श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 6


( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 6 !!

बलमसि बलं मयि धेहि तेजोसि तेजो मयि धेहि ...
( छान्दोग्योपनिषद् )

( साधकों !     शाश्वत नें  ये  "श्रीशंकराचार्य चरित्र" जब लिखा है ....तब वह ऋषिकेश में रहता था .........शिवानन्द आश्रम में .........रामझूला के  उस पार  "शिवानन्द कुटी" है .........जहाँ पूर्व में  स्वामी शिवानन्द जी रहते थे .....शाश्वत वहीं  वेदान्त की क्लास में जाता था .........अनेक विदेशी लोग उस क्लासेज में आते थे  ।

शाश्वत नें लिखा है .......तब से ही  मेरे मन में वेदान्त के प्रति निष्ठा बढ़ी थी ......वहीं  मैने  श्री शंकराचार्य जी को पढ़ना शुरू किया था .......आचार्य शंकर द्वारा रचित  विवेक चूड़ामणि ......मैने वहीं पढ़ी ...मै तब से   श्री श्री शंकराचार्य जी से अत्यंत प्रभावित हो गया था ।

शाश्वत लिखता है ...........मै सुबह  के 5 बजे उस वेदान्त के क्लास में जाता था .........फिर   दोपहर के समय   गंगा जी के किनारे बैठकर  "श्री शंकराचार्य चरित्र" को लिखता था ..........मुझे  चरित्र को लिखते हुए .....ऐसा लगता कि ........श्री भगवत्पाद  शंकराचार्य जी  ही  मुझे तत्व ज्ञान का उपदेश कर रहे हैं ............।

शाश्वत के द्वारा लिखी इस बात का उल्लेख करना  मुझे यहाँ सही लग रहा है ...........शाश्वत लिखता है ............एक दिन  मेरा आत्मवल अत्यंत न्यून हो गया था .......आत्मवल नामकी कोई चीज भी  है .......मुझे नही लगता था ।

पता नही क्यों ?   

उस दिन मै   गीता भवन से  रोटी खा कर ...........गंगा जी के किनारे आकर बैठ गया था ..............आँखें मेरी बन्द हो गयीं थीं ......सहज में ही .....इधर उधर देखनें की मेरी कोई इच्छा भी नही थी  ।

तब मुझे लगा  की  दण्ड धारण किये हुये  एक अत्यंत तेज़वान युवा सन्यासी  गंगा जी के किनारे ही बैठे हैं.......चारों ओर से उनकी जयजयकार हो रही है ..........यही थे  भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी ।

मैने उनसे प्रश्न किया था ...........( शाश्वत लिखता है )......

हे भगवत्पाद ! मुझ में आत्मवल की बहुत कमी है .........मै क्या करूँ ?

उनकी वाणी  गम्भीर और  शान्त थी ............

ऐसा लग रहा था जैसे  कोई दैवीय शक्ति ही बोल रही है ..........

वत्स !  आत्मवल में जो कमी दीख रही है  .......वो अपनें स्वरूप का ज्ञान न होनें के कारण है ............तुम कौन हो ?

"कोहम्"  

कुछ देर के लिए मौन छा गया वहाँ  ।

फिर भगवान शंकराचार्य जी की वाणी गूँजी .......

वत्स !    स्वप्न में  तुम नाना नदी , नाना पर्वत, नाना चाँद सितारे बनाते रहते हो .......इसके लिए कहीं जाना नही होता तुम्हे , तुम वहीं हो.....बस भाव से भावान्तर होता है ..........।

ऐसे ही   कल तक जो गृहस्थ था  वह आज अपनें को सन्यासी मान लेता है ..........तो क्या फर्क हुआ ......क्या गृहस्थ में से उठकर हमारी चित्तवृत्ति सन्यासी के शरीर में प्रवेश कर गयी  ?     नही  ऐसा नही हुआ ......बस हुआ ये कि  एक भाव से उठकर दूसरे भाव में चले गए ।

पहले गृहस्थ भाव था  अब  सन्यास का भाव है ..........बस ऐसे ही भाव का भावान्तर होना ही  पुर्नजन्म है ...........आत्मा तो कहीं जाती आती नही है .............वो तो जहाँ है  वहीं  है  ।

वत्स ! जैसे कुमारी कन्या  विवाह होनें के बाद अपनें आपको पत्नी मान लेती है ............पहले वो कुँवारी मानती थी .........।

तो क्या फर्क पड़ा ?  पहले उसमें कुँवारी का भाव था  अब पत्नी का भाव हो गया है ........इसी प्रकार  मै निर्बल हूँ ......मै शक्तिशाली हूँ .......मुझ में बल ज्यादा है ....मुझ में बल कम है .....ये भी तो एक भाव ही है ना !

और भाव तो बदलते रहते हैं .............पर  आत्मा तो न निर्बल है ....न सबल ...........और तुम वही आत्मा हो .........तुम न निर्बल हो ....न सबल ....एक समान हो .......भावों की  तरह बदलनें वाले नही हो .....यही है तुम्हारा स्वरूप ...........पर  अपनें इस आत्म स्वरूप को न जाननें के कारण ही तुम दुःखी और सुखी अनुभव करते हो ।

अपनें मूल स्वरूप में स्थित हो जाओ .............तुम स्वरूप से भटक गए हो ....इसलिये तुम्हे लगता है ..........मुझ में आत्मवल की कमी है .।

अरे !  तुम स्वयम् आत्मा हो ....ब्रह्म हो ...........अपनें आपको पहचानों ....इन बदलनें वाले भावों से  विचलित मत हो .........अपनें आपको पहचानों ........तुम शरीर नही हो .....तुम मन नही हो ........तुम बुद्धि नही हो.....तुम ब्रह्म हो .....तुम ब्रह्म हो .....तुम ब्रह्म हो  ।

तभी मेरी आँखें खुल गयीं ...............मेरे सामनें गंगा जी लहरा रही थीं ................उनकी शीतल हवा मुझे छू रही थी  ।

मुझ में आत्मबल  एकाएक बढ़ गया था ..........मै ही आस्तित्व हूँ !

शाश्वत  ने  केवलाद्वैत को अनुभव किया था ...........और लिखा है .......ये मुझे भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी के प्रसाद से मिला ।

इस घटना के बाद  शाश्वत नें   इस प्रसंग को लिखा...........

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कल से आगे का प्रसंग ............

भगवान श्री शंकराचार्य जी   दिग्विजय करते हुए ........अब पहुँचे थे आसाम .............वहाँ स्थिति देखि  आचार्य शंकर नें.....  तांत्रिकों का एक प्रकार से आतंक सा ही छाया था .....पशु बली ही क्यों  नर बली देनें में भी  कहाँ हिचकिचाते थे ......ये  कापालिक  ।

वहाँ की स्थिति देखकर  आचार्य का हृदय द्रवित हो गया .......

बौद्ध धर्म का क्या दोष  ............जब  अपनें ही  घर में  ऐसे लोग भरे पड़े हैं ..............इन्हीं कापालिक , तांत्रिकों के कारण ही ............सनातन धर्म  से   हिंदुओं का पलायन हो रहा था ...........।

बौद्ध लोग शान्त थे ...........वो ध्यान  इत्यादि में  अपना समय बिताते थे ............पर  हमारे यहाँ   पुजारी वाममार्गीय था ..........उसकी आँखें लाल लाल  रहती थीं .........भगवती के प्रसाद के नाम पर माँसाहार से लेकर मदिरा पान तक की छूट थी ..........वासना का काम  भी वाम मार्ग के  तन्त्र के नाम पर ...............खुले आम किया जाता था  ।

इन सबको देखकर   आसाम प्रदेश में प्रवेश करते ही .........शास्त्रार्थ की चुनौती शंकराचार्य जी नें दी  ।

बड़े बड़े कापालिक आगये .............बड़े बड़े  तान्त्रिक आगये .........और  उस क्षेत्र में  विश्व् प्रसिद्ध  शास्त्रार्थ हुआ  ।

स्वाभाविक था ..............आचार्य के तर्क के आगे  कौन टिका है .......सरस्वती जिनकी जिव्हा में नृत्य करती थी ..........।

बड़े बड़े  शाक्त  तान्त्रिकों को   अपनें सामनें झुकाया आचार्य नें  ।

एक  तो   कापालिकों का  गुरु था......जिसका नाम था    "उग्र भैरव"।

ये भी शिष्य बना ...........आचार्य नें करुणा करके इसे अपना शिष्य बना लिया ......और नित्य उपदेश करते थे  ।

उग्र भैरव .......शिष्य तो बन गया था  आचार्य का .........पर   उसके मन में  जो शाक्त तांत्रिक के संस्कार थे वो अभी भी शेष थे  ।

एक दिन  वो  गया था नदी में  स्नान करनें के लिए ..........

तब उसको,  उसका   पूर्वपरिचित  एक तांत्रिक मिला ...........

उसनें  उग्र भैरव से कहा .......तुम कहाँ  फंस गए हो   वेदान्त के चक्कर में ..........बेकार है ये वेदान्त .............बेकार है ये अद्वैत मत ......छोडो इसे ........और वापस आजाओ  अपनें ही मार्ग में ।

पर उग्र भैरव नें कहा  .............नही ..............मै  अपनें इस अद्वैत मार्ग को त्याग नही सकता .........

देख लो !       हे उग्र भैरव !      कल  रात्रि को ..............विशेष मुहूर्त है ....उस समय अगर तुम भगवती को  .....शंकराचार्य  का ही मस्तक काट कर चढ़ा दोगे ना ......तो तुम्हे वो सिद्धि प्राप्त होगी .......जो बड़ो बड़ो को भी नही मिली .............।

क्यों की आचार्य ब्राह्मण हैं ...और उसपर भी सात्विक मति से सम्पन्न हैं .....ऐसे की बली अगर चढ़ाई जाए तो  !

नही ..........मै ऐसा काम नही कर सकता ......वो  मेरे गुरु हैं  ।

ठीक है देख लेना .............मेरा काम था तुम्हे   समझाना ।

तभी  उसी समय वहाँ से जा रहे थे .........आचार्य शंकर के सन्यासी शिष्य .......जो  निकट के शिष्य थे .........पद्माचार्य  ।

उन्होंने  उग्र भैरव और  इस दूसरे कापालिक को  मिले हुए जब देखा ....और  पद्माचार्य को देखते ही  ये दोनों ही असहज से हो गए थे ....ये देखा ..........तब  पद्माचार्य को सन्देह तो हो ही गया था  ।

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रात्रि का समय हुआ ...................

आचार्य शंकर ध्यान मुद्रा में बैठे हुए  हैं  ।

उग्र भैरव आया .........और अकेले में बैठे आचार्य को जब देखा ....तो चरण वन्दन करनें लगा .............।

क्या बात है  वत्स !      तुम  इतनी रात्रि गए  हुए  मेरे पास आये हो ..कोई बात है क्या  ?

हे गुरुदेव !      आपके लिए शरीर मिथ्या है ....है ना ?

हाँ ......मिथ्या है .............मुस्कुराते हुए आचार्य शंकर नें कहा ।

पर  ये आपका शरीर मुझे मिल जाएगा  ना ....तो मेरा बहुत कुछ सिद्ध हो जाएगा ...भगवन् !     उग्र भैरव नें  प्रार्थना करते हुए कहा ।

मेरे इस मिथ्या देह से भला तुम्हारा क्या सिद्ध हो सकता है  ?

बस एक घड़ी शेष है ........मुहूर्त में ........उस समय  मै आपके शरीर की बली चढ़ाना चाहता हूँ .........भगवती  मुझ से बहुत प्रसन्न होगी ।

उग्र भैरव    नीचता में उतर गया था ।

पर आचार्य शंकर तो महान करुणावान थे  ........

ओह ! मेरे शरीर को पाकर भगवती प्रसन्न होंगीं ?   

नेत्रों से अश्रु बह चले  ये सोचते ही आचार्य के  ।

सुनो !  हे उग्र भैरव !     इस समय मेरे पास कोई है भी नही .......तुम एक काम करो .........मै आँखें बन्द करके बैठता हूँ ............तुम  खड्ग निकालो ....और मेरे मस्तक को काट कर  भगवती में चढ़ा दो ......जाओ तुम्हारी इच्छा पूरी हो .............इतना कहकर  आँखें बन्दकर आचार्य शंकर बैठ गए .....।

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आचार्य शंकर के प्रिय शिष्य ......पद्माचार्य ..........जिनको सन्देह हो गया था की  ये उग्र भैरव  आचार्य श्री   का   कुछ तो अनिष्ट करेगा ही ।

नरसिंह भगवान  की उपासना  ये पद्माचार्य करते थे .............आज रात्रि को  पद्माचार्य नें   नरसिंह भगवान का आव्हान किया ..........और उनसे प्रार्थना की ........हे नृसिंह प्रभु !   मेरे  सदगुरु भगवान के शरीर की रक्षा करना ............मुझे  भान करा देना   उस समय .........हे नाथ !

पद्माचार्य नें  प्रार्थना की थी ....और नृसिंह स्तोत्र का गान किया था ।

तभी ...............हृदयाकाश में   पद्माचार्य के  नृसिंह भगवान प्रकट हो गए .......जाओ !  पद्माचार्य !     जाओ !  वो उग्र भैरव  तुम्हारे सदगुरु के देह को हानि पहुंचाना चाहता है ......जाओ !

पद्माचार्य  उठे ..................नृसिंह प्रभु का आवेश आगया था इन्हें ।

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समय देख रहा था बार बार   वो उग्र भैरव ..........ताकि उसी मुर्हत में  मै आचार्य शंकर की बली चढाउँ .........शंकराचार्य जी तो   ध्यानस्थ हो गए थे ।

तभी  मुहूर्त बना  उग्र भैरव का .........उसनें चमकती तलवार उठाई .......और   दौड़ा  आचार्य के निकट ..........

उधर से पद्माचार्य दौड़े .................

लाल आँखें हो गयीं हैं पद्माचार्य की ..............

हुंकार ऐसे दे रहे थे जैसे कोई सिंह हो क्या !

दौड़ा   आचार्य शंकर के पास उग्र भैरव ..........मारनें के लिए तैयार ही था  कि ......पद्माचार्य नें   उग्र भैरव के हाथों से   तलवार खींची ......और उसी का मस्तक काट कर  धरती में फेंक दिया  ।

और अत्यंत क्रोध में भरकर ...........हुंकारी दी थी  ।

पर  शान्त भाव से ध्यान में बैठे रहे थे   शंकराचार्य जी ........

उनको कोई मतलब नही था .............शरीर रहे या जाए .........

उनके लिए  ये शरीर मिथ्या था........मात्र कहनें के लिए नही......।

ऐसे देहातीत महापुरुष   श्री श्री शंकराचार्य जी के चरणों में  मै शाश्वत प्रणाम करता हूँ  ।

आगे का प्रसंग कल .............

Harisharan

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