आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 97 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही ..........लक्ष्मण जैसे ही कुटिया से गए वैसे ही अपसकुन शुरू हो गए थे ..........लक्ष्मण के जाते ही मैनें चीत्कार मारकर रोना शुरू कर दिया था ..........मैं व्याकुल हो उठी थी ............एक बार मेरा रुदन सुनकर लक्ष्मण रुके थे ........पर फिर अपनें आँसू पोंछते हुए चले गए ।
लक्ष्मण मेरी आँखों से ओझल हुये ही थे कि ...............
त्रिदण्डी सन्यासी का भेष धारण किया हुआ .............गैरिक वस्त्र थे उसके ....शिखा , यज्ञोपवीत और मस्तक में त्रिपुण्ड्र ।
हाथ में कमण्डलु ......गले में रुद्राक्ष की माला ..............एक सन्यासी मेरी कुटिया के बाहर आकर खड़ा हो गया था ..........।
वैसे अगर कोई तनिक भी ध्यान देता तो समझ जाता कि ये सन्यासी नही है ..............क्यों की उसके पैरों में जूतियाँ थीं ............
पर मैं कहाँ ध्यान देती इन सब बातों में ...........सन्यासी को देखते ही मेरे मन में तो श्रद्धा जाग्रत हो उठी थी .................
मैं बाहर आई ............बाहर आकर मैने उन साधू को प्रणाम किया ।
पर ये क्या था !........उस सन्यासी को देखते ही वृक्ष काँप उठे थे ......वन के देवता डर गए थे........पशु पक्षी अपनें अपनें स्थान को छोड़कर कहीं भाग रहे थे.......मैने इस तरफ भी ध्यान नही दिया ।
और हाँ ........वो सन्यासी कुछ डरा हुआ सा था ..............वृक्ष के सूखे पत्ते भी गिर रहे थे तो वह डर रहा था .....चौंक जाता था ..........पर इन सारी बातों पर मेरा कहाँ ध्यान था !
"भवती भिक्षाम् देही"
ज्यादा कुछ बिना बोले मेरे सामनें अपनी झोली फैला दी थी उस सन्यासी नें ।
भगवन् ! मैं आपकी वन्दना करती हूँ.......आप कुछ देर विश्राम करें बस मेरे पतिदेव और देवर आही रहे हैं ........आपको अर्घ्य देकर वो भी धन्य अनुभव करेंगें...........मैने प्रार्थना की उन सन्यासी से ।
देवि ! आपका कल्याण हो .........मैं तो बस कुटिया देखकर यहाँ भिक्षा की आस में आगया था .............सन्यासी नें कहा ।
गृहस्थ के द्वार पर ज्यादा रुकना सन्यासी के लिये उचित नही है ......मैं जा रहा हूँ .........इतना कहकर वो जानें लगा था ।
नही .........आप न जाएँ .............आप बस क्षण भर रुक जाएँ .......मैनें मन में विचार किया अतिथि का सत्कार करना ये हमारा धर्म है ......फिर ये तो सन्यासी महात्मा हैं......फिर गृहस्थ की कुटिया से बिना भिक्षा के कोई महात्मा चला जाए तो उसके पुण्य नष्ट हो जाते हैं ।
आप क्षण भर रुक जाएँ .............मैनें हाथ जोड़कर कहा ।
जैसी तुम्हारी श्रद्धा ! वह सन्यासी झोली फैलाये ही खड़ा रहा ।
मैं जल्दी अपनी कुटिया के भीतर गयी .......कन्दमूल फल जो भी था लेकर आयी ..........और ............हे महात्मन् ! ये लीजिये भिक्षा .....
जैसे ही मैं भिक्षा देंनें लगी........वह सन्यासी तो चार कदम पीछे चला गया .........मैं उस समय समझ नही पाई .........पर लक्ष्मण की खिची रेखा को देख लिया था उस नें .........और उस रेखा के प्रभाव से ये अपरिचित हो ये कैसे सम्भव था ?
देवि ! किसी नें मन्त्रों से बाँध दिया है तुम्हारी कुटिया को........ये देखो ......और हम तो सन्यासी हैं ......मुक्ति के आकाँक्षी हैं ......फिर कैसे तुम्हारी ये बद्ध भिक्षा ले सकते हैं.........बाहर आओ और हमें भिक्षा दो.......उस सन्यासी नें कहा था ।
मैने विचार किया - एक सन्यासी को भिक्षा देनें के लिये लक्ष्मण को दिए वचन को तोड़ना भी पड़े तो अनुचित क्या ?
मैं बाहर आयी ............मैं उस लक्ष्मण रेखा से बाहर आयी ................
भगवन् ! भिक्षा लें .........मैनें भिक्षा देनी चाही ।
तुम स्वर्णिम सी पद्मिनी कौन हो ?
कौन हैं तुम्हारे निष्ठुर पति जो कोमलांगी को इस घोर वन में ले आये !
सन्यासी नें अब झोली नही फैलाई......बल्कि वो मुझे ही देखनें लगा था ।
मैं मिथिला नरेश की पुत्री सीता हूँ .........मेरे पति अयोध्या के चक्रवर्ती नरेश के बड़े पुत्र हैं........पिता की आज्ञा पालन करके वो वन में आये हैं ....मैं उनकी अर्धांगिनी उनके साथ हूँ ।
इतना कहकर मैने अपनी दृष्टि नीचे झुका ली थी .....क्यों की वो सन्यासी मुझे ही देखे जा रहा था .................
आप भिक्षा लें ...........मैनें इस बार झुँझलाकर कहा ।
तुम जैसी सुन्दरी को वन में रहनें की क्या आवश्यकता ? सुकुमारी !
तुम तो सौंदर्य की देवी हो ..........................
आप को भिक्षा लेनी है तो लीजिये......नही तो मैं जा रही हूँ कुटिया में ....इतना कहकर जैसे ही मैं रेखा के भीतर जानें लगी ..............
एक भीषण अट्टहास गूँजा ...........देखो ! मैं कौन हूँ ......मैं रावण !
स्वर्णपुरी लंका का सम्राट रावण.....त्रिभुवन विजयी राक्षसराज रावण ।
देखो ! सीते ! मैं स्वयं राक्षसेन्द्र रावण तुमसे भिक्षा लेनें आया हूँ ....तुम्हारी भिक्षा ...........ये कहते हुए वो फिर हँसा .......
मैं डर गयी .................उसका सन्यासी भेष तो मायावी था ..........
वो अपनें रूप में आगया था अब ..........दस मस्तक उसके .....बीस भुजाएं ......रत्नाभरण से सुसज्जित ........दशग्रीव रावण ।
उसका रथ सामनें आगया था ............उसनें अपना हाथ बढ़ाया .....हे जनकसुता ! मेरे रथ में बैठो ............।
दुष्ट ! रावण ! मैं तुझे जानती हूँ ......अच्छे से जानती हूँ ..........और मुझे अब तेरी धृष्टता पर हँसी आरही है .......सिंह का भाग कोई गधा नही ले जाता ......मैं अपनें श्रीराम की हूँ ......और उनकी ही रहूँगी....।
मेरे अधर फड़कनें लगे थे .............तू अपनें को त्रिभुवन विजयी कहता है .....दो क्षण रुक आने दे मेरे श्रीराम और मेरे देवर लक्ष्मण को .....
मैं क्रोध से काँप रही थी ..........मैं तुझे अभी श्राप देती हूँ - "किन्तु" ...... ........जैसे ही मैने ये कहा .........रावण तो डर गया था ............पर मेरे "किन्तु" नें उसे बल प्रदान किया .............।
मै क्यों श्राप दू तुझे ............जब मेरे श्रीराम मेरे साथ हैं .......तो वही तेरा वध करेंगें ।
रावण सतीत्व से डरता था .......सती नारी कुछ भी कर सकती है .....।
मैने देखा .........उसनें मुझे प्रणाम किया ......रावण नें मेरे पग की ओर देखकर अपना मस्तक झुकाया..........
पर मैने ध्यान नही दिया और मुड़कर अपनी कुटिया की ओर जैसे ही बढ़ी .........रावण नें मुझे पकड़ कर रथ में बिठा लिया ।
रावण के रथ में बैठते ही रथ तो आकाश की ओर उड़ चला था ....
मैं चिल्लाई ........मैं खूब चिल्लाई .......................
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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