( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र !!
अकिंचनों नान्य गतिः शरण्यं, त्वत्पादमूलं शरणं प्रपधे..
( श्री यामुनाचार्य )
( साधकों ! "शाश्वत की कहानियाँ" में दूसरे भक्त के चरित्र को लिखा है शाश्वत नें .......श्री रामानुजाचार्य जी के ।
कुछ भूमिका लिखी है श्री रामानुजाचार्य के चरित्र को लिखनें से पहले शाश्वत नें ...........उसे पढ़ना और गम्भीरता से पढ़ना .. मुझे लगता है आवश्यक है ...........।
" एक या दो ? न एक न दो .........
शिकागो की धर्म सभा में जब स्वामी विवेकानन्द जी गए थे .....तब उस सभा में सबसे पहला जो श्लोक पढ़ा था स्वामी जी नें... वो ये था ....
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदन्तिनो,
अर्हन्नित्यथ जैन शासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिका
सोयं नो विदधातु वाँछित फलं त्रैलोक्य नाथो हरिः ।।
इसका अर्थ भी जान लीजिये ................
शैव लोग उस परमतत्व को "शिव" कहते हैं ..........वेदान्ती लोग उसे ब्रह्म कहते हैं ..........जैन धर्म वाले उसे "अर्ह" कहते हैं .........कर्मकाण्ड वाले उसे कर्म ही कहते हैं ........बौद्ध लोग उसे बुद्ध कहते हैं ।
भक्तों का सदैव मंगल करनें वाले ..........अखिल लोक के ईश्वर वही तो श्री हरि हैं ...........।
आप ये मत सोचो कि ............अद्वैत बड़ा या द्वैत ?
आप इस झंझट में मत पड़ो कि ......श्री शंकराचार्य जी का मत श्रेष्ठ या श्री रामानुजाचार्य जी का मत श्रेष्ठ ।
द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत द्वैताद्वैत , शुद्धाद्वैत ..............इनमें सबसे बड़ा कौन ? ........इस झंझट में आप मत पड़ो ...।
आप इन सबमें एक चीज पाओगे .............कि सबनें एक ही तत्व का वर्णन किया है ............हाँ भले ही निराकार निर्गुण का श्री शंकराचार्य जी नें किया .....और सगुन साकार का श्री रामानुजाचार्य जी नें ।
पर इन आचार्यों में कोई झगड़ा नही है ..............क्यों की सर्वसामर्थ्यवान और अन्तर्यामी ईश्वर को श्री शंकराचार्य जी भी मानते हैं .............और श्री रामानुजाचार्य जी भी ।
और जो सर्वशक्तिमान होगा ...........वो निराकार से साकार भी हो सकता है ....और साकार से निराकार भी ...........।
शाश्वत लिखता है ..............आप सब लोगों नें, इन आचार्यों के सिद्धान्त में कितनें मत भेद हैं ये तो सुना है और पढ़ा भी होगा ......।
पर मै आज आपको इन आचार्यों में आपस में कितना सामन्जस्य है ये बताऊंगा ...................गम्भीर विषय है ध्यान से पढ़ियेगा ।
1) सारे आचार्य ( चाहे वैष्णव हों या शैव हों ) सब इस बात को मानते हैं कि अन्तःकरण की पवित्रता आवश्यक है ।
2) सारे आचार्य इस बात को मानते हैं कि ........सदाचार के बिना किसी भी मार्ग में जाओ .............कुछ हासिल नही होगा ।
3) सारे आचार्य मानते हैं कि ..........विवेक और वैराग्य, साथ में अंतर्मुखी हुए बिना शान्ति सम्भव नही है ।
4) कोई भी मार्ग , कोई भी सिद्धांत दुराचार का समर्थन नही करता ।
5 ) सारे आचार्य इस बात का समर्थन करते हैं...........मूल तत्व ईश्वर ही है .......भले ही कोई उसे निराकार कहे ....या कोई साकार या कोई शून्य कहे .....पर सब मूल रूप से ईश्वर का ही प्रतिपादन करते हैं ।
शाश्वत इसके बाद में लिखता है .....आचार्य ईश्वर के अवतार ही होते हैं ....
भले ही उनमें अवतार की मात्रा कम हो .......।
ये बात गीता में श्री कृष्ण नें कही है ........अब कृष्ण की बातों को ना कहनें के लिए तो हाथ भर की जीभ चाहिए ..........वो है नही ।
इसलिये गीता को माननें में ही हमारी और आपकी भलाई है ।
अब देखिये.......श्री शंकराचार्य जी "अद्वैत सिद्धान्त" जगत को देते हैं ...उसके वर्षों बाद श्री रामानुजाचार्य जी आते हैं....और अद्वैत मत को काटते हुए ...... विशिष्टाद्वैत सिद्धांत देते हैं.......ये विरोधाभास क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर देता है शाश्वत ।
समय काल के अनुसार आचार्यों का जन्म होता है ...........और समय काल को देखते हुए ही ये आचार्य जन मानस को उस समय जो आवश्यकता हो .....वही सिद्धांत देते हैं ।
जैसे - बौद्धों के कारण भारत में नास्तिकता का प्रचार हो रहा था ........भारत से आस्तिकता की धरातल ही खतम हो रही थी ......तब आचार्य शंकर नें आकर अद्वैत मत दिया .....और बौद्धों को वैचारिक शस्त्र से हराया .............वो यहाँ से भागे ।
अद्वैत मत, उस समय की आवश्यकता थी .......जब आचार्य शंकर का जन्म हुआ ।
पर श्री शंकराचार्य जी के जानें के बाद ..............करीब 400 वर्ष बीत गए थे ..........समय काल सब कुछ बदल चुका था .....।
विदेशी मुगलों का आगमन हो गया था .........आगमन नही आक्रमण हो गया थज .........हिंदुओं की बहू बेटियां अपनी आबरू बचानें में लगी थीं ...हिन्दू अपना धर्म बचानें ........मन्दिर टूट रहे थे हिंदुओं के ।
अद्वैत मत और वेदान्त पर एकाधिकार हो गया था ब्राह्मणों का ...और मुगलों को यही अवसर था आपस में हिन्दूओं को भिड़ा देनें का ।
उन्होंने ये काम किया ।
आपस में ही लड़नें लगे थे हिन्दू .........दक्षिण भारत में तो शैव राजा और वैष्णव राजाओं में बहुत खून ख़राबा हुआ है .....इतिहास साक्षी है ।
टूटता जा रहा था भारत .......भारत की जन मानस धर्म से दूर जा रही थी ......वो वेदान्त का ब्रह्म .......वो साक्षी ब्रह्म ......वो निर्गुण निराकार ब्रह्म अब ..........इन दुःखी प्रजा के किसी काम का नही था ।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या .........ये सिद्धान्त बेमानी हुआ जा रहा था ।
अद्वैत वाद ........राजाओं की सभाओं में विद्वान् लोगों का रंजन मात्र कर रहा था.......अद्वैत वाद आम जन मानस से बहुत दूर जानें लगा था ।
क्यों की इन जनमानस को अपनें पास बैठनें वाला ब्रह्म चाहिये था .....जो साकार हो .....जो इनकी पुकार को सुन सके .............जिनके पास ये बैठ कर रो सकें ............अपनी विपदा की गाथा सुना सकें .....
पर ..................
तब भारत के दक्षिण में ....................श्री शंकराचार्य के जानें के करीब 400 वर्ष के बाद ..............एक और महापुरुष के आनें की प्रतीक्षा कर रहा था आस्तित्व .........................श्री रामानुजाचार्य ।
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दक्षिण भारत के मद्रास से कुछ योजन दुरी पर ही .....एक गाँव था ...
महाभूतपुरी ।
एक सदगृहस्थ ब्राह्मण परिवार रहता था उस गाँव में ..........
ब्राह्मण का नाम था केशव भट्ट और उनकी सुशिल पत्नी का नाम था .........कांतिमति ।
किसी बात की कमी नही थी परिवार में .........सब कुछ था ........पर नही था तो बस सन्तान का सुख ........ ।
एक किसी सन्यासी महात्मा नें प्रातः की भिक्षा इन्हीं केशव भट्ट जी के यहाँ ली .........और जाते जाते बोल गए ...........मन में जब सन्तान न होनें का इतना ही दुःख है .....तो भगवान नारायण से क्यों नही कहते ...आहा ! वो तो दयालु हैं .....उनके बराबर कृपालु और कौन हैं !
नेत्र सजल हो गए थे उन सन्यासी महात्मा के ।
मुझे क्या करना होगा महात्मन् !
दम्पति नें चरणों में वन्दन करते हुए कहा ।
क्या करना ? भगवान नारायण की करुणा तुमसे भी क्या छुपी है ......सारे शास्त्र चिल्ला चिल्लाकर उन्हीं के गुणों को तो गा रहे हैं .....
फिर भी ......विशेष अनुष्ठान के लिए ......इस मन्त्र का जाप करो ....और भगवान नारायण से प्रार्थना करते रहो .......नारायण अवश्य सुनेंगे ।
ये कहते हुए सन्यासी महात्मा चले गए ।
इन ब्राह्मण दम्पति नें अनुराग से भगवान नारायण की भक्ति करनी शुरू कर दी ........भक्ति तो करते ही थे ......पर सकाम ............पुत्र प्राप्ति के लिए ।
भक्ति तो भक्ति है......सकाम भी है तो गलत क्या है ?
हम माँग भी रहे हैं .....तो भगवान से ही तो माँग रहे हैं ना ! .......
नित्य घी का दीया जलाते थे सुबह और शाम ............भगवान नारायण के सन्मुख ..........।
और रात्रि में सोते समय ..............नारायण नारायण का संकीर्तन करते हुए......सात्विक भाव से दम्पति सोते थे ।
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शेष .........., अनन्त, ...........रामानुज......... शेष नाग .......
दो दिन से ये पगला ऐसे ही चिल्ला रहा है .................केशव भट्ट की पत्नी नें अपनें पति से कहा ।
पर विचित्र हैं ये केशव पण्डित जी .....कहते हैं .........गाँव वाले समझते नही हैं .....ये पागल नही है .......ये तो कोई योगी है ...महायोगी ।
देखिये ना ! फिर द्वार पर आ धमका .........आपका महायोगी ।
कान्तिमति नें अपनें पति से कहा ।
तुम ओदन लगाओ ............मै उसे बुलाता हूँ .............
केशव भट्ट नें अपनी पत्नी को भीतर भेजा ........और स्वयं द्वार खोलनें गए .....।
शेष, अनन्त, रामानुज, शेषनाग !
यही नाम मन्त्र की तरह बार बार दोहरा रहा है ।
जैसे ही द्वार खोला केशव भट्ट जी नें ।
वो हँसा .........और भीतर झाँकनें लगा ।
आओ ! भीतर आओ ..............बैठो .......ओदन खाओगे ?
केशव भट्ट नें भीतर बुलाया .......और आसन देकर बैठाते हुए पूछा ।
हाँ ............खाऊंगा .....ओदन खाऊंगा ।
कान्तिमति ओदन ( भात ) जैसे ही लेकर आयीं.........वो तो देखते ही उछल गया .......और कान्तिमति के पेट की ओर इशारा करके हँसा ......फिर वही शब्द ........शेष, अनंत, रामानुज , शेषनाग ।
पेट की ओर देखता हुआ बोला .....भगवान नारायण के शेष नाग ।
पर दम्पति समझे नही ....................
उसनें भोजन लिया .......और गाँव में चिल्लाता हुआ चला .......शेष नाग आरहे हैं ........अनन्त आरहे हैं ..............रामानुज आरहे हैं ।
अब मंगल होगा ............सब मंगल होगा .............।
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सुनिये ना ! सुनिए ! उठिये !
एकाएक डरते हुए उठ गयीं .......कान्तिमति ........और अपनें पति को उठाया ..........।
क्या हुआ ? जैसे ही सामनें देखा .केशव भट्ट ने ..............कान्तिमति का पेट दिव्य तेज़ से भर गया है ...ऐसा लग रहा है .....जैसे कोई चन्द्रमा ही पेट में हो ...............।
पर सामनें क्या है ये ?
जब दीया जलाकर देखा ......तो डर गए केशव भट्ट .......
सैकड़ों नाग सामनें आकर खड़े हो गए थे ...............
पर जब ध्यान से देखा तो काटनें की मुद्रा में नही थे ये सब .........
सब प्रार्थना की मुद्रा में थे ..........फन को झुकाये हुए ।
केशव पण्डित समझ नही पा रहे थे की ये हो क्या रहा है ।
पर रात्रि में ही एक स्वप्न देखा .............कान्तिमति नें ।
भगवान नारायण के शेषनाग ...............वही शेष नाग .........
भगवान नारायण की आज्ञा से भक्ति का प्रचार करनें के लिए .....अवतार ले रहे थे .........कान्तिमति के गर्भ में से ।
ओह ! ये क्या है ! ...................
केशव भट्ट की नींद तो खुल गयी ..........पर अपनी पत्नी का मुख देखकर वो और चकित हो गए थे ......कितना तेज़ युक्त मुख मण्डल लग रहा था कान्तिमति का ।
नारायण नारायण नारायण ...........इसी नाम मन्त्र का जाप करते हुए ......वो रात्रि बिताई थी केशव भट्ट जी नें ।
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विक्रम सम्वत् 10 74 में चैत्रमास शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि के दिन ...शेष नाग के अवतार ( रामानुज सम्प्रदाय में रामानुज को शेषनाग का अवतार कहते हैं )
माँ कान्तिमति की कुक्षि से .........सुन्दर दिव्य तेज़ से युक्त .........बालक का जन्म हुआ .......।
कहते हैं.......उस दिन पूरे गाँव को मिठाई बाँटते फिरे थे केशव भट्ट ।
पूरा गाँव ही आज उत्सव मना रहा था ...........केशव भट्ट के बालक हुआ है .....इस बात की ख़ुशी थी सबको ।
पर कोई समझ नही पा रहा था कि ....बेटा केशव भट्ट के हुआ है ...पर हमें आनन्द क्यों आ रहा है ......हम क्यों प्रसन्न हैं .....।
आस्तित्व प्रसन्न है आज इसलिए ....
......."रामानुज" लो नामकरण भी हो गया ।
शेष प्रसंग कल ........................
Harisharan
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