वैदेही की आत्मकथा - भाग 100

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 100 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ..........

ये है अशोक वाटिका.....त्रिजटा नें मुझ से कहा था.....पर  इसका नाम सार्थक नही है "अशोक" का मतलब है ...जहाँ शोक नही है....पर मुझे तो यहाँ शोक ही शोक है.....त्रिजटा कुछ नही बोली.....मैं उसे देख रही थी  ।

सुन्दर है त्रिजटा .......साँवली है ..........आँखें  बड़ी बड़ी हैं ..........बाल घनें और रंगीन  हैं.......उन्हीं बालों को गूँथकर  तीन जटायें बना ली हैं इसनें........पर   इस पर ये सब  फंव रहा है   ।

मुझे ये अच्छी मिल गयी थी   लंका में .................मुझे रोनें नही देती ये ...........मेरी जब जब व्याकुलता बढ़ जाती थी ......तब  ये मुझे सम्भाल   लेती थी  ।

अर्धरात्रि में ही आगया  था  रावण उस दिन......."मेरी ओर एक बार तो देखो" ......वो बारबार कह रहा था .......मैं  हाथ में तृण लिये  चिल्लाई ........इसी तृण से भस्म कर दूंगी  तुझे  ।

रावण डर गया था .......पर  डरना,   ये उसे प्रदर्शित करना  नही था  ।

त्रिजटा !  कह दो इसे......14 माह का समय देता हूँ मैं......तब तक ये मान जाए ........मुझ दशग्रीव को वरण कर ले .......नही तो.......

महाराज !   विधाता ब्रह्मा उपस्थित हो गए हैं.......भूतभावन भी पधार गए हैं .............आप  चलें ....  एक सेवक नें आकर सूचना दी  ।

रावण चला गया .............पर जाते जाते बोल गया था  त्रिजटा !  14 माह का समय दिया है मैने   याद रहे  इसे   ।

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यज्ञ का धूंआ   उड़नें लगा था.........वेदों के मन्त्र  उच्चरित हो रहे थे  ।

ये क्या हो रहा है  ?    ये सब क्या है त्रिजटा  ?    मैं चौंक गयी थी  .....

और  उस सेवक नें रावण से क्या कहा .....विधाता ब्रह्मा स्वयं आये हैं ? 

हाँ  वो नित्य  ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व ही आजाते हैं........त्रिजटा नें सहजता में कहा ......जैसे  उसके लिये  विधाता का आना  कोई बड़ी बात नही थी ।

और भूतभावन यानि  भगवान शंकर  ?     मैने  फिर साश्चर्य पूछा ।

हाँ .................त्रिजटा नें कहा  ।

 

पर ये  सब  इस  राक्षस   के यहाँ क्यों आते हैं   ? 

रावण  भगवान शंकर का अभिषेक करता है .......फिर यज्ञ करता है .....ब्रह्मा आते हैं   वेद के मन्त्रों का उच्चारण करनें के लिये .......और भगवान शंकर आते हैं   अपनी अर्चना करवानें के लिये......

त्रिजटा नें मुझे बताया  ।

अगर न आएं  भगवान शंकर  तो  ?      मैने पूछा ।

अपनें आपको काट कर फेंक देना प्रारम्भ कर देता है रावण ...........

भगवान शंकर को भी इसनें वश में किया है ......मात्र तामसिक अर्चना से ......अपना मस्तक काट काट कर चढानें लगा था  भगवान शंकर में ।

ऐसी  अर्चना ? .......और ऐसा उपासक ?    भगवान शंकर को भी कोई दूसरा नही मिला होगा .......स्वाभाविक है ......वो भी  डर गए ......और रावण से बोले .......तू जो कहेगा मैं मानूँगा..... ..पर ये मस्तक काटना बन्द कर दे ........तब इस दशानन नें  भगवान शंकर से कहा था .......आपको   मेरी लंका में  नित्य  ब्रह्ममुहूर्त में  अपनी पूजा करवानें के लिये आना पड़ेगा  ।

हँसी त्रिजटा .........आना ही पड़ेगा .......नही आयेंगें  तो फिर अपना मस्तक काटना शुरू कर देता है  ये रावण ...........।

और विधाता ब्रह्मा ...?    मैने विधाता के बारे में पूछा ।

वो  तो परदादा हैं  रावण के .................त्रिजटा नें ये और रहस्य बता दिया था ........तो परपोता जिद्द करे तो उसकी बात क्यों न मानें !

मैं स्तब्ध थी ...............ऐसा है ये रावण  !     ब्राह्मण .......विद्वान ....और सर्वश्रेष्ठ उपासक ।  ..........पर धर्मात्मा नही है रावण  न इसे बनना ही है ..............त्रिजटा नें कहा  था  ।

मैं सोच में पड़ गयी थी.........हाँ कितनी गहरी बात कही है  त्रिजटा नें.... .......उपासक तो  है  रावण ......पर   धर्मात्मा नही है ........और धर्म का मतलब होता है  "सत्य" से ..........पर रावण में "सत्य" कहाँ  था  ।

पर  ये   सन्तान किसकी है  ?      किससे उत्पन्न हुआ है  ये रावण ?

और  ब्राह्मण  है,    हे  त्रिजटे !   तुमनें कहा ......ये विधाता ब्रह्मा का प्रपौत्र है ............कैसे ?          

त्रिजटा  हँसी................निश्छल हँसी है इसकी  ।

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ब्रह्मा के अनेक पुत्रों में एक पुत्र  ऋषि पुलस्त्य भी थे ..........

वत्स !  सृष्टि को आगे बढ़ाओ !

......विधाता को शायद और कुछ कहना आता ही नही.......उनको सृष्टि का कार्य और उसको  विस्तार  देना,    बस इतना ही जानते  हैं   ।

पुलत्स्य नें   सृष्टि का नाम सुनते ही  सिर हिला दिया ...........मुझे विवाह नही करना ..............और मैं  विवाह क्यों करूँ  ?       

अपनें  पिता की आज्ञा नही मानते  हो तुम ?  

विधाता ब्रह्मा  कुछ कुपित से होनें को हुए थे ......।

पिता जी !    बड़े भाई नें ही ये परम्परा शुरू की है......  पिता के अनुचित आज्ञा के  उल्लंघन करनें की ............इशारा   ऋषि पुलत्स्य का   सनकादि ऋषियों की ओर था   ।

वत्स !   सृष्टि  के   कार्य में मेरी सहायता करनी  ही होगी  तुम्हे ।

इतना कहकर  अंतर्ध्यान हो गए थे विधाता ब्रह्मा  ।

युग था  सतयुग.......हे सीता देवी  !   हिमालय की एक कन्दरा में ऋषि पुलत्स्य तपस्या में लीन हो गए  ........स्थान बड़ा रमणीक था ।

पर कुछ कोलाहल सा  हुआ  तो ऋषि पुलत्स्य की तपस्या टूट गयी ........

चारों ओर  देखा -   कन्याएं खेल रही थीं .............उनका चहकना ......उनका हास्य .......उनका  उछलना ............तपस्वियों को ये सब कहाँ प्रिय होगा ........................

"जो कन्या इस स्थान में आएगी ..........वो गर्भवती हो जायेगी"

ये क्या बात हुयी ............पर ऋषि को यही श्राप सूझा और दे दिया ।

ये  रावण का इतिहास मुझे त्रिजटा सुना रही थी  ।

ऋषि पुलत्स्य अब आनन्द से तप में लीन हो गए थे ..............

नही माँ !  नही .........मुझे नही पता  ये सब कैसे हो गया  ?

राजा तृणविन्दु  की राजकुमारी  खेलते हुए उस स्थान पर चली गयी थी .....जिस स्थान के लिए ऋषि नें श्राप दे दिया था .........और वह गर्भवती हो गयी थी ........।

मोटे मोटे अश्रु गिर रहे थे  उस राजकुमारी के ..................

मुझे नही पता माँ !   ये कैसे हो गया,     बस रोये जा रही थी वो राजकुमारी  ।

राजा तक बात पहुंची  तो राजा तृणविन्दु नें    खोज करवाई .......तब पता चला कि  उस स्थान में  जो कन्या जायेगी  वह गर्भवती हो जायेगी ......ये श्राप देकर  बैठे हैं तप में    ऋषि पुलत्स्य  ।

हे  ऋषिवर !   आपके लिये  मै भिक्षा लाया हूँ ..............

राजा तृणविन्दु नें  हाथ जोड़कर  तप में लीन ऋषि से कहा ।

आँखें खोलीं  ऋषि नें ........क्या लाये हो  ?     ऋषि नें पूछा ।

ये मेरी  कन्या है ..............पर अब ये आपकी है ........राजा नें विनम्रभाव से कहा  ।

पर मैं तो गृहस्थ आश्रम अस्वीकार कर चुका हूँ.......ऋषि पुलत्स्य का  कहना  था  ।

आपके स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही है ........स्वीकार तो   आस्तित्व नें कर ही लिया  है ......ये गर्भ वती है ....और कारण आप हैं ऋषि ।

फिर हाथ जोड़कर प्रणाम किया राजा नें .......इसे स्वीकार कर लीजिये ........आपकी तपस्या में ये बाधक नही होगी,   सहायक  होगी ..।

ऋषि पुलत्स्य नें उस कन्या को देखा .............सलज्ज नेत्रों से  कन्या नें ऋषि को  देखा ...............

फिर हँसे ............अपनें पिता  विधाता ब्रह्मा की बात याद आयी ........

"सृष्टि में मेरी सहायता तो तुमको करनी ही होगी वत्स"  

हँसते हुए   ऋषि  राजा  से बोले ...........ठीक है  तुम्हारी कन्या हमें स्वीकार है.........राजा  अपनी कन्या सौंप  कर  वहाँ से चले गए थे  ।

तुम्हारे उदर में जो बालक है ..............ऋषि पुलत्स्य  जब बोल रहे थे  तब  उनकी  नई नवेली  पत्नी  पृथ्वी को कुरेद रही थीं ..............

तुम्हारे पुत्र का नाम होगा ....."विश्वश्रवा"........नाम भी  जन्म से पहले ही रख दिया था......ऋषि पुलत्स्य नें  ।

पर ...................सोच में पड़ गए थे    ऋषि ..................

शुभे !    पर  तुम्हारा जो पौत्र होगा.....रावण ........ऋषि  कुछ बोल ही नही पा रहे थे ............

भगवन् !   कैसा होगा मेरा पौत्र  ?    

ऋषि  कुछ नही बोले ........पर   वो चिंतित अवश्य हो गए थे   ।

त्रिजटा नें इतना ही बताया ........फिर  बोली  ......मैं जाती हूँ ......।

क्या तुम अब जाकर शयन करोगी  ?     मैने पूछा था  ।

हाँ ....................और आप भी सो जाओ  अब ...................

पर ब्रह्ममुहूर्त का समय भी बीत गया है ..सूर्योदय होनें वाला है ...........अब सोना कैसा ?  

मेरी इस बात का उत्तर दिया था त्रिजटा नें ..........हम राक्षस हैं .....दिन में सोते हैं   और रात्रि को जगते हैं ...........देखना आप -   सब   राक्षस अब सोयेंगे............इतना कहकर वो  चली गयी ।

हे  रघुनाथ  !     हे   मेरे प्राण !     हे   श्रीराघवेंद्र !   

मैं फिर रोनें लगी थी .................

शेष चरित्र कल ...........

Harisharan

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