!!  श्रीनिम्बार्क चरित्र - भाग  5  !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!!  श्रीनिम्बार्क चरित्र - भाग  5  !!

हे गोवर्धन कन्दरालय विभो, माम् पाहि सर्वेश्वरः ।
( श्री निम्बार्क स्तोत्र )

( साधकों !    "श्रीनिम्बार्क चरित्र"   लिखते हुए .......शाश्वत लिखता है ....

"दो प्रकार के  जन्म होते हैं ..... एक जन्म होता है वासना वश ....और एक जन्म होता है करुणा वश  ।

अच्छे से  समझाता है शाश्वत .......हम लोगों का जन्म  वासनावश है ....
इसलिये हम लोग स्वतन्त्र नही हैं ............जहाँ वासना का धक्का पड़ेगा ....वहीं जाना पड़ेगा ...........।

पर  सिद्ध महापुरुषों का ऐसा जन्म नही होता .....उनका जन्म करुणावश होता है.....ये सिद्ध पुरुष  जन्मजात मुक्त होते हैं  .....ये जन्म न भी लें  .......ये स्वतन्त्र हैं .......पर  ये करुणा के वश में होते हैं ........।

जब ये देखते हैं ......बेचारा अज्ञानी जीव  संसार में भटक रहा है .....।

दुःखी है मनुष्य ......कभी कभी सुखी हो जाता है ....पर वह सुख भी तो स्थिर नही है .......फिर दुःख  की एक लम्बी श्रृंखला ......।

ये  सब देखकर इन महापुरुषों का हृदय करुणा से पिघल जाता है .......फिर ये जन्म लेते हैं ...........।

जन्म इनका वासना वश नही है ........इसलिये ये स्वतन्त्र हैं ........।

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कल से आगे का प्रसंग -

पिता जी !   मै  अब कुछ समय के लिए  सम्पूर्ण भारत वर्ष  में भ्रमण करना चाहता हूँ ......मै लोगों के "दुःख मूल" को जानना चाहता हूँ .......।

अब बड़े हो गए हैं  श्रीनिम्बार्क प्रभु ..........आज  अपनें पिता अरुण ऋषि से  निम्बार्क नें  ये बात  कही थी  ।

माँ जयंती नें जब सुना ......उनके नेत्रों से  अश्रु धार बहनें लगे थे ।

निम्बार्क जैसा पुत्र !............उसे क्यों खोना चाहेगीं  माँ जयंती ।

तब  समझाया था  अरुण ऋषि नें  जयंती को......देवी !  ये निम्बार्क  इस पृथ्वी में  विवाह करके ....सन्तानोत्पत्ति  करनें  के लिए नही आया ।

इसका कार्य तो बहुत बड़ा है ..........तुम इसे सीमित मत करो .....

इसे  सर्वत्र फैलनें दो ...........तभी  ये अपना कार्य पूरा कर पायेगा ।

माँ का वात्सल्यपूर्ण हृदय    इन बातों को भला समझेगा ?  

पर क्या करें  माँ जयंती !       पति नें  कहा ........तो मानना ही पड़ेगा ।

निम्बार्क प्रभु नें  अपनें पिता अरुण ऋषि के चरण छूए .......फिर जब माँ जयंती के  चरणों की ओर  बढ़े ......तब  निम्बार्क को पकड़ कर .....अपनें हृदय से लगा लिया था माँ  जयंती नें  ।

सिर भिगो दिया था ......आँसुओं से  निम्बार्क का  ।

तब  अरुण ऋषि नें निम्बार्क को जानें की आज्ञा दी .......।

माँ जयंती मूर्छित  होकर गिर गयी थीं      ।

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दक्षिण भारत की ओर चल दिए थे निम्बार्क प्रभु ।

रामेश्वरम् के पास पहुँच कर........एक नदी देखी ........अत्यंत पवित्र नदी  थी .......निम्बार्क प्रभु      उसमें स्नान के लिए जैसे ही उतरे .....तभी एक कछुए नें   पैर पकड़ लिए  ।

शान्त भाव से निम्बार्क प्रभु नें ....उस कछुए को   अपनें हाथों से जैसे ही छूआ,   उसमें से तो दिव्य  रूप धारण करके ......कोई देव पुरुष प्रकट हो गया था ।

हे सुर्दशन चक्रावतार  !     हे निम्बार्क प्रभु !      इसी स्थान पर  एक  दिव्य महात्मा रहते थे ......मै नास्तिक था ......मै जब ईश्वर को ही नही मानता .....तो महात्माओं को मानने का प्रश्न ही कहाँ उठता था ।

उस दिव्य पुरुष नें अपना पूर्वजन्म बताना शुरू किया ......निम्बार्क प्रभु  उसकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे  ।

वो महात्मा बड़े सीधे सरल थे ........पर  मै उन्हें ही छेड़ता रहता था ।

उद्दण्डता की हद्द ......उनके वस्त्र लेजाकर कहीं छुपा देता था  ।

उनकी पूजा की सामग्री  भी  नदियों में फेंक देता था ..........

उनके चलनें वाले रास्तों में   काँटें बिखेर देता था  ।

एक दिन तो  भगवन् !      वो  स्नान करनें के लिए आये थे इसी नदी में .....तब  मै  नदी में  चला गया .....और उनके पैर पकड़ कर गिरा दिया ....और  ताली बजाते हुए भागा ..........।

वो महात्मा मुझे देखते रहे ..........कछुआ है क्या  ? 

कछुआ बनेगा  ?

बस उन्होंने इतना ही कहा था .............पर वो शान्त रहे  ।

उनके मन में  ये भावना भी नही थी ........कि मै कछुआ की योनि प्राप्त करूँ ...........पर आस्तित्व तो सुनता ही है ना  ।

मेरा  शरीर कुष्ट रोग से ग्रस्त हो गया था ........पता नही कैसे... ....मै समझ नही पा रहा था  ।

एक दिन  वही महात्मा मेरे पास आये .......और बोले .......बालक !   तू इस शरीर को जल्द ही त्यागनें वाला है ..........और दूसरा शरीर तुझको मिलेगा .....कछुए का  ।

मै काँप गया था .....उन महात्मा जी की बातें सुनकर  ।

फिर  मेरे सिर में हाथ रखते हुए उन्होंने कहा ........मेरा ऐसा कोई संकल्प नही था .....पर  विधान लिख दिया ........उसनें  .....ऐसा कहते हुए उन महात्मा जी नें  ऊपर की ओर देखा   ।

वत्स !    पर चिन्ता न करो.....भगवान श्री नारायण के सुदर्शन चक्र अवतरित होनें वाले हैं....वो जब  इसी मार्ग से जायेंगें...और इस नदी में स्नान करेंगें.... उनका स्पर्श तुम्हे मिलेगा ...तब  तुम्हारी मुक्ति होगी  ।

महात्मा जी की करुणा थी ये तो..........हे सुदर्शन चक्रावतार !    नही तो मेरे जैसे खल का उद्धार क्या इतनी जल्दी हो पाता !

मै जा रहा हूँ ......मै मुक्त हो गया ............आप की जय हो ।

यही बोलते हुए ............वो  भगवत्  धाम  चला गया ..........।

निम्बार्क प्रभु  अब आगे के लिए  बढ़ गए   थे  ।

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रामेश्वरम्   में पहुँचे  श्री निम्बार्क ..................

शान्त सागर है वहाँ का...वहीं  बैठकर  ध्यान किया  श्रीनिम्बार्क प्रभु नें ।

तभी  एक दिव्य प्रकाश  निम्बार्क प्रभु को दिखाई दिया ...........

वो प्रकाश  आकार ले रहा था...आहा ! जब  उस प्रकाश नें आकार ले लिया...तब  धरती में लेट कर साष्टांग प्रणाम किया था  निम्बार्क प्रभु नें  ।

हे  रामेश्वरम्  !     आपकी जय हो  !

आनन्दित हो उठे थे  श्री निम्बार्क प्रभु ।

क्या चाहते हो   माँगों ......ये  मेरा रामेश्वर धाम है .............चार धामों में एक धाम ........हे सुदर्शन चक्र के अवतार !     यही वो स्थान है .....जहां से भगवान श्री रामचंद्र  लंका के लिए गए थे ।

श्री रामेश्वर महादेव   नें साक्षात् प्रकट होकर  निम्बार्क प्रभु को ये सब बताया था  ।

कहाँ हैं प्रभु !    वो सेतु ?   जिसे  भगवान श्री राम और उनकी सेना ने तैयार किया था  .........मुझे उस सेतु के दर्शन करनें हैं  !

महादेव  श्री रामेश्वर  से प्रार्थना की ।

तब  स्वयं ही अपनें साथ लेकर  चले ....महादेव,   श्री निम्बार्क  को  ।

ये स्थान है .......जहाँ सेतु बाँधा था .......भगवान श्री राम नें ।

उस स्थान के दर्शन किये...उस राम सेतु को साष्टांग प्रणाम किया ।

रामेश्वरम्  के अन्य  स्थलों के दर्शन भी स्वयं  महादेव नें कराये ......

कुछ दिन वहीं रहे  थे  निम्बार्क प्रभु .............

पर एक दिन .............

महादेव  भगवान रामेश्वर नें  आज्ञा दी  निम्बार्क प्रभु को .......

आप अब यहाँ से जाएँ ........और  गुर्जर प्रान्त ( गुजरात ) में जाकर वैष्णवता का प्रचार करें......वैष्णवों के आदि गुरु भगवान शंकर नें ये आज्ञा दी थी    ।

आज्ञा  मिली  भगवान रामेश्वरम् की ......तो  प्रणाम करके .......आनन्दित होते हुए .......श्री निम्बार्क प्रभु  गुर्जर प्रान्त की ओर चल दिए थे   ।

आदि अनादि सम्प्रदाय , सदा तुम गहो रे ।
निम्बारक निम्बारक निम्बारक कहो रे ।

शेष प्रसंग कल ........

Harisharan

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