श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 7

( शाश्वत की कहानियाँ )

!!  श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 7  !

श्रद्धया सत्यमाप्यते .......
( कठोपनिषद )

(  साधकों !    शाश्वत   "श्री शंकराचार्य चरित्र  विशेष टिप्पणी" में लिखता है -

जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी का,  ये सनातन हिन्दू धर्म   अनादि काल तक ऋणी रहेगा ..............याद रहे  !     अगर  उस काल में  आदि शंकराचार्य नही हुए होते .....तो आज   ये  मस्तक पर तिलक , कण्ठ में तुलसी या रुद्राक्ष नही होता......हम सब बौद्ध बन गए होते  ।

फिर आगे लिखता है शाश्वत  ..............वेदान्त  को समझना हो तो ?

वेदान्त का मूल सिद्धान्त समझना हो तो  ?

शाश्वत लिखता है  -   ये प्रश्न मैने  गंगा जी के किनारे   एक अच्छे वयोवृद्ध  दण्डी सन्यासी से पूछा था ......जो नित्य   गंगा जी आते थे ......और  कुछ देर गंगा जी के किनारे में ही बिताते थे ............।

मुझे तो बाद में किसी नें बताया  कि ...........वो पूर्व में हाई कोर्ट के न्यायाधीश थे ..........।

पर मुझे कोई मतलब नही था कि ...........पूर्वाश्रम में वो क्या थे  ..वर्तमान में  वो एक  अच्छे दण्डी सन्यासी थे .........और सन्यास नियम का वो पूरा पालन करते थे  ।

एक दिन  मैंने उन्हें पकड़ ही लिया .............हँस मुख चेहरा ..........गौरवर्ण ..............करीब होंगें  70 वर्ष के  ......।

वेदान्त को  समझना हो तो ?     समय बिना गंवाएं मैने प्रश्न कर दिया ।

महावाक्य  को समझ लो ...........इन चार महावाक्य में सम्पूर्ण वेदान्त का सार भरा हुआ है   ।

उन्होंने  इतना कहकर मुझ से छुटकारा पाना चाहा ।

वो महावाक्य क्या हैं  ?  

तत्वमसि , प्रज्ञानं ब्रह्म, अयं आत्मा ब्रह्म, अहंब्रह्मास्मि ,

अच्छा !     ये तो मुझे पता है ..........मेरे मुँह से निकल गया  ।

तब वो दण्डी सन्यासी हँसे ..................और बोले ...........देखो !  इन चार महावाक्य को समझनें में ही ........जीवन बीत जाता है ......और तुम सहजता से कह रहे हो  कि  "मुझे तो पता है "  ।

देखो !  तुम तो उस विद्यार्थी की तरह बात कर रहे हो ..........जिसकी किताब में गणित का प्रश्न है .........और उसका उत्तर भी उसी में है .......

पर उस उत्तर को याद करनें से गणित के प्रश्न हल नही होते ........उसकी एक प्रक्रिया है .......उस प्रक्रिया को समझना होता है ........।

उस सन्यासी महात्मा नें कहा ....ऐसे ही  "तत्वमसि" इत्यादि बोलकर इनका अर्थ पढ़ लेनें से ही    वेदान्त का ज्ञान आपको नही प्राप्त होगा .....इसकी भी एक प्रक्रिया है .......उससे होकर गुजरना पड़ेगा ।

देखो !  आपको जैसे "घड़ी" को जानना है ....अब घड़ी होगयी  जाननें वाली वस्तु ........अब घड़ी को जाननें का उपकरण  हो गयी आँखें ........और  घड़ी को जाननें वाले हो गए - आप ...........।

इस तरह से एक प्रक्रिया बनती है   जाननें की ...............

इसलिये  इन  वेदान्त इत्यादि को समझना  इतना आसान नही है .......एक दिन में समझ में नही आती ये सब बातें ...........बुद्धि में जो विवेक तत्व है उसे जगाना पड़ता है  ..........और वो विवेक जागता है ......सत्संग से ...........सतपुरुषों के संग से  ।

वो दण्डी सन्यासी तो  वहीं  एक विशाल शिला में ही बैठ गए .......और मुझे  सत्संग देनें लगे .....ये उनकी करुणा थी  ।

आपका विवेक जगा है  ?      इसका विचार करो .........

अगर जगा है .....तो   बताओ  आपका सुख कहाँ है  ?
आपका दुःख कहाँ है ?  

क्या आत्मा के अतिरिक्त  और सब अनित्य है .....जड़ है .....दुःख है .....ये बोध आपको हुआ है  ?   

उन्होंने मुझे बृहदारण्यक उपनिषद् के इस प्रसंग को सुनाया ......

आपके भीतर से झाँकनें वाला ......कान के भीतर से सुननें वाला ......त्वचा से  छूनें वाला ........नाक के भीतर से सुँघनें वाला ......जिव्हा से रस लेनें वाला........बताओ  एक है  या अनेक है  ?  

उन्होंने ये प्रश्न मुझ से ही किया था ................

मैने विनम्रता पूर्वक  हाथ जोड़कर कहा .......इन्द्रियाँ अनेक हैं ......पर  मै एक हूँ ............मेरे इस  उत्तर से वो बड़े प्रसन्न हुए .......और बोले ......तुममें सबसे बड़ी बात ,    श्रद्धा है .......और जिसमें श्रद्धा हो ....वही सत्य को पाता है  ।

जल्दबाजी  मत करो ...........जिसके लिए महात्मा लोग कितना त्याग करते हैं .......कितना वैराग्य प्रकट करते हैं  अपनें भीतर .....कितना चिन्तन मनन होता है...........तब जाकर वो अनुभव कर पाते हैं  की  "अहं ब्रह्मास्मि".....।     तुम  अभी झट् पट   ऐसे पूछ रहे हो .....जैसे  रेडीमेड कपड़े की दूकान में खड़े हो ......और कह रहे हो ......"अहं ब्रह्मास्मि"  की ड्रेस निकाल दो .....पहननी है  ..........।

ऐसे नही होता .......पहले विवेक जगाना पड़ता है .......सत्संग में जाकर ......सत्संग करके ........तब जाकर ये बात समझमे आती  है कि ....ये  जगत अनित्य है .....जड़ है ......दुःखरूप है .....इससे वैराग्य करना है ...अन्तःकरण में काम क्रोधादि का नाश करना है ........इन्द्रियों को शान्त करना है ......तब जाकर  चिन्तन शुरू होता है .......कि  ..........।

इतना कहकर वो उठे ............और जानें लगे .......मेरे सिर में हाथ रखा था उन्होंने ......और फिर यही कहा था .....श्रद्धा  तुम्हारी अद्भुत है .....यही श्रद्धा  तुम्हे  सत्य तक पहुंचाएगी  ।

वो चले गए .......मैने उन वृद्ध सन्यासी की पद धूल माथे से लगाई  ।

ओह !  श्रद्धा से ही सत्य मिलता है ?     

हाँ .................शाश्वत लिखता है .............मुझे  इस वाक्य से आनन्द आगया था ..................और  फिर  श्री श्री शंकराचार्य जी के चरित्र को याद किया ...............उस वृद्ध  श्रद्धालु को   सत्य की प्राप्ति हो गयी थी मात्र श्रद्धा से ................

पढ़िये आगे - 

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कल के प्रसंग से आगे -

उत्कल प्रान्त  की ओर जा रहे थे    आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी ।

हे भगवन् !    एक  महात्मा हैं ......उन्हें वेदान्त आत्मसात् हो गया है ।

उनकी स्थिति  बहुत उच्च है ...............देहातीत अवस्था में वो महात्मा पहुँचे हैं .............आस पास के लोग   उनके  दर्शन करनें जाते रहते हैं ...पर  वो महात्मा बड़े सिद्ध हैं  ।

आचार्य चरण के ही  एक शिष्य सन्यासी नें  ये बात  जगन्नाथ पुरी जाते हुए कही .......।

आचार्य शंकर बैठ गए वहीं पर  ।

विद्वान् होगा  वो महात्मा !         आचार्य नें पूछा ।

नही  भगवन् !   गांव वाले बता रहे थे .........अनपढ़ है  वो तो ......कुछ नही पढ़ा ...........।

ब्राह्मण जाति का है  ?      

नही भगवन् !  ब्राह्मण जाति भी नही है ...............

पर  स्थिति उसकी बहुत ऊँची है  ........"अहंब्रह्मास्मि" का अनुभव कर लिया है .............।

पर कैसे ?        

कुछ देर विचार कर  आचार्य शंकर नें पूछा ..............

किसका शिष्यत्व स्वीकार किया है उसनें  ? 

किसका शिष्य है  ?     कोई अच्छा वेदान्ती होगा  ........जिसनें अपनी कृपा उस पर बरसाई .......आचार्य नें पूछा ।

भगवन् !   गाँव वाले कहते हैं ........आप ही हैं उसके गुरु .........वो गाँव वालों  को कहता है .......आप जैसे सदगुरु नें मन्त्र दीक्षा दी ......जिसके कारण   मुझे आत्मतत्व का बोध  हो गया  ।

आचार्य हँसे .......मैने  मन्त्र दिया ?      मुझे  नही लगता .....मैने दिया होगा  ।

फिर कुछ देर विचार करके   आचार्य शंकर  नें कहा ...............

अच्छा  चलो !     देखते हैं   वो महात्मा कौन है  ?  

अपनी शिष्य मण्डली लेकर  आचार्य उस गाँव की ओर मुड़ गए .......

गाँव के पास में ही एक  छोटी सी नदी बह रही थी ......बरगद का वृक्ष था ........उसके ही नीचे वो महात्मा  ..............आचार्य शंकर नें देखा ।

ओह !   ये  है  ! ! ! !

उसे देखते ही चौंक गए थे  शंकराचार्य जी   ।

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मैने कहा   ना   मै तुम्हे मन्त्र नही दे सकता ......जाओ यहाँ से ।

उस देहाती व्यक्ति को  शंकराचार्य जी नें पहले तो बहुत समझाया ......मै तुम्हे दण्डी सन्यासी कैसे बना सकता हूँ ........वर्णाश्रम को  मै पूर्ण मानता हूँ ..........और हमारे शास्त्र में लिखा है ...दण्डी सन्यासी मात्र ब्राह्मण ही होता है .......और तुम ब्राह्मण नही हो  ।

पर भगवन् !  मन्त्र देकर मुझे  अपना शिष्य तो स्वीकार कर ही लो ।

उस अनपढ़ गंवार व्यक्ति नें  फिर प्रार्थना की .....।

पढ़ा लिखा होता  तो एक बार मना कर दिया .....चला ही जाता ...।.

पर  जिद्दी था .........मुझे गुरु बनाना है  तो मात्र शंकराचार्य जी को ही ।

पर शंकराचार्य  दीक्षा दे नही रहे थे इसे   ।

ये भी कहाँ माननें वाला था .............इसे तो मन्त्र चाहिए था .......ताकि वो जप करे ............पर मन्त्र तो तब मिले ना .....जब  शंकराचार्य जी शिष्य स्वीकार करें  !

हद्द है .....ये तो पीछे ही पड़ गया भाई !  

एक दिन झुंझला गए ........आचार्य शंकर ।

जब मैने मना कर दिया  नही दूँगा  मन्त्र....नही दूँगा दीक्षा ...तो जाओ ।

अजीब भक्त है ..........फिर चरण पकड़ लिए .............नही भगवन् ! ऐसे मत कीजिये ............मै बहुत आस लेकर आया हूँ आपके पास ........।

पर  भैया !    तुम   पढ़े लिखे हो नही ............मेरे इस वेदांत सिद्धांत को क्या समझोगे ?    और वैसे भी  ब्राह्मण के अलावा मै किसी को मन्त्र देता नही हूँ .......।

तो क्या ब्राह्मण को ही ब्रह्म नें बनाया है ......हम क्या घास कूड़ा हैं ।

अब इसका जबाब कोई क्या देगा  ..........?

आचार्य अब कुछ नही कहते थे  ।

एक दिन  तो  ये  प्रातः शौच के लिए गए थे .......आचार्य ........ये व्यक्ति वहीं पहुँच गया .............गुरु जी ! मन्त्र दीजिये  ।

गुस्सा आगया   जो स्वाभाविक था .....................और गुस्से में  शंकराचार्य जी के मुँह से निकला ......"मार कमंडल माथा फूटे"....

वो तो नाचनें लगा ..............आहा !    इसी मुहूर्त की प्रतीक्षा में थे मेरे गुरुदेव भगवान ........आहा !  मुझे मन्त्र दे दिया ........

"मार कमण्डल माथा फूटे"...........

वो  तो इसी को मन्त्र मानकर  ...........चला गया .....और  बड़ी श्रद्धा से इसी मन्त्र का जाप करनें लगा था  ।

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देखो ! महात्मा जी  तुम्हारे सदगुरु देव भगवान पधारे हैं ..........

एक व्यक्ति नें कहा   ।

उसनें आँखें खोलीं .................उसकी आँखों से अश्रु गिरनें लगे  ।

वो  पहले तो समझ नही पाया .....कि ये सपना है ....या  सत्य ?

फिर जब   उसनें देखा  ये तो सत्य है ..........मेरे सामनें ही    मेरे सदगुरु भगवान खड़े हैं ............वो  साष्टांग लेट गया .............उसकी साध आज पूरी होगयी ............उसके नेत्रों से जो अश्रु बह रहे थे .......उससे धरती भींग रही थी .........।

शंकराचार्य जी के सन्यासी शिष्यों नें  आचार्य चरण से ही पूछा ......

आपनें  कौन सा ऐसा मन्त्र दिया है  इसे .............जिस स्थिति को पानें के लिए  हमें कितनी तपस्या ....कितना वैराग्य प्रकट करना पड़ा .....चिन्तन मनन करना पड़ा .....कर रहे हैं ......पर इस अनपढ़ गंवार को ..........सहजता में ही  वह उच्च स्थिति मिल गयी .........कैसे ?

शंकराचार्य जी हँसे ....उपनिषद् का ये सूत्र क्यों भूल जाते हो तुम लोग !

"श्रद्धया सत्य माप्यते".............श्रद्धा वान व्यक्ति को ही   सत्य प्राप्त होता है ।     आचार्य सही कह रहे थे  ।

अच्छा बताओ !  मैने तुम्हे कौन सा मन्त्र दिया था  ? 

आचार्य शंकर नें उसी  भोले  महात्मा से ही पूछा ।

"मार कमंडल माथा फूटे"......उस भोले महात्मा नें   मासूमियत में कहा ।

शंकराचार्य जी हँसे .....खूब हँसे ..............

देखो !  हुआ ये था  कि ....ये व्यक्ति  मेरे पीछे पड़ गया था ....मन्त्र दो ...मन्त्र दो ..........और यहाँ तक कि ...........मै जब शौच करनें जाता था  तब भी ये मेरे पीछे ही पड़ा रहता .......

एक दिन मैने गुस्से में  इससे कह दिया ....."मार कमण्डल माथा फूटे"...।

बस इसनें  इसे ही मन्त्र समझ लिया  ।

पर भगवन् !     सही मन्त्र  के जाप से हमें वो सिद्धि नही मिली ......जो इसको  मिल गयी .......क्यों ?   शिष्यों नें पूछा  ।

क्यों की इसके मन में  मन्त्र के प्रति अपार श्रद्धा थी .....मन्त्र के प्रति और मन्त्र दाता गुरु के प्रति .........उस श्रद्धा नें काम किया है ।

आचार्य शंकर नें   श्रद्धा की ताकत दिखाई सबको ।

श्रद्धा बहुत बड़ी वस्तु है ..................ये समझना बहुत आवश्यक है ।

तुम को ब्रह्म बोध हो जाएगा ........अगर गुरु और गुरु द्वारा बोले गए वाक्य  पर दृढ  श्रद्धा हो जाए तो ..........।

उस गांव के अपनें शिष्य को .........पञ्चाक्षरी मन्त्र देकर  कृतार्थ करते हुए  आचार्य आगे की ओर बढ़ गए थे  ।

शेष   प्रसंग कल ......

Harisharan

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