एक थे सेठ। वे गुरु की तलाश में थे। पर चाहते ऐसा थे, जो पहुँचा हुआ हो, ज्ञानी हो। बहुतों को जाँचा परखा पर कोई खरा न निकला। तलाश का अन्त न हुआ !
सेठानी ने कहा - यह काम मेरे ऊपर छोड़ दें। जो मिला करे उसे मेरे पास भेज दिया करें !
सेठ जी सहमत हो गये। एक झंझट टला !
सेठानी ने पिंजड़े में एक कौआ पाला। जो भी महात्मा आया, उनसे यही कहतीं - देखिए मेरा पाला कबूतर अच्छा है न ?
सन्त लोग आते। कबूतर कहाँ है ? कैसा है ? कहते !
जब सेठानी अपनी बात पर अड़ी ही रहतीं, तो वे क्रोध में भरकर उलटी-सीधी बातें कहते और वापस चले जाते !
यही क्रम चलता रहा । बहुतेरे आये और सभी चले गये। कोई खरा उतरा नहीं। जो आवेश ग्रस्त हो चले, वे सन्त कैसे ? जो सन्त नहीं वह गुरु योग्य कहाँ ?
एक दिन एक वयोवृद्ध सन्त आये। सत्कार करने के उपरान्त सेठानी ने वही कौआ-कबूतर का सिलसिला चला दिया !
•यह सन्त आवेश में नहीं आये। कौए और कबूतर का अन्तर समझाते रहे !
न समझ पाने पर इतना ही कहकर चले गये - बेटा ! हठ मत करना। तथ्य का पता लगाना। कोई सर्वज्ञ नहीं। हमसे आपसे भूल हो सकती है !
सत्य को समझने के लिए मन के द्वार खुले रखने चाहिए। वे हँसते हुए चल दिये। क्रोध था न आवेश न मानापमान का भाव !
सेठानी ने सन्त को द्वार से वापस लौटा लिया। नमन किया और कहा - जैसा चाहती थी, वैसा आपको पाया। कृपया हमारे परिवार के गुरु का उत्तरदायित्व ग्रहण करें !
सच्चे संत की महिमा ही निराली होती है !!
।। ॐ नमः शिवाय ।।
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