!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग  6 !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग  6 !!

तव दास्य सुखैक संगिनां  भवनेष्वस्त्वपि कीट जन्म में...
इतरावसथेषु मास्मभूदपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना ।
( आलवन्दार स्तोत्र )

( साधकों !    शाश्वत नें जो ये भक्तों और आचार्यों की   चरित्र गाथा लिखी है ......उसके बारे में कुछ विशेष टिप्पणी करता है शाश्वत ।

"  भगवान के  चरित्रों को पढ़नें से  इतना लाभ नही है ......जितना लाभ भक्तों के चरित्रों को पढ़नें से है .......ये मेरा अपना अनुभव है ।

शाश्वत आगे लिखता है  - 6 दिन के कृष्ण नें पूतना नामक राक्षसी को मारा ......छोटी सी अवस्था में ही   राम नें  ताड़का को मार गिराया ।

भई ! हमसे तो एक मक्खी भी नही मरती .............

7 वर्ष के कृष्ण नें  7 कोस के गिरिराज पर्वत को ऊँगली में  उठा लिया .......
हमतो  एक पत्थर भी नही उठा पायेंगें .........!

हमारे साथ ......हमारे जीवन के साथ  भगवान की कथा या चरित्र सहजता से जुड़ नही पाती .............पर भक्त की कथा  हमारे जीवन को छूती है .........क्यों की जो समस्याएं हमारे जीवन में आती हैं  उन्हीं समस्याओं से ये रूबरू होते हैं ..........और उन्हें सहते हैं .........।

कितनें भी दुःख आये  ..कष्ट आये......सहते हुए  आगे बढ़ते जाते हैं ।

इसलिये  भक्तों की कथा  हमारे अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ......उसमें भक्ति के बीज बो देती है .......फिर तो दुःख आये या जाए ....भक्त को कोई फर्क नही पड़ता .....उस स्थिति में स्थित हो चुका है ना  वो तो !

इन भक्तों की भी शादी हुयीं ..........झगड़े   इनके यहाँ भी हुए ........

पर .........इन्होनें  उस समस्या को  एक रूप दिया .......उस समस्या से ही  समाधान निकाला........और जीवन  खिल उठा ।

चलिये पढ़िये -   "श्रीरामानुजाचार्य चरित्र"   को .................।

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कल से आगे का प्रसंग -

16 वर्ष में ही विवाह के बन्धन में बंध गए थे  रामानुज ।

पर  इन्होनें जो विवाह किया था ........वो  माता पिता की बात को न काटनें के कारण किया था ............।

तेजाम्बा ......यही नाम था   रामानुज की पत्नी का  ।

"कांचीपूर्ण"  नामके एक  बड़े सिद्ध  आचार्य  थे   कांचीपुरी में ....इन्हीं के यहाँ तो  रामानुज नित्य जाते थे  .....सत्संग करनें के लिए ।

इन्होनें ही तो   वरदराज भगवान ( भगवान विष्णु ) की सेवा  का अधिकार  रामानुज को दिया था..........सेवा कैसे करनी है  भगवतविग्रह की........उनके साथ हमारा कैसा भाव होना चाहिये.....ये सब सिखाते थे   कांचीपूर्ण जी  ।

रामानुज गुरुभाव रखते थे  कांचीपूर्ण जी के प्रति  ।

एक दिन  रामानुज नें  कांचीपूर्ण जी से कहा .........हे भगवन् !  मेरी इच्छा है कि ......आप मेरे यहाँ  कल प्रसाद पानें के लिए पधारें ।

पहले तो आनाकानी की  कांचीपूर्ण जी नें  .......पर  रामानुज का ज्यादा ही आग्रह देखा ......तो स्वीकार कर लिया  ।

पर कांचीपूर्ण जी  सच्चे साधू स्वभाव के थे.....रामानुज  बाजार गए थे ....कुछ  मिष्ठान्न खरीदनें के लिए.....तभी  कांचीपूर्ण जी घर में आगये ।

पत्नी तेजाम्बा  नें देखा ..............तो पूछ लिया ....भोजन करना है  ?

सरल हृदय के कांचीपूर्ण जी नें  कहा ......हाँ   वही करनें तो आये हैं ।

अच्छा ! बताओ  तुम्हारा गोत्र क्या है  ?   

तेजाम्बा ने पूछा  ये जाननें के लिए कि ये ब्राह्मण है या नही है ?

पर कांचीपूर्ण जी नें  उत्तर दिया  मेरा गोत्र तो  "अच्युत"  है ।

वैष्णव शास्त्र कहते हैं .........विष्णु दीक्षा हो जानें पर .........उसका गोत्र भी बदल जाता है ...........अच्युत गोत्र का हो जाता है वो ।

"अच्युत" यानि  "जिसका कभी पतन न हो".....।

कांचीपूर्ण जी नें   "अच्युत" कहा था ...........पर  रामानुज की पत्नी  तेजाम्बा नें सुना ......"अछूत".......।

तेजाम्बा नें    कोई दलित है ऐसा जानकर .................बाहर ही बैठाकर ऊपर से ही भोजन देकर .......भेज दिया  ।

और पोंछा  इत्यादि भी लगा दिया ........स्नान करके ...बर्तनों को माँज कर .........फिर रसोई बनानें लगीं   ।

रामानुज जल्दी जल्दी आये ...........उन्हें  अपनें गुरुतुल्य सन्त के सीथ  प्रसाद को लेना था .......उनकी सेवा करनी थी .....कितनी मुश्किल से तो ये  सन्त आज घर में आरहे थे  ।

पर जैसे ही घर में आये  रामानुज........घर को देखते ही  चौंक गए ।

अपनी पत्नी को बुलाया .......और  तेज़ आवाज में पूछा .......

कोई सन्त आये थे  यहाँ   ?

हाँ एक  अछूत आया था ....................तेजाम्बा ने कहा  ।

अछूत ? ................हाँ ...............तेजम्बा नें जब रूप  का वर्णन किया  कांचीपूर्ण जी का ......तब    बहुत दुःख हुआ  रामानुज को ।

अच्छा बता !      उन्होंने जिस पत्तल में खाया है ....वो कहाँ है ?

अब पत्तल मै क्यों रखनें लगी ..............मैने उसे फेंक दिया ........कुत्तों को खिला दिया  ।

रामानुज के हृदय में  बहुत  चोट पहुंची ...............

पर पत्नी , पत्नी थी ....चिल्लाते हुए   रसोई में गयी..........और पैर पटकते हुए बोली ...........सुनो !    मुझ से ये सब नही सहन होगा .......सुबह से शाम तक काम करो ..........और गाली भी खाओ ।

रामानुज को  क्रोध तो बहुत आया पत्नी के ऊपर ........पर  उन्होंने कुछ बोलना अभी उचित नही समझा ।

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एक दिन  और........श्री यामुनाचार्य जी के ही  एक शिष्य और थे ....जो    कई दिनों से    रामानुज के ही आग्रह से   कांचीपुरी में रह रहे थे ।

जिनका नाम था  महापूर्ण जी....जो  तमिल ग्रन्थ रामानुज को पढ़ाते  ।

साधू स्वभाव के ये  ........उनकी पत्नी भी  पति की तरह ही शान्त और गम्भीर थीं.......एक ही कुँआ था उनके मोहल्ले में  .........जिसमें जल भरनें के लिए  रामानुज की पत्नी भी जातीं थीं ............और  महापूर्ण जी की पत्नी भी जाती थीं    ।

एक दिन .............जल भरते हुए   जल का   छींटा  रामानुज की पत्नी के घड़े में पड़ गया ........और ये  छींटा पड़ा था ..........महापूर्ण जी की पत्नी के द्वारा .........गलती से ।

क्रोध में भरकर  महापूर्ण  की पत्नी का घड़ा फोड़ दिया  रामानुज की पत्नी नें  ।

महापूर्ण की पत्नी घर में आयीं .........रोती हुयी घर में आयीं .........

अपनें घर में महापूर्ण जी   रामानुज को पढ़ा रहे थे भक्ति परक  तमिल ग्रन्थ । 

पत्नी को रोते हुए , आये हुये देखा ......तो   कक्ष में जाकर पूछ लिया ...देवी !  क्या हुआ ?   क्यों  रो रही हो  ?

तेजम्बा नें   बहुत भला बुरा कहा.....मुझे .....और मेरा घड़ा भी फोड़ दिया ..........बस मुझ से गलती इतनी ही  हुयी थी  कि ...........मेरे जल का छींटा  उसके घड़े में  पड़ गया था  ।

कोई बात नही ............हम वैष्णवों को सहना चाहिए .........।

साधू हृदय  महापूर्ण जी नें    अपनी पत्नी को  समझाया ।

रामानुज नें  बाहर से सब सुन लिया था ......उनको फिर बड़ा कष्ट हुआ ................।

पर  रामानुज की पत्नी हम सबसे चिढ़ती क्यों हैं ?  

वैष्णवों से चिढ़ना उनका स्वभाव है ................महापूर्ण जी इससे ज्यादा निन्दा कर नही सकते थे ............।

रामानुज  लौट कर आगये अपनें घर  ........बहुत दुःख हुआ था मन में .....एक परमभागवत की सीधी सादी पत्नी को .........मेरी पत्नी नें भला बुरा कहा ।

पर उन्हें   दुःख  तब और हुआ जब  रामानुज नें ये सुना कि .......महापूर्ण जी और उनकी पत्नी  दोनों  कांचीपुरी छोड़कर श्री रंगम ही चले गए ।

घर में आकर  रामानुज नें अपनी पत्नी को फटकारना चाहा .........पर पत्नी  ही जली भुनी बैठी थी  ............।

रामानुज  नें विवेक से विचार किया......मै अगर इसे  अभी पिटूँगा या डाँटूंगा .......तो ये  और हल्ला मचाएगी .....और  इसको पीटनें से या डाँटनें से भी कोई हल तो निकलेगा नही ......बल्कि मेरा  भजन ....मेरी साधना और  बिगड़ जायेगी......मेरा अन्तःकरण भी दूषित हो जाएगा ।

ऐसा विचार कर रामानुज नें अपनी पत्नी को कुछ नही कहा ।

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पर आज  पानी सिर से ऊपर चला गया था .............

भगवान वरदराज ( विष्णु भगवान )   की सेवा पूजा में रामानुज थे ही ...पर उनके साथ एक भोला भाला ब्राह्मण भी था ....जो रामानुज का सेवा में सहयोग करता था ।

आज  इस ब्राह्मण को भूख लगी .............तो  चला आया  रामानुज के घर ......घर में पत्नी तेजाम्बा थी ...........

क्या है  ?     क्यों आया है यहाँ  ?

बहुत रूखे वचन में बोली रामानुज की पत्नी.....उस  भोले ब्राह्मण से  ।

भूख लगी है ............अम्मा ! कुछ है तो दे ना  ।

जा यहाँ से .............जिसकी सेवा करता है उसी से माँग .....वही देगा तुझे ...........अब क्या मैने  इस घर में  दरिद्र भण्डारा खोल दिया है...जो तुम जैसे दरिद्रों को खिलाती रहूँगी............।

बेचारा दुःखी होकर वो ब्राह्मण  रामानुज के घर से निकल रहा था ....

तभी रामानुज उसे मिल गए ..........

सारी बातें उस ब्राह्मण  नें  रामानुज को बता दीं  ।

तब रामानुज  को लगा  अब  भगवान श्री रंगनाथ मुझे  अपनें पास बुला रहे हैं .............रामानुज को लगा ........मै इन सबमें पड़नें के लिए नही आया हूँ ............मेरे जीवन का लक्ष्य ये नही है .......पत्नी से झगड़ा करना .......और उसी झगड़े में  तनाव में जीना ..........।

एकाएक चेहरे में ख़ुशी छा गयी रामानुज के  ।

उस ब्राह्मण को  साथ में लेकर ....बाजार गए ........फल फूल खिलाया .........मेवा मिष्टान्न खिलाये ...........।

फिर उस ब्राह्मण से बोले  रामानुज ..........मै कुछ फल तुम्हे देता हूँ .......और ये चिट्ठी भी लिखकर  दे रहा हूँ .............इसे ले जाकर मेरी पत्नी को देदेना ........और कहना  कि उसके मायके से ये चिट्ठी आई है .......कोई मुझे पकड़ा गया था ...........।  रामानुज नें ब्राह्मण को समझा कर भेज दिया .......।

तू फिर आगया यहाँ ?     

तेजाम्बा  उस ब्राह्मण को देखते ही  फिर जल भुन गयीं ......।

ये फल फूल कोई  दे गया है  आपके लिए ..........और ये चिट्ठी भी दी है .....कह रहा था  कि आपके मायके से है  ।

ब्राह्मण नें वही सब कहा .........जो रामानुज नें सिखाया था  ।

चिट्ठी पढ़ी .........रामानुज की पत्नी नें  ।

उसमें लिखा था  ...........दो दिन बाद ही  तुम्हारी बहन का व्याह है ......तुम्हे आना पड़ेगा  ।

अब तो उस ब्राह्मण का बहुत सत्कार करनें लगी  तेजाम्बा ।

तभी   रामानुज आगये .......................

रामानुज को देखते ही .......दौड़ी  ।

देखिये ना !    आज ही  आपको और मुझे   जाना पड़ेगा ..........

ख़ुशी के मारे .......  जल्दी जल्दी बोल रही है ।

पर कहाँ जाना पड़ेगा ?     रामानुज नें अपनी हँसी छुपाते हुए पूछा ।

आपकी साली ....और मेरी बहन का विवाह है ..............

ओह !   सुनो !   मै नही जा पाउँगा ......क्यों की  इन दिनों मेरा अध्ययन   चल रहा है .......इसलिये तुम जाओ !   

आप भी चलते तो !    पत्नी नें कहा  ।

मै लेने आऊंगा ..........और जब तक लेनें न आऊँ  तुम आना नही ।

ठीक है ..........आप जब लेनें आओगे  मै तभी आऊँगी  ।

पत्नी ख़ुशी ख़ुशी  मायके चली गयी  ।

इधर रामानुज के प्रसन्नता का भी  ठिकाना नही ।

वो दौड़े   वरदराज भगवान के मन्दिर में .................

और उन्होंने वहाँ जाकर  सन्यास की दीक्षा ले ली ..........गृहस्थ धर्म को त्यागकर ...........सन्यासी हो गए  रामानुज ।

इसी त्याग के चलते  ही  तो   कांचीपूर्ण जी नें   रामानुज को

"यतिराज" कहकर सम्बोधित किया था ।

रामानुज का वैराग्य सहज था........इन्हें  किसी को त्यागना नही पड़ा ......क्यों की मन में तो इनके नारायण भगवान ही विराजमान थे ............इनका मन ही "नारायण" बन गया था  ।

शेष प्रसंग कल .......

Harisharan

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