आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 3 )
नमामि सीतां ......
( वाल्मीकि रामायण )
कल से आगे का प्रसंग -
मै वैदेही !
महर्षि नें बुलवाया था ..............इसलिये गयी थी मै वहाँ ।
कह रहे थे ............मै रामायण लिख रहा हूँ ..............
पर क्यों ? मैने पूछा था ।
तब महर्षि वाल्मीकि नें मुझ से कहा.......नही सिया पुत्री ! मेरा और कोई उद्देश्य नही है रामायण लिखनें का.......बस यही उद्देश्य है कि जगत जानें की वैदेही सीता कितनी महान है !
मै महान हूँ ! हँसी आती है ..........अगर मै महान होती तो क्या प्रभु मुझे इस तरह से छोड़ते ? नही .............
मै कुछ नही बोली ...............सिर झुकाकर ही खड़ी रही .........
महर्षि मुझे खड़ा देखकर स्वयं खड़े हो गए थे ...........
फिर मेरे सिर में हाथ रखते हुये बोले थे .............पुत्री सिया !
मै चाहता हूँ ............ये रामायण पूरी हो ..........तुम कितनी निर्दोष हो ....ये बात इस विश्व् को समझ में आये .............ये विश्व तुम्हारी महानता तुम्हारे त्याग को समझे ।
कुछ भी बोले जा रहे थे महर्षि ...........मुझे अपनी बेटी मान लिया था ना .....तो अपनी बेटी का पक्षपात तो पिता करेगा ही। ।
पर ये कहा था महर्षि नें ............उस बात नें मुझे चौंका दिया ।
बेटी ! मै रामायण लिखूंगा .....और उस रामायण को तुम्हारे कोख के बालक राम की सभा में ........जब रघुनाथ जी बैठे होंगें ........और विश्व के प्रतिनिधि देव यक्ष नर नाग सब होंगें .......उस समय इस रामायण को गायेंगें तुम्हारे बालक ! और बतायेंगें कि उनकी माँ गंगा के समान ...........शायद गंगा से भी ज्यादा पवित्र हैं ।
महर्षि जब ये सब बोल रहे थे ........तब उनके चेहरे में आक्रोश भी था .....और पीड़ा भी थी ......आक्रोश मेरे राम के प्रति .......और पीडा मेरे कष्ट को लेकर ...............।
बेटी सीता ! इसका नाम ही होगा। रामायण ........वैसे देखा जाये तो ये सीतायन ही है ...........इसमें तुम्हारे ही चरित्र का वर्णन होगा ...विशेष ................ये कहते हुए महर्षि नें अपनें आँसू पोंछे थे ।
मैनें प्रणाम किया .........और अपनी कुटिया में लौट आई थी ।
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जनकपुर ! मिथिला ...................आहा !
मेरा जन्म हुआ था जनकपुर में ..................
धरती में .............मिथिला वासी ही आनन्दित नही थे .........मेरी सखी चन्द्रकला कहती थी ..........कि सम्पूर्ण जगत ही, आस्तित्व ही प्रसन्न था ........मेरे पिता जनक जी नें क्या नही लुटाया ......
सब खुश थे ......सब आनन्दित थे ।
पर .............दूध मुझे कौन पिलाएगा ..............
मेरी माँ सुनयना जी को इसी बात की तो चिन्ता थी .........
मै रोये जा रही थी..........मैने अन्यों से ये बात सुनी .......कि मुझे भूख लग रही थी .......पर माँ सुनयना के वक्ष से दूध नही आरहा था ।
तभी .............मेरी जननी .........धरती माँ थीं .........उनको ही उपाय निकालना था ......तब एकाएक धरती से दूध की नदी बह चली........दूध मति ! हाँ उस नदी का नाम दूध मति था ।
आहा ! कितना आनन्द आता था ...........हम सब सखियाँ दूध मति के किनारे जाकर खूब खेलती थीं ...........मेरी सखियाँ !
चन्द्रकला , चारुशीला , पद्मा ....................
हम दिन भर खेलती रहतीं .........दूध मति के किनारे ही ।
कितनी मस्ती करती थीं हम सब सखियाँ ..................
माँ सुनयना तो बस मेरी चिन्ता में ही सूखी जातीं .........कहाँ गयी मैथिली ! कहाँ गयी मेरी लाली ! पर हम लोग सभी सखियाँ दिन भर खेलना..........बड़ी होती जा रही थी मै ।
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मेरे पिता एक धनुष को पूजते थे .....................
हाँ वो शिव धनुष था .................
मेरे पिता जनक जी भगवान शंकर जी के परम भक्त थे ।
उन्होंने तप किया था ......घोर तप ।
महादेव प्रसन्न हुए .......महादेव तो मेरे पिता से सदैव प्रसन्न ही रहे ।
आप मुझ पर प्रसन्न हों"
.......मेरे पिता नें और कुछ नही माँगा था ......बस आराध्य प्रसन्न हो .......इससे ज्यादा सच्चा साधक कुछ और माँगे भी तो क्या माँगे ?
हाँ ........वो रावण .....जो मुझे हरण करके ले गया था .....उसनें भी साथ साथ तप किया था ............डरता तो था मेरे पिता से रावण भी .....क्यों की मेरे पिता तेजवान थे .......अद्भुत शक्ति से सम्पन्न थे ...इसके साथ साथ ज्ञानवान और सत्यवान थे ।
इसलिये रावण चारों दिशाओं में विजय प्राप्त करनें के बाद भी उसनें जनकपुर मिथिला की ओर देखनें की हिम्मत भी नही की थी ।
हाँ .........मिथिला में अकाल पड़ता नही .......पर मिथिला में जो अकाल पड़ा .........वो रावण के कारण ही था ।
मेरे पिता की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति देखकर रावण चिढ़ता था ।
वो ब्राह्मण होकर भी उस स्थिति को पा नही सका ......पर मेरे पिता क्षत्रिय होकर भी उस ब्रह्म बोध को प्राप्त कर चुके थे .....नही नही ब्रह्म बोध को पा चुके थे नही ........अपितु पाकर भी अन्यों को बाँट भी रहे थे ...........।
साधुओं से चिढ़ता था .........मारता था .............और उनके रक्त को निकाल लेता था ............रावण ।
मेरे पिता जनक जी से ईर्श्या के कारण........उसनें साधू ऋषियों का रक्त एक कलसे में भरवा कर ........मिथिला की भूमि में गढवा दिया था ।
ये सोची समझी साजिश थी रावण की ............
पर मेरे पिता के ऊपर विशेष वरदहस्त था महादेव का ।
महादेव मेरे पिता से बड़ा प्रेम करते थे .............
इसलिये उन्होंने अपना शिव धनुष ही दे दिया था ................जाओ ! इसको रखो ......पूजो ! मंगल होगा ............।
मेरे पिता ले आये थे उस शिव धनुष को ........और अपनें पूजा गृह में स्थापित किया था .......।
बहुत भारी था वो धनुष .............उसे उठा पाना असम्भव ही था ।
मेरे ख्याल से तो जब से मेरे पिता भगवान शंकर से लेकर आये थे शिव धनुष ......तब से उसे पूजा गृह से किसी नें उठाया ही नही था ।
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सखियों के साथ चली गयी मै उस दिन पूजा घर में ।
चलो ना जानकी ! दूध मति मैया ! तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं ।
मैने देखा था उस समय ............धनुष की पूजा होती थी .....अक्षत , फूल, चन्दन ये सब धनुष में नित्य चढ़ाये जाते थे ।
पर धनुष के नीचे ........इनका ढ़ेर लग गया था ।
पिता जी भी ना ! कम से कम साफ तो रखना चाहिए .............
मै बच्ची अपनें पिता को समझानें चली थी ।
उठा लिया था मैने एक हाथ से धनुष को ......और दूसरे हाथ से धनुष के नीचे की भूमि को साफ किया ............और धनुष रख दिया ।
मेरे पिता आये ............मै बगल में खड़ी हो गयी ....
पिता नें मुझे देखा ......मेरे माथे को चूमा ..........फिर धनुष के पास जैसे ही गए .........स्वच्छ स्थान !
इधर उधर देखा .............मै वहीं खड़ी थी .......वहाँ और कोई था भी नही ....किसी को इजाजत भी तो नही थी इस पूजा घर में आनें की ।
पुत्री सीता ! ये किसनें धनुष को उठाया ?
क्यों की बिना उठाये इस स्थान को स्वच्छ नही किया जा सकता ।
मैने सिर झुकाकर मुस्कुराते हुए कहा ......पिता जी ! मैने ।
तुमनें ? वो चौंक गए थे ..............तुम से उठ गया ये धनुष ।
हजारों सैनिक .......एक साथ मिलकर भी बड़ी मुश्किल से इसे उठा पाते हैं ........तुमनें उठा लिया ?
एक हाथ से ..........पिता जी ! मात्र एक हाथ से ।
इतना कहकर मै भागी .......हँसते हुए .................
मेरे पिता मुझे देखते रहे थे ...............देखते रहे ।
और हाँ ........रात्रि में ही मुझे पता चला कि पिता जी नें प्रतिज्ञा कर ली है ...जो शिव धनुष को तोड़ेगा ...........उसी को मेरी बेटी वरेगी ।
ये क्या प्रतिज्ञा कर ली थी मेरे पिता नें....मुझे उस समय ऐसा लगा था ।
शेष प्रसंग कल .............
Harisharan
1 Comments
बहुत ही भावविभोर करने वाला वर्णन
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