( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 2 !!
तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी...
( छान्दोग्योपनिषद् )
( साधकों ! शाश्वत को आप कोई साधारण लेखक मत समझना .....
ये उच्च स्थिति का लेखक है ......और अच्छा चिंतक भी है ।
गम्भीरता की बातों को कितनी सहजता से समझा जाता है ......मै तो कायल हो गया हूँ इसका !
"श्री रामानुजाचार्य चरित्र" को लिखते हुए .........कितनी सहजता से सम्प्रदाय के बारे में ........और इन सम्प्रदाय के सिद्धान्तो के बारे में समझा गया है शाश्वत ।
लिखता है शाश्वत - " "सम्प्रदाय" शब्द को आज इन राजनीतिज्ञों नें बिगाड़ दिया ..........सम्प्रदाय न हुआ आज गाली हो गयी है ........किसी को बोल दो ये साम्प्रदायिक है ..........बस .......समझो उसको आपनें गाली दे दी ।
पर ऐसा नही है ..........सम्प्रदाय शब्द बहुत महिमावन्त है ..........इसका शाब्दिक अर्थ होता है ............जहाँ से साधक को साधना परम्परागत, सम्यक प्रकार से प्रदान किया जाता है ......उसे ही कहते हैं सम्प्रदाय ।
ब्रह्म कहो या परमात्मा या ईश्वर .........इनको पानें के तीन ही साधन है ......शाश्वत समझाता है -
1 ) ज्ञान मार्ग
2) कर्म मार्ग
3) भक्ति मार्ग
इनमे से ही सम्प्रदाय निकले हैं ..........जैसे "कर्म मार्ग" का सम्प्रदाय है ...योग ........योग के भी अनेक सम्प्रदाय आज निकल गए हैं ।
ज्ञान मार्ग के सम्प्रदाय में .............श्री शंकराचार्य के सम्प्रदाय को प्रमुखता से लिया जाता है .......।
अब भक्ति मार्ग के सम्प्रदाय ..........मुख्यतः चार बताये गए हैं .......।
इसमें "श्रीसम्प्रदाय" ( जिसमें रामानुज और रामानन्द )............
विष्णुस्वामी सम्प्रदाय ( बल्लभाचार्य और महाराष्ट्र का वारकरी सम्प्रदाय भी इसी की शाखा है ) ।
माध्व सम्प्रदाय ......( जिसमें बाद में चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी भी मिल गए थे )
और निम्बार्क सम्प्रदाय .............शायद ये कृष्ण भक्ति का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है .........कृष्ण भक्ति के सारे सम्प्रदाय इसी निम्बार्क से निकले हैं अगर मै ऐसा कहूँ .....तो गलत नही होगा ।
अस्तु ।
शाश्वत आगे लिखता है ................रामानुज सम्प्रदाय में दास्य भक्ति की बात को मुख्यता से उठाया है ।
विष्णुस्वामी सम्प्रदाय की एक शाखा बल्लभ सम्प्रदाय में वात्सल्य भक्ति को मुख्यता दी गयी है ।
माध्व सम्प्रदाय में ......सख्य भाव को प्रमुखता से उठाया है ......इसमें ईश्वर के प्रति सखा भाव रखा जाता है ....वैसे चैतन्य के अनुयायी मधुर रस की उपासना भी करते हुए दिखाई देते हैं ।
पर विशुद्ध मधुर भाव निम्बार्क सम्प्रदाय की देन है .............।
अब सुनिये - श्री रामानुजाचार्य जी का दास्य भाव .......आचार्य श्री रामानुज अपनें श्री भाष्य में लिखते हैं .........जीव ईश्वर का नित्य दास है .........सेवक है ........ईश्वर हमारे स्वामी हैं ........आचार्य रामानुज लिखते हैं ............इस भाव की प्राप्ति जीव को करनी नही पड़ती...........दास्य भाव तो जीव को नित्य प्राप्त है ........।
दास्य भाव ऐसा भाव है .........जो सब भावों में समाहित रहता है ।
माधुर्य भाव में ...प्रेयसि अपनें आपको दासी कहती है ..........और प्रेमी भी राधा रानी के चरण दवाते हुए मिलते ही हैं ।
वात्सल्य में भी माँ अपने ही पुत्र की दासी बनकर भी कार्य करती है .........क्या नही करती माँ ...........जो दासी करती है ......अपनें स्वामी के लिए ....वो सब तो करती है .......।
सख्य भाव में भी.........दास भाव सूक्ष् रूप से समाहित ही है ।
दासोहम् कौशलेन्द्रस्य ..............
रामानुजाचार्य जी नें वाल्मीकि रामायण के इन हनुमान जी के वाक्य को बड़ा आदर दिया है ...........।
कि मै प्रभु श्री राम का दास हूँ ।
उस घटना के बारे में जब मै सोचता हूँ ......तब मै श्री रामानुजाचार्य जी के उच्चभावों का कुछ अनुमान ही लगा पाता हूँ .........
ओह ! अपनें इष्ट श्री नारायण भगवान के बारे में ऐसा सुनकर लड़ पड़े थे रामानुज अपनें शिक्षा गुरु से .....................
पढ़िये ...................
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कल से आगे का प्रसंग............
रामानुज धीरे धीरे बढ़ें होनें लगे थे.............
कुशाग्र बुद्धि के थे.....वेद शास्त्र 16 वर्ष की आयु में ही पढ़ लिया था ।
तेजम्बा नामक एक अत्यंत सुन्दरी युवती के साथ रामानुज का विवाह भी सम्पन हो गया था ।
घर परिवार सब प्रसन्न थे ...............माता पिता को और चाहिए ही क्या ...........एकलौते पुत्र की घर गृहस्थी बस गयी थी ......सब प्रसन्न थे .........पर काल के आगे किसकी चली है ..........।
एक दिन घर वीरान हो गया .........घर परिवार का मुखिया इस जगत को ही छोड़कर चला गया ।
रामानुज के पिता केशव भट्ट का शरीर शान्त हो गया था ।
माँ कान्तिमति बहुत रोईं .........रामानुज नें अपनें हाथों अपनें पिता की सारी अंतिम क्रिया पूरी की थी ।
अब मन नही लगता था रामानुज का अपनें गाँव में ।
यादव प्रकाश नामके एक अच्छे विद्वान् थे ...........जो कांची में रहते थे ....कांचीपुरी ............।
रामानुज विद्या के व्यसनी तो थे ही..........क्यों न ब्रह्मसूत्र यादव प्रकाश जी से पढ़ा जाए......! मन में विचार आया ।
पर वो तो कांचीपुरी में रहते हैं ? रामानुज नें अपनें आपको ही समझाया था ।
तो क्या हुआ .............अब इस गाँव में बचा ही क्या है ? मेरे पिता मुझे छोड़ कर चले गए ..............क्यों न मै अपनी माँ और अपनी पत्नी को लेकर कांचीपुरी जाकर रहूँ ..........मेरा विद्याध्यन भी होता रहेगा ......और वहाँ तो अनेकानेक भक्ति के संत लोग हैं .........उनका सत्संग करूँगा मै...........।
ऐसा विचार कर ...........अपनी माँ और पत्नी को लेकर कांचीपुरी आगये थे श्री रामानुज ।
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मुझे आपसे ब्रह्मसूत्र पढ़ना है .............
आप मुझे निराश नही करेंगें !
यादव प्रकाश जी को प्रणाम निवेदित करते हुए ............रामानुज नें अपनी बात रखी ।
पर मै अद्वैत वाद का समर्थक हूँ ......तुम कहीं वैष्णव मत के तो नही हो ?
यादवप्रकाश , अपनी बात स्पष्टता से कहते हुए हँसा था........उसके साथ सारे विद्यार्थी हँसे थे ।
रामानुज को पता था ..............यादव प्रकाश के बराबर वेदान्त की शिक्षा देनें के लिए और कोई नही है ............इसलिये उन्होंने यादव प्रकाश की बात मान ली थी ।
एक दिन की बात - धूप में लेटे हुए थे यादव प्रकाश ........विद्यार्थी सब पढ़ रहे थे ........रामानुज, यादव प्रकाश के पैरों को दवा रहे थे .....
तभी एक विद्यार्थी खड़ा हुआ .........और छान्दोग्योपनिषद् का ये श्लोक बोलते हुए पूछा..........गुरु जी ! इसका क्या अर्थ है ?
श्लोक था ..............."तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी"
गुरु जी ! इसमें "कप्यासं" का क्या अर्थ है ?
उस विद्यार्थी नें पूछ लिया था ।
यादव प्रकाश नें उस विद्यार्थी को समझाया ..........देखो ! "कप्यासं" का अर्थ है .....कपि के नितम्ब के समान .........।
पूरा अर्थ ये होता है ....यादव प्रकाश नें बताया ...........उस परमपुरुष के नेत्र बन्दर के नितम्ब के समान बड़े बड़े हैं ..............।
टप्प टप्प टप्प .............आँसू गिरनें लगे यादव प्रकाश के पैरों में ।
यादव प्रकाश उठकर बैठ गए .............क्या हुआ ?
रामानुज रो रहे हैं ..................गुरु जी ! रामानुज रो रहे हैं ..........विद्यार्थियों नें बताया ।
हाँ ...हाँ ......मै भी देख रहा हूँ ......कि रामानुज रो रहा है ..........पर क्या हुआ क्यों रो रहे हो ?
नही कुछ नही गुरु जी ...................रामानुज नें बात को टालनी चाही ।
पर यादव प्रकाश के जिद्द पर रामानुज नें वह कारण बता ही दिया जिसके कारण रो रहे थे रामानुज ।
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मै तो क्षीर सागर में शयन किये हुए नारायण का ध्यान कर रहा था ....
रामानुज नें बताना शुरू किया .........
आपके चरणों की सेवा भी कर रहा था ......और नारायण प्रभु का ध्यान भी कर रहा था ...........माँ लक्ष्मी चरण दवा रही थीं .......ब्रह्मा जी वेद का पाठ कर रहे थे ......शान्ता कारम् .........उस शेष में सो रहे थे ।
आहा ! उनके नेत्र अर्ध खुले थे .............जैसे ........
मै ध्यान में ही देख रहा था भगवान नारायण के उन नेत्रों को .......मै उन नेत्रों में खो गया था ........फिर मुझे लगा इन प्यारे नेत्रों की उपमा दी जाए तो क्या दी जाए ?
मुझे कोई उपमा सूझ नही रही थी .........................
तभी ......इस विद्यार्थी नें आकर आपसे उस श्लोक के बारे में पूछा ...जिसमें भगवान के ही नेत्रों की उपमा दी गयी थी ........
पर आपनें कैसी व्याख्या कर दी ...................छी !
अपनें शिष्य के मुख से छी ! शब्द सुनकर बहुत बुरा लगा यादव प्रकाश को .............
क्यों ? मैने सही व्याख्या तो की है .....कप्यासं ....का अर्थ होता है ....कपि यानि बन्दर .......और उसका नितम्ब ............।
क्या कह रहे हैं आप गुरु जी ! बन्दर के नितम्ब की उपमा आप भगवान नारायण के नेत्रों से दे रहे हैं ......ये अपराध है ...........।
और आपनें देखा नही है .......भगवान नारायण के नेत्रों को ......मैने तो देखा है .....मै तो निरन्तर उन्हीं के नेत्रों को ही निहार रहा था ।
वापस सोते हुए .......यादव प्रकाश नें कहा ..........तुम्हे क्या अच्छा लगता है ....इसका अर्थ क्या होना चाहिए ?
रामानुज नें अपनें नेत्रों को बन्द किया ........हाथ जोड़े .........और धीरे धीरे बोलनें लगे थे ...................
"कप्यासं" का अर्थ है ...............कं जलं..पिबतीति - कपि .........यानि सूर्य ...........जो जल को अपनी ओर खिंचता है ......या कहो पीता है .......वो सूर्य है ..............यानि सूर्य के समान तेजपूर्ण जिसकी आँखें हैं .......वो है परमपुरुष नारायण ।
ये कहते हुए रामानुज नें हाथ जोड़कर भगवान नारायण को प्रणाम किया था .................हे नारायण ! आप मेरे स्वामी हैं ....मै आपका नित्य सेवक हूँ ..............मुझे अपनें से दूर मत करना .......।
ये कहते हुए प्रसन्न थे रामानुज ।
पर इस घटना से दिक्कत होनी शुरू हो गयी थी ...यादव प्रकाश को ...जो रामानुज के शिक्षा गुरु थे ।
अन्य शिष्यों के सामनें रामानुज का यादव प्रकाश से उलझ जाना .........ये यादव प्रकाश को प्रिय नही लग रहा था ।
पर कुशाग्र बुद्धि के रामानुज ...............इन्हें बहस में या शास्त्रार्थ में तो हराया जा नही सकता था.............
मार देता हूँ इसे ...........हाँ रामानुज को मार ही देता हूँ .......
अगर ये जिन्दा रहा ........तो मुझे ये एक न एक दिन हरा ही देगा ...और शिष्यों के बीच में मेरी बेज्जती ही होगी .........।
हाँ ....इसे मार देता हूँ ...............यादव प्रकाश अब रामानुज को मारनें की योजना बना रहे थे .............।
शेष प्रसंग कल ...............
Harisharan
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