कहाँ हो .......आप आओ मेरे पास ..........देखो ! आपकी वैदेही का हरण करके ले जा रहा है ये दुष्ट ! , आर्यपुत्र ! आओ ना ! स्वामी !
मैं व्याकुल हो उठी थी ..............मैं कभी नीचे देखती कभी आकाश में ........कोई तो मेरे स्वामी श्रीराम को बता दो कि उनकी सीता को रावण चुरा कर ले जा रहा है........कोई मेरे देवर को कह दो .........हा नाथ !
मैं बस पुकारे जा रही थी ...................
तभी मैनें देखा जटायू जी को, मैनें पुकार लगाई - देखिये ये राक्षस मुझे चुरा कर ले जा रहा है ......मुझे बचाइये.....आप मेरे पिता जैसे हैं ......आप मुझे देख रहे हैं ना ? मैने जटायू जी से प्रार्थना की ।
पुत्री सीता ! उनकी आवाज पूरे वन प्रांत में गूँज उठी थी .........
भय मत करो ..........मैं इस दुष्ट रावण को नष्ट कर दूँगा .........मैं हूँ ना पुत्री सीता ! तुम निश्चिन्त हो जाओ ........
इतना कहकर वो जटायू उडे............उनके उड़नें से वन समूह उखड़ने लगे थे .........ऐसा लग रहा था कि कोई पहाड़ ही उड़ा चला आरहा है ......रावण भी चौंक गया था .....ये कौन है ....गरुण है या मैनाक ? गरुण तो नारायण को छोड़कर यहाँ क्यों आनें लगे......मैनाक तो समुद्र में छुप कर बैठा है ......फिर ये कौन है ?
रावण सोच ही रहा था कि जटायू जी रावण के सामनें खड़े हो गए थे ......इतना विशाल पक्षी !.........रावण का रथ रुक गया था .........
रावण चिल्लाया ..............सारथि रथ चलाओ .........
पर जटायू नें सबसे पहले सारथि को ही मार दिया अपनी चोंच से ।
अब पंख फैलाकर रावण के ऊपर टूटनें की तैयारी में थे जटायू जी कि उससे पहले उनकी गम्भीर ध्वनि गूँजी ..............
रावण ! मैं जटायू ......गीधराज जटायू ......सीता को छोड़ दो .....मेरी बात मानों सीता को छोड़ दो ........तुम तो ऋषि पुलत्स्य के पौत्र हो ......फिर ऐसे कर्म क्यों कर रहे हो ............
सुनो ! रावण ! राम निरपराध हैं ........गलती तुम्हारी बहन सूर्पनखा नें ही की थी ........मैं तुम्हे सारी बातें बताऊंगा ......पर पहले सीता को छोडो .........जटायू जी नें रावण को धमकाया भी ..........
रावण ! मैं तुमसे वृद्ध हूँ ...........तुम युवा हो ....पर याद रखो मेरे जीते जी तुम सीता को यहाँ से नही ले जा सकते .................
मैं समझ गयी थी .....कि जटायू जी बातों में रावण को लगाकर बिलम्ब करना चाहते थे .....ताकि तब तक मेरे श्रीराम भी यहाँ आजायें ।
पर रावण इतना मूर्ख नही था .......वो समझ गया ............उसका रथ सारथि विहीन होनें के कारण दिशा से भटक गया था ।
रावण नें धनुष निकालना चाहा ........पर अपनी चोंच से पकड़ कर जटायू जी नें धनुष को फेंक दिया ......रावण के ऊपर प्रहार करनें लगे थे ........रावण के रक्त बहनें लगा था मस्तक से ............
पक्षीराज झपटे..........रावण के वक्ष पर अपनें चोंच का प्रहार किया ।
रावण गिर गया रथ में .........रावण के साथ साथ रथ भी पूरे वेग से पृथ्वी की और गिर रहा था................
दोनों में घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था................
एक बार पूरी शक्ति से प्रहार किया रावण के ऊपर जटायू नें......इस प्रहार को रावण सह नही सका....और रथ में ही मूर्छित होकर गिर पड़ा ।
जटायू जी मेरे पास आये........और मुझे अपनें पंजो में उठाया , उड़नें ही वाले थे कि .......रावण सचेत हो गया........
पास में रखे चन्द्रहास खड्ग को देखा रावण नें ......फुर्ती से उठा और जटायू के पंख में जोर से दे मारा.......वो पंख कट कर गिर गया .....पर जटायू जी फिर भी मुझे लिए उड़ ही रहे थे .....रावण नें दूसरा पंख भी काट दिया........इतना ही नही उनके पैर - पंजे भी काट दिए......वो फड़फड़ाते धरती में गिरे.......मैं भी गिरी.......पर मैनें देखा जटायू जी तड़फ़ रहे थे ......उनके न पंख थे न पैर........मैं उनकी और दौड़ी ......उनसे लिपट गयी .........जैसे कोई पिता से पुत्री लिपट जाती है ..........उनकी बस धड़कनें चल रही थीं ।
मैं चीत्कार कर उठी..........आर्यपुत्र ! दौड़ो..........
देखो ! यहाँ क्या अनर्थ कर दिया इस रावण नें...........
पर रावण नें एक और "मायामयी" रथ का निर्माण किया....मुझे जबरन उसमें बिठाया......और आकाश मार्ग से फिर ले चला ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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