आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 96 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही ........मेरे श्रीराम मुझ से दूर होते चले गए .......हाँ अपराध किया था मैने ......महत् अपराध .........।
लक्ष्मण जैसा महान और कौन होगा.........मेरे श्रीराम की सेवा में अपनें जीवन को खपा दिया ......उन लक्ष्मण का मैने अपराध किया ।
हाँ लक्ष्मण को मैने कितना भला बुरा कहा .............तभी तो रावण मुझे हरण करके ले गया ..........ये मेरे श्रीराम नें मुझे दण्ड दिया था .....ठीक किया मुझे उस समय दण्ड देकर ............पर आज ये किस अपराध का दण्ड है ? धोबी नें जो कहा वो मेरी गलती थी ?
और एक धोबी के कहनें से मुझे मेरे श्रीराम नें त्याग दिया ?
( कुछ देर वैदेही आँसू बहाती हैं ......फिर आँसूओं को पोंछ कर लिखना प्रारम्भ कर देती हैं .........)
मैं देखती रही थी ...............मेरे श्रीराम उस मृग के पीछे भागे थे .....पर वो मृग भी चौकड़ी मारता हुआ भाग रहा था ............मैं देख रही थी मेरे साथ लक्ष्मण भी देख रहे थे .............वो मृग कभी रुक जाता मेरे श्रीराम जब उसके पास तक पहुँचते तब तक वो फिर भाग जाता ....मैं ये सब देखकर हँसती थी ......ताली बजाती ।
पर अब तो अदृश्य ही हो गया था वो मृग ...........फिर दिखाई भी दिया तो दूर बहुत दूर...........मेरे श्रीराम भी दौड़ रहे थे उसके पीछे ।
अब दीखनें बन्द हो गए थे..........मैं हँसते हुए अपनें कार्य में लग गयी थी, लक्ष्मण अपनें कार्य में ..........।
हा सीते ! हा लक्ष्मण ! हा सीते ! लक्ष्मण ! सीते !
ये ध्वनि गूँज उठी थी एकाएक उस पंचवटी में.........मैं काँप गयी ।
ये आवाज तो मेरे श्रीराम की है .............मैं कुटिया से दौड़ी दौड़ी बाहर आई .........और लक्ष्मण की ओर देखा ................लक्ष्मण भी ध्यान से सुन रहे थे उस आवाज को ..........सीते ! लक्ष्मण ! आवाज अभी भी आही रही थी .....पर रुक रुक कर ।
लक्ष्मण ! सुना तुमनें ? मैं घबड़ाई हुई थी ..................
लगता है तुम्हारे भैया किसी संकट में फंस गए हैं ।
फिर आवाज आयी ........"लक्ष्मण" ये आवाज थोड़ी तेज़ थी ....और अंतिम थी ..............।
लक्ष्मण ! तुम अभी तक यहीं खड़े हो .......! क्या तुम्हे अपनें भैया की पुकार सुनाई नही दे रही ..........?
दौड़ो ......जाओ ! अपनें भैया की सहायता करो, लक्ष्मण ! जाओ ।
इसके बाद कोई आवाज नही आयी.........तब लक्ष्मण अपनें कार्य में फिर संलग्न हो गए ...........भाभी माँ ! यह स्वर मेरे भैया श्रीराम का नही है .......ये किसी का छल है ...............
भाभी माँ ! हमारे श्रीराम भैया को संकटग्रस्त कोई कर सके ऐसी ताकत किस में है !
आप शान्त रहें ! त्रिभुवन में किसी में इतनी सामर्थ्य नही है जो मेरे भैया का कुछ बिगाड़ भी सके .........आप शान्त रहें माँ !
लक्ष्मण नें मुझे समझाया था ।
और आप क्या समझती हैं .....चाहे रघुवंशी के प्राण संकट में आजायें ....पर वो इस तरह कातर स्वर से कभी किसी को नही पुकारेगा ।
लक्ष्मण बोले जा रहे थे ............विश्व् जिनसे डरता है .......वो भला एक साधारण राक्षस से डरेंगे ?
लक्ष्मण के नेत्रों में मैने देखा ..........लक्ष्मण नें तुरन्त अपनी नजर नीची कर लीं ..........गलती मेरी थी .......इसी बात को मैने गलत समझा ....अपितु लक्ष्मण नें दृष्टि इसलिए नीची की थी कि वो मुझे माँ समान मानता था ...........पर मैने इसका गलत अर्थ ले लिया ।
लक्ष्मण ! क्या बात है तुम आज मुझ से नजर नही मिला रहे ?
कहीं तुम्हारे मन में मेरे प्रति ?
कहीं तुम अपनें बड़े भाई का मरण तो नही देखना चाहते ?
मैनें इतना क्या कहा ...........लक्ष्मण के नेत्रों से अश्रु धार बह चले ......
पर नेत्र तो मेरे अंगार उगल रहे थे ...........लक्ष्मण ! क्या मेरे श्रीराम का संकट तुम्हे सुख देंनें वाला हो गया है ?
कहीं ऐसा तो नही कि तुम सब मिले हुए हो .........भरत नें तुम्हे नियुक्त किया है .......श्रीराम की मृत्यु ही तुम सबको आनन्द देगी ।
लक्ष्मण नें कभी ऐसा सोचा नही था स्वप्न में भी कि जिसे वो अपनी सगी माँ सुमित्रा से भी ज्यादा मानता है ......वो ये सब कहेगी ...........
उसके हृदय में वज्रपात हो गया था ।
पर सबसे ज्यादा कष्ट तो लक्ष्मण को तब हुआ जब मैने ये कहे .......
कहीं मेरे श्रीराम को मृत्यु देकर , तुम मुझे तो नही पाना चाहते ........अगर ऐसा सोच भी रहे हो तो सुन लो ....ये वैदेही मर जायेगी .....पर किसी परपुरुष का संग नही करेंगी ।
घुटनों के बल बैठ गए थे लक्ष्मण .........नेत्रों से अश्रु बहते जा रहे हैं ......हाथ जोड़े हुए हैं.......और हिलकियों से रोते हुए बोल रहे हैं -
भाभी माँ ! आप ये खड्ग लो और मुझे मार दो .......पर ऐसे शब्द का प्रयोग न करो.........मेरे श्रीराम को युद्ध में पराजित करनें का सामर्थ्य सुर- असुर, पिशाच , राक्षस किसी में नही है .......श्रीराम अवध्य हैं.....उनका कोई वध नही कर सकता यही सत्य है माँ !
लक्ष्मण नें बिलखते हुए कहा था ।
भाभी माँ ! आपकी सुरक्षा के लिए मेरे भैया नें मुझे नियुक्त किया है .....मैं आपको इस तरह छोड़कर नही जा सकता ..........लक्ष्मण नें ये बात गम्भीर होकर कही ।
नही ...लक्ष्मण ! नही .....तुम भाई नही हो ......तुम भाई के रूप में मेरे श्रीराम के शत्रु हो ..........तुम्हे अपनें भाई की करुण पुकार सुनाई नही दे रही ! कैसे भाई हो तुम ? लक्ष्मण ! मैं कह रही हूँ तुम जाओ अपनें भाई की सहायता करो ........नही तो ये वैदेही अभी इसी पाषाण में अपना सिर पटकते हुए प्राण दे देगी ..............
इतना कहते हुए मैं सामनें पड़े उस विशाल पाषाण की ओर बढ़ी थी ....
नही ! नही भाभी माँ ! लक्ष्मण मेरे पीछे दौड़े ............
आप मेरी आराध्या हैं ..............जैसे श्रीराम मेरे इष्ट हैं .....वैसे ही आपभी मेरी इष्ट ही हैं माँ ! हाथ जोड़कर रुदन कर रहे थे लक्ष्मण ।
पर माँ ! आपनें जैसे वचन मेरे लिए प्रयोग किये वो अनुचित था .......
हाँ पर मैं आपको दोष नही दूँगा क्यों की आपका प्रेम है भैया के प्रति वो बोल रहा है ......प्रेम में भय भी होता है ......इसलिये मैं आपके कहे वचनों का बुरा नही मान रहा..............
अपनें आँसू पोंछ कर उठ खड़े हुए लक्ष्मण .....................
हे वन देवियों ! हे वन के देवताओं ! ये लक्ष्मण आपकी सुरक्षा में अपनी माँ को छोड़ जा रहा है .........मेरी माँ नें मुझे जो अविश्वास की दृष्टि से देखा .... मुझ में ही कमी होगी .......लक्ष्मण को धिक्कार है......पर भाभी माँ ! आपका मंगल हो ..........मैं श्रीराम का सेवक हूँ ...उनकी आज्ञा से ही आपके समीप आता हूँ ...........वन देवता आपकी रक्षा करें .......वन के अधिदैव आपकी रक्षा करें ......मैं जा रहा हूँ ।
इतना कहकर लक्ष्मण जानें के लिए तैयार हुए थे ..........
फिर रुक गए ............भाभी माँ ! मैं आपकी आज्ञा मानकर जा तो रहा हूँ .....पर मेरा एक अनुरोध मान लेना ...............
कुटिया के चारों ओर लक्ष्मण नें बाण की नोंक से एक रेखा खींच दी थी .......बस माँ ! इस रेखा को पार मत करना ....जब तक हम लोग न आजायें ......।
अनन्त के अवतार लक्ष्मण नें अभिमन्त्रित रेखा खींची .....और धनुष बाण लेकर वो भी चले गए....।
मैं कुछ देर तक देखती रही ........मन मैं घबराहट हो रही थी........
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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