वैदेही की आत्मकथा - भाग 154

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 154 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही !  

मेरे श्रीराम के बाल सखा थे ........."विजय" नाम था उनका ।

पर वो  "विजय राघव" ऐसा नाम  बोलनें को कहते .........

वो हंस मुख थे.......हर समय विनोद के ही मूड में रहते थे ।

उनको कोई , कहीं रोक टोक न थी........वो कहीं भी आजा सकते थे ।

विजय  हमारे यहाँ भी आजाते........और बड़े प्रेम से -  भाभी जी  !   कुछ खानें को नही है क्या  ? 

पर तुम यहाँ कैसे आजाते हो ?    श्रुतकीर्ति थोडा विनोद करती  ....

मैं !   मैं यहाँ   !!!!!!!!  वो कुछ सोचते  फिर कहते ......चींटी को मीठा डाल रहा था .............।

पर यहाँ चीटीं कहाँ हैं  ?    श्रुतकीर्ति कहती ......तो  विजय हंस देते ......मेरे पास  भी मीठा कहाँ है  !.......उनका कोई बुरा नही मानता था .......वो मित्र थे  मेरे श्रीराम के ........बाल्यावस्था के मित्र .........कौन उनसे कुछ बोल सकता था    ।

विजय !   बताओ ना  !  मेरे बारे में  अयोध्या की प्रजा क्या सोचती है ?

आज गम्भीर हैं  मेरे श्रीराम ...........और विजय से पूछ बैठे  ।

आपके बारे में तो प्रजा  !      हँस पड़े   विजय  .............आपका गुणगान तो रावण भी करता था.......मैने सुना है ...........फिर  ये अयोध्या वासी क्यों न करें   ।

मुझे आज अपनी प्रशंसा नही सुननी है ...........सच बताओ ना !   मेरे बारे में  कोई  बुराई  ?     

बुराई कौन करेगा आपकी .......आपका स्वभाव ही इतना मधुर है .......

विजय   गुणगान गा  नही सकता .........क्यों की  गुणगान  सुनना पसन्द नही है   मेरे श्रीराम को  ।

अरे हाँ !     विजय एकाएक बोला ..............वो धोबी है ना  !  जो मेरे घर के पास  ही रहता है ..........वो पत्नी को पीटते हुये कह रहा था !

मेरे श्रीराम और गम्भीर हो उठे  ........क्या बोल रहा था  वो  ?

विजय को लगा  गलती हो गयी मुझ  से.........नही  कुछ नही कह रहा था .........मेरे मुँह से भी ना,   क्या क्या निकल जाता है !   

नही विजय !  तुम को मैं बचपन से जानता हूँ ......तुम झूठ नही बोलते .....तुम  चाहे कुछ भी हो  सत्य ही बोलते हो  !

सच बताओ  मेरे बारे में क्या कहती है प्रजा  ? 

प्रजा कहती है .......हमारे राजा तो  जहाँ दाढ़ी वाले बाबा जी   और पीले कपड़े देखे .....रथ से कूद जाते हैं ......और उन बाबा जी के पैर ही पकड़ लेते हैं ।

विनोद  के मूड में नही हूँ  मैं  विजय !        सच बताओ  वो धोबी क्या कह रहा था ...........?

राघव !  आप भी  जिस बात को पकड़ लेते हो ..............छोडो ना !   धोबी जो कह रहा था  उसकी बात का मूल्य क्या  ? 

कैसे मूल्य नही हैं विजय !     वो मेरी प्रजा है .......और मैं  अपनी प्रजा का हूँ ............मेरा जीवन अब मात्र प्रजा के लिये ही समर्पित है ।

राम का  अब अपना व्यक्तित्व कहाँ  !    राम तो अब अपनी प्रजा के लिये जीयेगा  ।

हाँ तो जीयो प्रजा के लिये     विजय को क्या लेना देना  इससे ? 

विजय फिर विनोद करनें लगा था  ।

धोबी क्या कह रहा था ?     और तुम उसके यहाँ कब गए ?

मैं जा रहा हूँ .........विजय जानें लगा   .......

हाथ पकड़ लिया  मेरे श्रीराम नें   और कहा .........."मेरी कसम है तुम्हे विजय !   बताओ धोबी क्या कह रहा था  ? 

ओह !     ये क्या किया  राघव !     मैं दुनिया में सब तोड़ सकता हूँ ....पर  आपनें अपनी ही कसम दे दी  !      

सिर झुकाकर बैठ गया  विजय   ...................मन में उसके अपार कष्ट हो रहा था ......वो बारम्बार यही सोच रहा था  कि   ,  क्यों छेड़ी मैने  धोबी की बात  !  

बता विजय !   क्या कह रहा था वो धोबी  ? 

सिर झुकाकर बैठा विजय,  उसके नेत्रों से टप्प टप्प अश्रु बहनें लगे थे ।

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मैं  रात्रि को  लौटकर अपनें घर जा रहा था ............तभी मैने देखा एक धोबी   जो अपनी  पत्नी को पीट रहा था  !

पीट रहा था  ?        अपनी पत्नी को  ?    मेरे श्रीराम  चौंक गए थे ।

पर क्यों  ?   क्यों विजय  !

विजय  अब अपना मुख ढँककर  रो रहा है  ।

बताओ विजय !   क्या बात है  ? 

वो कह रहा था .............एक रात के लिये घर से बाहर चली गयी तू !

और मुझे कह रही हैं मैं पवित्र हूँ ?     अरे !  जा यहाँ से  .........मैं नही रखूंगा तुझे  अब घर में   ?

राघव ! मुझे अच्छा नही लगा.......मै उसके घर में जाकर  उसे रोकनें वाला था कि  पत्नी के ऊपर हाथ नही उठाना चाहिये.......पर  !

पर क्या  ?       मेरे श्रीराम नें फिर पूछा ।

आगे नही बता सकता ............मुझ से अपराध होगा  मेरे राघव !

ऐसी बात मुँह से निकालना भी अपराध है  .....पाप है  ।

पर तुम्हे बोलना होगा..........बोलो  विजय !      मेरे श्रीराम नें कहा ।

लम्बी साँस लेकर........अपनें आँसुओं को पोंछते हुए विजय बोला ।

वो धोबी कह रहा था -  "मैं कोई राम नही जो लंका रह आई सीता को अपनें पास रख ले"   

क्या !      मेरे श्रीराम उठ कर खड़े हो गए थे..........ये क्या ! 

चरण पकड़ लिये   विजय नें ...........

राघव !   मेरी भाभी माँ  सबसे पवित्र हैं.......उनको अपवित्र कहना भी   पाप है.......वो सती हैं ........महासती  !

विजय बोलता जा रहा था  ।

मेरे श्रीराम का मुख मण्डल उस समय लाल हो गया था....।

और  लोग क्या कहते हैं ?        मेरे श्रीराम  नें फिर पूछा ।

और लोग ...........और लोग  तो कहते हैं ......हमारे जैसा राजा तो आज तक हुआ ही नही .........रामराज्य   में देखो ...प्रजा कितनी खुश है .......प्रकृति आनन्दित हैं ......विजय धड़ाधड़ बोलता गया  ।

नही ......सच बताओ !  धोबी की बात  और भी लोग कह रहे हैं ?

 

मौन हो गया विजय .........फिर कुछ देर में बोला -  .लोग कह रहे हैं .......पर   दो तीन लोगों के कहनें का क्या मूल्य ?

शान्त भाव से बैठे रहे    मेरे श्रीराम ..................विजय भी वहीं बैठा रहा  ......।

माँ !  आप  ?       माता कौशल्या    महल में आगयी थीं  ।

एक खुश खबरी है  राम !         श्रीराम नें उठकर प्रणाम किया  माता को ...........फिर  विजय की ओर देखते हुये बोलीं .....ये तो महल का ही  व्यक्ति है  इससे क्या छिपाना  ?   

वत्स राम !    तुम पिता बननें जा रहे हो......हाँ .......सीता गर्भवती है ।

विजय उछला .......बधाई हो राघव !        पर  मेरे श्रीराम गम्भीर ही बने रहे  ।

अच्छा !   मुझे नही आना चाहिये था...........शायद कोई गम्भीर मन्त्रणा चल रही थी तुम लोगों की .........मैं तो बस   ये शुभ सूचना देनें आगयी थी ............माँ कौशल्या जी चली गयीं   ।

अब छोडो ना  !  राघव !     एक धोबी की बात पर  क्यों ? 

विजय !  तुम जाओ .......और मेरे तीन भाइयों को बुला  लाओ ।

ठीक है ........विजय जैसे ही जानें लगा ..............मैं  अपनें श्रीराम के हृदय से लगनें आ रही थी ............मैं गर्भवती हो गयी थी .....एक स्त्री के लिये इससे बड़ी ख़ुशी और क्या हो सकती है ......और वो भी  श्रीराम के पुत्र मेरे गर्भ में थे !

"राघव !  भाभी "..........विजय जा रहा था बाहर ......मैं  अपनें नाथ के पास आरही थी ..........पर विजय नें  मेरे श्रीराम से कहा ........।

नही ....अभी नही ..........कह दो सीता को  कि  अभी  मैं   राजकाज में व्यस्त हूँ ..............मेरी ओर देखा भी नही ...............और विजय से बोले .......तुम  मेरे तीन भाइयों को बुला लाओ  ।

मैं लौट गयी   अपनें महल की ओर.......ये कैसा रूप था मेरे श्रीराम का ।

मुझे घबराहट होनें लगी थी ............फिर मन को समझाया मैने .........राजकाज है.........कितनी समस्याएं आती हैं .........प्रजा की किसी समस्या  से दुःखी होंगें.......!   

मैं    लेट गयी थी    अपनें पलंग में..........मैनें अपनें सामनें   एक सुन्दर सा  चित्र बनवाया है ...........उर्मिला से कहकर ..........मेरे सामनें मेरे श्रीराघवेंद्र सरकार का एक चित्र हो ...........ताकि उनके पुत्र भी उनकी तरह ही बनें ............उर्मिला  नें   चित्र  लगा दिया है  ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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