*🌸 सत्संग क्यों जरूरी है ? 🌸🙏🏻*

* बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

भावार्थ:-सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥

यह जानने से पहले यह जान लेते है कि सत्संग होता क्या है। किसी भी प्रकार से ईश्वर की भक्ति करना सत्संग ही है। भजन-कीर्तन करना ,ईशवर की भक्ति करना ,अथवा अपने साथियो के साथ बैठकर अगर हम ईश्वर के बारे में बाते भी कर ले तो वो भी सत्संग ही है। किसी भी प्रकार से ईश्वर के गुणों के व्याख्यान को ही सत्संग कहते है।

बहुत से लोग सत्संगी होते है और बहुत से लोग सत्संगी नहीं भी होते। जिन लोगो को सत्संग पसंद नहीं होता वह अक्सर दूसरों को भी कहते है कि सत्संग करने से क्या होगा। कुछ नास्तिक लोग यह भी कह देते है कि सत्संग करने से क्या होता है ?

जीवन का आनंद लो ,इसके बाद क्या होगा कौन जाने ? मृत्यु तो होनी ही है, चाहे सत्संग करो और चाहे न भी करो। इसलिए जीवन में मौज करो। जो भी सत्संग करते है अक्सर वो ऐसे कुछ न कुछ लोगो से जरूर मिले होंगे जो बस ऐसे ही बे-मतलब बोलते रहेंगे। जो सत्संगी होते है वह अक्सर ऐसे लोगों से दूर ही रहते है।

तो अब एक जानते है कि सत्संग का क्या महत्व है----

एक बार एक युवक सत्संग में ही लीन था। हर समय प्रभु का नाम जप्त रहता था। पर एक दिन उसके मन में एक विकृत भाव पैदा हो गया कि मृत्यु तो सभी की ही आनी है चाहे सत्संग करें और चाहे मौज-मस्ती करें। लेकिन फिरसे उसके मन में सतसंग के ख्याल आ जाते। वो इसी दुविधा में फंसा हुआ था कि सत्संग का क्या महत्व है।

एक बार उसकी मुलाक़ात एक वृद्ध साधु बाबा से हुई। उस युवक ने साधु बाबा से भी यही प्रश्न पूछा कि, "बाबा जी ,मृत्यु तो सभी की ही होनी है चाहे कोई सत्संग करें और चाहे न करें तो सत्संग करने का क्या महत्व है।"

साधु बाबा समझाने लगे ,"बेटा ,जब शेरनी अपने शिकार को पकड़ती है तो दांतों से पकड़कर उसे मारकर खा जाती है और जब वही शेरनी उन्ही दांतों से अपने बच्चे को पकड़ती है तो उसे वह बहुत ही प्यार से नाजुक तरीके से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देती है। शेरनी भी वही है ,दांत भी वही है और मुंह भी वही है। बस प्रेम का फर्क है। "

साधु बाबा आगे कहने लगे ,"ठीक इसी प्रकार जो सत्संग करते है , प्रभु का नाम लेते है ,प्रभु को हर समय याद करते है ,उनका प्रभु को भी ख्याल रहता है और मृत्यु आने पर प्रभु उन्हें अपने धाम में जगह देते है और जन्मों-जन्मों के बंधन से मुक्त कर देते है और जो सत्संग नहीं करते ,प्रभु का नाम नहीं जपते वह 84 के चक्कर में चक्कर काटते रहते है और काटते ही रहते है। "

अब युवक सत्संग के महत्व को समझ गया था और फिर से सच्चे मन से सत्संग में ही लीन रहने लग गया।

इसलिए जो भी सत्संग करते है ,प्रभु का नाम लेते है वह प्रभु के धाम में ही जगह प्राप्त करते है और पाप-कर्मो से मुक्ति पाते है। तो हमेशा प्रभु का नाम जपते रहिये। अगर आपने अभी तक प्रभु का नाम जपना शुरू नहीं किया तो अभी से कर दीजिये क्यूंकि अभी भी देर नहीं हुई।

*साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।)

(जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥

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