श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 5

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 5 !!

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढ़ मतेः....
( श्री शंकराचार्य )

(  साधकों !    शाश्वत की टिप्पणी दृष्टव्य है  -

"  श्री श्री शंकराचार्य जी अद्वैत वादी हैं ..........ज्ञान का मार्ग ही मुक्ति दिला सकता है ......ब्रह्मसूत्र पर इन्होनें जो भाष्य लिखा है ......वो  विद्वत् समाज में  सम्माननीय है ।

प्रस्थान त्रयी के ऊपर  इन्होनें जो भाष्य किया.....वो  अद्वैतपरक ही है ।

ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है .......बाकी जो भास रहा है ...इस जगत में दिखाई दे रहा है  ......वो सब मिथ्या है  ....ऐसे मिथ्या है ....जैसे आकाश में फूल दिखाई दे ...........पर है नही ......ऐसे मिथ्या है  जैसे  रेगिस्तान में  जल दिखाई दे .....पर है नही   ।

"भारत के महान दार्शनिक"  आचार्य शंकर को कहूँ   तो  यह उचित ही होगा ..........शंकराचार्य जी के बराबर कौन मेधावी हुआ .........इस  युवा सन्यासी के आगे कौन टिक पाया .........!

अपनें सनातन धर्म के प्रति  इनका  असीम प्रेम था ............उस समय की जरूरत थी .........कि   दार्शनिक भाषा का प्रयोग करना पड़ा  शंकराचार्य जी को .............उनको  सब पता था ..........कि तर्क से कुछ होनें वाला नही  है .......उन्हें सब पता था .......की बहस .......शास्त्रार्थ ..वाद विवाद से कोई   आध्यात्मिक लाभ मिलनें वाला नही है  ।

पर  क्या  करें   शंकराचार्य ?    उनके सामनें जो खड़ा था  बौद्धों  का समुदाय .....जो  हमारी  सनातन संस्कृति को ही तोड़नें में लग गया था।

वेदों को नही मानना ............उपनिषदों  को नकार देना ............।

इन बौद्धों  को   हरानें के लिए .......और अपनी  सनातन धर्म की पुनर्स्थापना    करनें के लिए ........श्री शंकराचार्य जी को  ये सब  करना पड़ा ............पर हृदय की बात  क्या थी !    सच्चाई क्या थी  !

क्या तर्क से   "उसकी"   प्राप्ति सम्भव है ?  

ना !    "उसे" पानें के लिए तो   उसका ही  भजन करना पड़ेगा ............

किसका भजन   ?   

गोविन्द का भजन ............ना !    इन शास्त्रार्थों से  कुछ सधनें वाला नही है  ..........इन तर्कों से  कुछ मिलनें वाला नही है ...........वाद विवादों को बढ़ानें से  अन्तःकरण और दूषित होगा ...........।

इसलिये  भजन करो .......गोविन्द का भजन करो  ।

शाश्वत लिखता है  -  ये बात  शंकराचार्य के हृदय में उछलती   करुणा  से फूटी  है .......हाँ .....कितनें प्रेम से कहा है ......अरे ! मूढ़ !    अरे ! मूढ़मति !

गोविन्द का भजन कर .........गोविन्द को भज  ।  )

चलिये  ये करुणा कैसे फूटी .........शंकराचार्य जी के जीवन में ऐसा क्या हुआ  .........जिसके कारण   अद्वैत वादी को भी कहना पड़ा ......"गोविन्द" को बिना भजे    कुछ नही होगा  ......पढ़िये -

*******************************************************


कल से  आगे का प्रसंग..............

जगद्गुरु श्री शंकराचार्य   जोशी मठ से  आगे पहाड़ी के नीचे उतर रहे थे ।

उनके साथ   कई सन्यासी शिष्य  थे .........जो   पञ्चाक्षरी मन्त्र  का जाप करते हुए  चल रहे थे  .......तभी  -

एक  70 वर्ष का  बूढ़ा  .............पीपल के पेड़ के नीचे बैठा है ........और  बड़ी तन्मयता से ......व्याकरण के धातु - सूत्र रट रहा है  ।

शंकराचार्य जी नें सुना  ।

व्याकरण का एक सूत्र है ........."डुकृञ करणे"...इस व्याकरण के सूत्र को रटे जा रहा था.......रुक गए  आचार्य शंकर  ।

देखते रहे ...........70 वर्ष का बूढ़ा है .............और  अब इस उम्र में  आकर  व्याकरण के सूत्र रट रहा है ! ! ! .......

पर क्यों?       इधर उधर देखा  शंकराचार्य जी नें  ।

सामनें  एक ब्राह्मण खड़ा था .......वो मुस्कुरा रहा था  ।

बुलाया उस ब्राह्मण को   शंकराचार्य जी नें ................और  उस व्याकरण के  सूत्र  रट रहे  व्यक्ति के बारे में जानकारी ली  ।

और जब मूल कारण का पता चला ...........तब  तो  शंकराचार्य जी का हृदय पिघल गया........आँखें सजल हो गयीं ..........

और ये  पद  फूट गया हृदय से ..................

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्  गोविन्दम् भज मूढ़ मते ।

*******************************************************

सुनो !  सुनो  पण्डित  सुनो  !

उस वृद्ध ब्राह्मण नें   रास्ते चलते  हुए   युवा ब्राह्मण को रोका था  ।

हाँ .........बाबू जी !  कैसे हैं आप  ?   अब आपकी तबियत कैसी है ?

पैर छूए थे  उस युवा पण्डित नें   ......उन वृद्ध के  ।

कहाँ जा रहा है  ?     

बस ............मेरा काम तो यही है ............उस लड़के की शादी इस लड़की के साथ .........।  उस युवा ब्राह्मण नें  वृद्ध से कहा  ।

सुन !  मेरे लिए भी कोई बता ना !  सुन्दर सी हो  ।

अरे ! बाबा !  मजाक करनें को मै ही मिला हूँ आपको  !  

नही .......मै मजाक नही कर रहा .......मै सच कह रहा हूँ  ।

पर    ....................युवा ब्राह्मण अपनी हँसी रोके हुए है ........

"मुँह में दाँत नही ....पेट में आँत नही"............मन ही मन  वो युवा पण्डित खूब हँस रहा था  ।

सुन ना !  कोई फोटो हो तो दिखा .......मेरे लायक  ।

अरे ! बाबा !     एक दिक्कत आएगी .............युवा ब्राह्मण नें   बात बतानी शुरू की ...........।

एक बहुत सुन्दरी है ...............उसको  किसी भी उम्र  का लड़का मिले चलेगा .........पर  वैयाकरणी होना चाहिए  ।

यानि  व्याकरण का ज्ञान हो ........जैसे विद्योत्तमा, कालिदास की पत्नी ..... की शर्त थी ना ..........किसी विद्वान् से ही शादी करूंगी .......बस ऐसे ही  ।

अब बाबा ! आपको पता ही है ..........सुन्दरी ....उसमें भी ब्राह्मण ....... उसमें भी पढ़ी लिखी .......ऐसे  लोगों में सनक तो होती ही है ।

अब बाबा !     तुम इस उम्र में क्या व्याकरण पढ़ोगे  ?

ए  तू मुझे क्या समझता है........मेरी बुद्धि बहुत तेज़ है ............देख !  मुझे केवल एक महिनें का समय दे .........एक महिनें में ही  मै तुझे  अच्छा ख़ासा विद्वान् बन के दिखा दूँगा ...........वृद्ध ब्राह्मण नें कहा ।

अच्छा बाबा !  तो आज से ही पढ़ना शुरू कर दो ......मै उसको  एक महिनें के लिए रोक देता हूँ .............ये कहते हुए वो युवा हँसते हुए .....आगे चला गया  ।

******************************************************

शंकराचार्य जी देख रहे हैं .................उस वृद्ध ब्राह्मण को  ।

रटे जा रहा है ......"डुकृञ करणे"....................और किसके लिए ?   शादी के लिये  ?    

सजल नेत्रों से गा उठे  शंकराचार्य ..............

भज गोविन्दम् !    भज गोविन्दम् !

अरे !  ब्राह्मण !   ये तू क्या रट रहा है ........इसके रटनें से कुछ नही होगा .............जब मौत आएगी ना ........तो ये व्याकरण का सूत्र तेरी रक्षा नही करेगा ............ये "डुकृञ करणे" तेरी रक्षा नही करेगा .........।

हे ब्राह्मण !   तू   अपना कल्याण चाहता है .....तो  गोविन्द को भज ।

गोविन्द का भजन कर ................।

नेत्रों से झरझर आँसू बह रहे हैं ........श्री शंकराचार्य जी के  ।

हे ब्राह्मण ! तेरे अंग शिथिल हो रहे हैं .........देख !    तेरे सिर के बाल सफेद हो गए हैं .............मुँह के सारे दाँत टूटकर गिर गए हैं  ।

तेरे हाथ में लगी लाठी  काँप रही है .............फिर भी तेरे मन  से आशा और  तृष्णा  नही जा रही  !

ओह !    कैसी विचित्र माया है   ईश्वर की  ...........।

अरे ! मूढ़ !  अरे ! मूढ़ मते !      छोड़ ये सब ...............कुछ नही रखा इन सबमें ........गोविन्द को  देख !  तेरे सामनें खड़े हैं ..........अपनी दोनों भुजाएं  फैलाकर तुझे बुला रहे हैं ...........मूढ़ बुद्धि वाले !    कमसे कम उस तरफ देख तो !    

तू जिसको भज रहा है ना .......उन्हें  तुझ से कोई मतलब नही है ।

जानें वालों  को यहाँ कोई पूछता ?  .....आनें वालो की पूछ है यहाँ .......

तू जानें वाला है ......तू जा रहा है .............फिर भी  आशा  बनाये है  कि ये लोग  मुझे देखें ............क्यों देखें तेरी ओर  ?  

देख उस ओर,  देख !     वो गोविन्द  तुझे बुला रहा है ............

उसी का भजन कर  .....उसी में तेरा भला है   ।

इतना कहकर  शंकराचार्य जी की वाणी करुणा से भर गयी ............वो कुछ  आगे  बोल नही पाये  ।

वो वृद्ध  सुनता रहा ................आचार्य शंकर का "ओरा"  इतना तेज़ था कि ..........वो वृद्ध  उठा ..........और    दौड़ पड़ा  आचार्य श्री के चरणों में .................और  चरणों में गिरकर वो  भी बहुत रोया ।

आचार्य शंकर नें   उसे  छूआ .......उसे उठाया .......अपनें हृदय से लगाया  ।  

अब  ये वृद्ध ब्राह्मण भी  समझ गया था ......कि सार किसमें है ?

गोविन्द को भजनें में ................उसका भजन करनें में  ......

भजन का मतलब ही है .......हम तेरे  हो गए ..........अब मै भी नही हूँ ......मै यन्त्र हूँ .....तुम यन्त्री  हो .............।

नायमात्मा प्रवचनेंन लभ्यो ................उसको प्राप्त करना है ....तो बोलनें से वो प्राप्त नही होगा .............क्यों की वो तो शब्दातीत है  ।

उसको प्राप्त करना है ....तो   भजन से ही होगा .........क्यों की भजन में  "मै" मिट जाता है .....रह जाता है  तू  ।

ब्राह्मण नाच उठा ...............भजन से अद्वैत घट जाता है  ।

आचार्य शंकर ने   भजन का उपदेश करते हुए   उस वृद्ध ब्राह्मण को ...... भगवतचरणारविंद में  लगाकर आगे बढ़ चले थे  ।

वो ब्राह्मण तो बस ..........'भज गोविन्द भज गोविन्दम्"  कहकर नाचता ही रहा .......जब तक उसके देह में प्राण थे ।

और कहते हैं ...............अंतिम समय में   "गोविन्द" उसके पास आये थे उसे दर्शन देनें के लिए   ।.......ये तो होना ही था .......आचार्य शंकर जिसे उपदेश करें ......उसे भला भगवत्प्राप्ति नही होगी  !

********************************************************

हे भगवन् !     ये आशा   मरती नही है......... 

उस वृद्ध ब्राह्मण को मैने देखा  .........वृद्ध होकर भी .....? 

70 वर्ष की अवस्था में भी ..........विवाह करनें की कामना !

आचार्य  शंकर के ही एक शिष्य नें    ये चर्चा छेड़ दी  थी ........।

हाँ .........युवा सन्यासी को  ये ध्यान रखना चाहिए कि ..........युवावस्था में संयमित रहना .......सावधान रहना .......ये कोई  बड़ी बात नही है ...।

पर  सावधान रहना   "वृद्धावस्था" में  ।

आचार्य शंकर नें   अपनें शिष्यों को समझाया ।

क्यों की  हे शिष्यों !   एक जोश होता है युवावस्था में ...जोश में व्यक्ति संयमित रह लेता है .............पर  वृद्धावस्था में  ये जोश रहता नही है ......तब  अच्छे अच्छों को  वृद्धावस्था में ही  बिगड़ते देखा है  ।

इस मन का कभी भरोसा  मत करना ..............इसलिये सावधान ।

सदैव जाग्रत रहो .........सदैव  सावधान रहो .........होश में रहो ।

इतना कहकर  आचार्य आगे के लिए चल दिए थे   ।

महान भक्त श्री शंकराचार्य जी के चरणों में  "मै शाश्वत" प्रणाम करता हूँ ।

आगे का प्रसंग कल ............

Harisharan

Post a Comment

0 Comments