( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 8 !!
भगवान भक्त भक्तिमान ......
( श्रीमद्भागवत )
( साधकों ! भक्त और आचार्य में भेद होता है ..........इस भेद को समझना बहुत जरूरी है ।
आचार्य धर्म का प्रचारक होता है ........भक्त प्रचारक नही होता ।
आचार्य अपनें सिद्धान्त के प्रति अडिग रहता है .......पर भक्त सिद्धान्त से परे होता है ।
आचार्य अपनें सम्प्रदाय की रक्षा के लिए जी जान लगा देता है ....पर भक्त की भक्ति सम्प्रदाय के बन्धन में नही बंधती ।
आचार्य का एक ही लक्ष्य होता है ........धर्म का प्रचार करना ......
पर भक्त को क्या मतलब यार !
शाश्वत कल यमुना जी के किनारे मिल गया ..................वो इन दिनों नित्य "आज के विचार" पढ़ रहा है ..........।
उसनें मुझ से बात की ...............हम दोनों नौका में बैठ गए थे .....और काफी देर तक घूमते ही रहे ।
भक्त के द्वारा प्रचार नही होता धर्म का ........ऐसा आप नही कह सकते ........पर कर्ता भाव से मुक्त रहता है भक्त ...........इत्र की शीशी खुलेगी तो खुशबु फैलेगी .......यानि स्वयं का प्रयास नही है ........पर आचार्य का प्रयास है ..........शास्त्रार्थ करना .......उन्हें अपनें सम्प्रदाय में लेकर आना .......अपनें सम्प्रदाय के सिद्धान्त रटाना । अपनें सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाना ।
पर भक्त तो सभी सम्प्रदाय से परे होता है ।
शाश्वत को मैने कहा ........एक दिन मेरे पागल बाबा से किसी नें पूछा था कि आप किस सम्प्रदाय से हैं ?
तब मेरे बाबा का उत्तर था .......मै भगवान के सम्प्रदाय का हूँ ।
भक्त को मतलब नही है .....सम्प्रदाय से ....या उसके सिद्धान्त से ......उसे तो मतलब है ......अपनें यार से .......अपनें प्यार से ..........वो क्यों बोझिल ज्ञान को अपनें माथे में ढ़ोकर चलेगा ......!
प्रस्थानत्रयी क्या है ? उस पर कैसा भाष्य लिखा गया था ......?
और भाष्य किसका अच्छा ? श्री शंकराचार्य जी का ?
या वैष्णवों में श्री रामानुजाचार्य जी का ...?
या श्री निम्बार्काचार्य जी का ?
हँसता है शाश्वत ...........प्रस्थान त्रयी ? पढ़नें की फुर्सत मिले तब न भक्त पढ़ेगा । उसे अपनें ही भगवान को रिझानेँ के लिए समय कम पढ़ रहा है ........अब वो तुम्हारा अद्वैतवाद .......या विशिष्टाद्वैतवाद या द्वैतवाद ......या द्वैताद्वैतवाद , पढ़ेगा ?
शाश्वत मुझे कहता है ............नही आचार्यों को ऐसा होना भी चाहिए ......उन्हें सबको शिक्षा देनी है ............उनको देखकर लोग शिक्षा लेते हैं .............वैदिक मार्ग का परित्याग करना उचित नही है ।
पर भक्त के लिए तो.........वही मार्ग , मार्ग है .....जो उसके महबूब तक पहुँचा दे ।
आचार विचार शुद्ध और पवित्र हों ............आचार्यों नें यही कहा है ।
पर भक्त कहता है ...................हृदय में अपनें प्यारे प्रियतम को बिठा लो ..............विचार और आचार दोनों ही पवित्र हो जायेंगें ।
भक्त अपनी जगह मस्त है ......और आचार्य जन अपनी सत्य हैं ।
इसलिये इस लेख का अर्थ ये नही .....कि भक्त बड़े और ये आचार्य छोटे .......नही ......सब अपनी जगह दिव्य हैं ........भगवत्स्वरूप ही हैं ।
पढ़िये आगे का प्रसंग ..............
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कल से आगे का प्रसंग -
सन्यास की दीक्षा लेनें के बाद ........दिग्विजय करनें के लिए श्री रामानुजाचार्य जी निकल गए ।
उनका सिद्धान्त था "विशिष्टाद्वैतवाद"...........।
अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ करते हुए श्री रामानुजाचार्य जी उड़ीसा प्रान्त में पहुँचे थे । वहाँ भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन की इच्छा प्रबल हो उठी थी रामानुजाचार्य जी के मन में ।
तो अपनें साथ सैकड़ों शिष्यों को लेकर पुरी के लिए निकल पड़े ।
जगन्नाथ मन्दिर में पहुँचते ही......वहाँ के पण्डो नें घेर लिया ।
स्वामी जी ! पूजन करवाओ ........स्वामी जी ! संकल्प बोलो .....
जगन्नाथ पुरी के पण्डे हैं ..............लग गए स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी के पीछे ।
उनको एक दो लोगों नें कहा भी .....अरे ! भई ये तो जगद्गुरु हैं .....स्वामी जी हैं ............ये तुम लोगों को दक्षिणा थोड़े ही देंगें !
क्यों नही देंगे ? पण्डे भी अड़ गए ।
एक नें कहा ...........सन्यासी पैसों को छूता कहाँ है ?
ये नही छूते .....पर इनके शिष्य जन तो साथ हैं उनको बोल दें ये ।
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें कहा.....ठीक है .....बोलो पहले संकल्प -
संकल्प बोलनें लगे .........पण्डे लोग ।
अब कहाँ विद्वान स्वामी रामानुजाचार्य जी ! और कहाँ ये बेचारे अनपढ़ ....गरीब पण्डे ।
शुद्ध संकल्प नही बोल सकते तुम लोग ?
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें टोका ।
पर पण्डे कहाँ ध्यान देंनें वाले थे ।
तुम्हारे पण्डा समाज में कोई शुद्ध संकल्प मन्त्र पढ़नें वाला हो ........तो उसे लेकर आओ ........रामानुजाचार्य नें कहा ।
एक पण्डा समाज का अध्यक्ष था ........उसी को ले आये ।
पर ये क्या .............ये पण्डा तो हाथ में रखकर जगन्नाथ जी का भात खाता हुआ आरहा था............जब भात खतम हुआ ....तो ऊँगली चाट ली .........हाथ पानी से नही धोया......अपनें शरीर में ही पोंछ लिया ।
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें देखा .........अरे ! ये लोग तो शुद्धा शुद्ध भी नही जानते ........झूठा हाथ लेकर भगवान जगन्नाथ के मन्दिर में भी चले जाते होंगें ........ओह ! इन पण्डो ने तो हमारे धर्म को ...हमारे पवित्र देवस्थान को अशुद्ध करके रख दिया है ।
तुमनें हाथ नही धोया ?...............अभी तुम भात खा रहे थे ।
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें उस पण्डा से कहा ।
मैने कहाँ भात खाया ? पण्डा सहजता में बोल गया ।
झूठ भी बोलते हो ..........तीर्थ पुरोहित होकर !
कुछ रोष भी आगया था रामानुजाचार्य जी को ।
ओह ! मै तो प्रसाद पा रहा था ......पण्डा सहजता में बोला ।
मै तो जगन्नाथ प्रभु का प्रसाद खा रहा था ...........
आप नें क्या कहा ...........मैने हाथ क्यों नही धोया ?
हाँ .......तुमनें हाथ भी नही धोया और उस झूठे हाथ को पूरे शरीर में और लगा लिया......अब तुम ऐसे ही मन्दिर में जाओगे ?
स्वामी रामानुजाचार्य को क्रोध आरहा था उस पण्डे के ऊपर ।
अरे ! स्वामी जी ! जगन्नाथ भगवान का प्रसाद है .......हाथ धोनें की क्या जरूरत ? और प्रभु जगन्नाथ का प्रसाद तो जहाँ भी लगेगा ....वह तो पवित्र ही बना देगा ना ? ..........
तुम लोग आचरण से हीन हो ..............तुम अपनें ब्राह्मणत्व से गिर गए हो ......न वैदिक आचरण ........न मन्त्र का ज्ञान .............।
स्वामी जी ! आप कौन होते हैं हमें ये सब बोलनें वाले .........दक्षिणा न देना है , मत दीजिये .............पर आप हमें ये सब मत कहिये ........जब तक भगवान जगन्नाथ हैं हमारे साथ ...............तब तक हम तो उन्हीं के भरोसे यहीं पड़े रहेंगें ...........।
मै निकाल दूँगा तुम्हे यहाँ से .............मन्दिर से मै तुम सबको निकाल दूँगा ....और आज से वैदिक विधि से .....पूर्ण शास्त्रीय विधि से पूजा अर्चना होगी .......भगवान जगन्नाथ की ।
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें पण्डो को चेतावनी दी ........।
अरे ! जाओ ! अपनें श्री रंगम जाओ ! स्वामी जी !
यहाँ तो भगवान नें हमें स्वीकार किया है ......फिर आप कौन होते हैं हमें हटानें वाले ।
मै पुरी के राजा से बात करता हूँ .....मन्दिर की व्यवस्था वही देखता है ।
स्वामी रामानुजाचार्य जी पुरी के राजा के पास गए ।
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पुरी के राजा से चर्चा की ......स्वामी रामानुजाचार्य जी नें ।
पण्डो की मनमानी स्थिति .........उनकी शिक्षा ............।
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें राजा से कहा ..........बिना विधि के कर्मकाण्ड निष्फल होता है .....बिना शुद्ध मन्त्र के ..........उसका कोई फल तीर्थयात्री को नही मिलता ।
हे राजन् ! मेरी बात मानिए ..............मै शास्त्रीय बातें कर रहा हूँ .......इन सब पण्डो को मन्दिर से निकाल दीजिये ............
राजा नें हाथ जोड़कर कहा .........कम से कम सेकड़ों पण्डे हैं मन्दिर में तो भगवन् ! ..............फिर इन सबको निकाल भी देंगें तो ये पूजा इत्यादि का कार्य कौन देखेगा ?
मेरे ये शिष्य देखेंगें । रामानुजाचार्य नें अपनें शिष्यों की ओर देखा ....।
ये सब विद्वान हैं ........और संयमी ब्राह्मण भी हैं .........ये पूजा इत्यदि का कार्य करेंगें ।
उदास मन से हाँमी भर ली थी राजा नें ।
और उसी समय आदेश दे दिया राजा नें कि .......मन्दिर में से सब पण्डे लोग निकल जाएँ ........अब से स्वामी रामानुजाचार्य जी और उनके शिष्य ही भगवान जगन्नाथ की सेवा अर्चना करेंगें ।
ओह ! ये क्या हो गया ! पण्डा समाज अत्यन्त दुःखी हो गया था ।
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भोग तैयार किया गया भगवान जगन्नाथ के लिए ।
शुद्धता से .......पवित्रता से .......भोग तैयार किया गया ।
ये सब करनें वाले थे स्वामी रामानुजाचार्य के शिष्य गण ।
भोग लगाया गया .......भगवान जगन्नाथ को ।
पर भगवान जगन्नाथ नें उस भोग की और देखा भी नही ।
सस्वर वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होनें लगा .......पर ........भगवान नें उस भोग को स्वीकार नही किया ।
कोई बात नही..........ये भोग स्वीकार नही करते ....न करें ......पर वैदिक मार्ग को छोड़कर हम अवैदिक मार्ग में चल नही सकते ।
देवालयों में कैसे भोग लगाना चाहिए ............ये हमारे शास्त्रों में लिखा है ..........हम उन शास्त्र वचन को कैसे काट दें ।
शाम को फिर भोग तैयार किया गया ..........स्वयं भोग लगानें के लिए स्वामी रामानुजाचार्य जी फिर आये ।
मन्त्रों का फिर उच्चारण हुआ .....पर नही .........भगवान जगन्नाथ नें शाम को भी ये भोग स्वीकार नही किया ।
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हर घर से रोनें की आवाज आती है रामानुजाचार्य जी को ।
पण्डो के ही तो घर हैं यहाँ .................आज एक दिन पूरे हो गए .......घर में किसी नें कुछ नही खाया है ।
ब्राह्मण की पत्नियां रो रही हैं ....................
मन्दिर से निकाल दिया है सभी पण्डो को .........
अब हम लोग खायेगें क्या ? .............
हमारे पास तो अब धन भी नही आएगा .......पहले यजमान पूजा कराके कुछ तो दे देता था ................पर अब कुछ नही मिलेगा ।
हे जगन्नाथ भगवान ! कृपा करो .........हम सब तुम्हारे ही तो हैं ।
हम जैसे भी हैं .................पर तुम्हारे हैं नाथ !
हर घर से रोनें की ऐसी ही आवाज सुनाई देती है ............स्वामी रामानुजाचार्य जी ये सब सुनते हुए मन्दिर में आये ।
भोग लगाया भगवान को ?
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें अपनें शिष्यों से पूछा ।
हाँ अभी लगाया ही है ..................
पर्दा खोलकर भीतर गए स्वामी रामानुजाचार्य जी ।
आप भोग स्वीकार क्यों नही करते ? हे प्रभु ! ऐसा मत कीजिए .....भोग को स्वीकार करो आप !
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें प्रार्थना की ।
हे स्वामी रामानुज ! सुनो ! बाहर की आवाज !
भगवान जगन्नाथ जी नें स्वामी रामानुजाचार्य को कहा ।
जब बाहर की आवाज सुनी ...............
सब रो रहे हैं ...............मन्दिर के चारों ओर पण्डों के घर हैं .....वहीँ से आवाज आरही है .......रोनें की ............।
तो ?
गम्भीर होकर भगवान जगन्नाथ से ही पूछा रामानुजाचार्य नें ।
आप क्या चाहते हैं ......वैदिक मार्ग को मै छोड़ दूँ ?
शास्त्र वचन को मै प्रणाम मानता आया हूँ .............फिर क्या शास्त्र वचनों को मै त्याग दूँ ?
भगवान जगन्नाथ कुछ नही बोले ।
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स्वामी जी ! हमारे बच्चों को बचा लो ............स्वामी जी ! हमारे पति हमारे बच्चे भूखे मर जायेंगें ......स्वामी जी ! ऐसा मत करो ।
सुबह ही सुबह मन्दिर में चीत्कार कर उठीं थीं वो पण्डितों की पत्नियां ..............आज तीन दिन से हमारे घर में किसी नें कुछ नही खाया है ।
मन्दिर से हमारे पति को मत हटाओ ........हमारी प्रार्थना है आपसे ।
रोनें और बिलखनें का ये क्रम तीन दिन से चल रहा है ।
आज तीसरा दिन है ...................
आप भोग स्वीकार क्यों नही करते ?
नाराज हो गए रामानुजाचार्य जी ....भगवान जगन्नाथ से ।
पर आज तो रामानुजाचार्य से भी तेज़ आवाज में भगवान जगन्नाथ बोल उठे थे ।
कैसे खाऊँ ? बोलो रामानुज ! कैसे खाऊँ ?
ये बेचारे मेरे लोग हैं ...............तुम्हे तो आज पता चला कि ये लोग मन्त्र अशुद्ध पढ़ते हैं ......पर मुझे तो वर्षों पहले से पता था .......फिर भी मैनें इन्हें रखा अपनें पास .........पता है क्यों रखा मैने इन्हें ?
क्यों की हे रामानुज ! इनका कोई नही है .......ये सिर्फ मुझे ही मानते हैं ........भले ही इन्हें शास्त्र का ज्ञान नही है .......पर ये मुझे मानते हैं .........इन्हें वैदिक मन्त्र नही आते .......पर ये सिर्फ मेरे भरोसे हैं ।
ये कहते हैं ........हमारा तो केवल जगन्नाथ है ......छाती ठोक कर कहते हैं ........हमारा तो केवल जगन्नाथ है ।
ऐसे भरोसे में रहनें वाले मेरे ये लोग आज भूखे हैं ...........उनके बच्चे बिलख रहे हैं भूख से ................तुम ही बताओ ना रामानुज ! मै कैसे खा सकता हूँ तुम्हारा ये भोग ?
तो आप क्या चाहते हैं ?
रामानुजाचार्य ने पूछा ।
तुम उन्हें मेरी सेवा में लगा दो ......वो लोग चाहे अच्छे बुरे जैसे हैं .....मेरे हैं ......वो मेरे हैं ।
भोग उठा लो ! ............रामानुजाचार्य नें अपनें शिष्यों को कहा .....और वहाँ से चले गए अपनी कुटिया की ओर ।
रात्रि हो गयी थी...............रामानुजाचार्य सो गए ।
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सुबह उठे स्वामी रामानुजाचार्य .............उनके साथ उनके शिष्य भी उठे ..........उठनें में आज सबको बिलम्ब हो गया था ।
अरे ! भगवान जगन्नाथ को भोग लगाना है ......चलो स्नान करो .......
स्वामी रामानुजाचार्य जी नें सबको कहा .............और स्वयं स्नान करनें के लिए पहले निकल गए ।
अरे ! ये क्या ?
स्वामी जी ! आचार्य चरण !
शिष्य लोग चिल्लाते हुए वापस लौटे स्वामी रामानुजाचार्य के पास ।
ये जगन्नाथ पुरी नही है ......हम तो श्री रंगम आगये ...........ये श्री रंगम है स्वामी जी ।
चौंक गए रामानुजाचार्य भी ।
ये क्या हुआ !
हुआ ये था ...................ध्यान में पता किया रामानुजाचार्य जी नें ।
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हे गरुण ! तुम मेरा एक काम करोगे ?
रात्रि में ही गरुण जी को बुलाया था भगवान जगन्नाथ नें ।
हाँ आज्ञा करो भगवन् ! गरुण नें सिर झुकाकर पूछा ।
रामानुजाचार्य को ....और इनके पूरे शिष्य परिकर को इनके ही "श्री रंगम" .........में छोड़ आओ ।
भगवान जगन्नाथ नें गरुण जी को आज्ञा दी ।
पर क्यों ? हँसते हुए गरुण जी नें पूछा ।
मै भाव देखता हूँ ...............मै प्रेम देखता हूँ ..............
गरुण ! अनपढ़ पुत्र हो ........और पढ़ा लिखा पुत्र हो .......
पर अनपढ़ अगर भोला भाला है .............तो पिता अनपढ़ कहकर उसे त्यागता नही है ..........बल्कि वो तो और समर्पित है पिता के प्रति ।
शुद्ध और अशुद्ध मै कहाँ देखता हूँ .......मै तो प्रेम को देखता हूँ ।
ले जाओ इन सबको "श्रीरंगम" हे गरुण जी ।
जो आज्ञा कहकर उड़ चले थे गरुण.....सबको पीठ में बिठाकर ।
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टप् टप् टप् .......आँसू गिरनें लगे थे रामानुजाचार्य जी के ।
आहा ! प्रेम को ही देखते हैं नाथ ! आप तो ।
"शुद्धाशुद्धम् न जानाति भाव ग्राही जनार्दनः"
हाँ ........आप नही देखते ..शुद्ध और अशुद्ध ........आप नही देखते जाति या पांति ........आप तो केवल प्रेम देखते हैं .......।
खूब रोये थे उस दिन रामानुजाचार्य जी........धन्य हो आप........ ..और धन्य हैं आपके चाहनें वाले भक्त.........।
शेष प्रसंग कल .......
Harisharan
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