!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 3 !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 3 !!

अपराधसहस्त्रभाजनं  पतितं भीम भवार्णवोदरे..
अगतिं शरणागतं हरे  कृपया केवलमात्मसात्कुरु ।
( श्री यामुनाचार्य जी )

( साधकों !  "धर्म और सम्प्रदाय" के  नाम पर एक टिप्पणी लिखता  है ......शाश्वत ।

गम्भीर टिप्पणी है ............हम लोगों को जानना आवश्यक है ।

लिखता है  -

"धर्म उसे कहते हैं .......जिसनें  हमें धारण किया हुआ है ..........

इस लोक में  हम सुखी रहें ....और  परलोक को भी जो सम्भाले ......उसे धर्म कहते हैं .......यानि   हमारे लोक परलोक दोनों को जो धारण किये हुए है  उसे कहते हैं  "धर्म"  ।

फिर  शाश्वत लिखता है -

अग्नि  में गर्मी है ..........यही गर्मी तो अग्नि का धर्म है .......यानि स्वभाव है.........अगर आग में  गर्मी नही होगी  तो क्या आप उसे आग या अग्नि कहेंगें ?    

ऐसे ही मनुष्य का स्वभाव है ...सत्य,  आनन्द,  प्रेम, करुणा....

अगर ये नही होंगें  तो क्या आप    मनुष्य को ,   मनुष्य कहेंगें ?

इसे ही धर्म कहा गया है.......और  इस तरह से धर्म  अनेक नही हो सकते ....एक ही  है ......क्यों की धर्म भूमि है........पर सम्प्रदाय क्या है  ?    सम्प्रदाय है  मार्ग .....मार्ग अनेक हो सकते हैं ...पर  धरती तो एक ही है ।

शैव ( भगवान शंकर के भक्त)  शाक्त  ( देवी के भक्त )  सौर ( सूर्य इत्यादि देवों के भक्त ) गणपत्य ( गणेश इत्यादि के भक्त ) वैष्णव ( विष्णु, नारायण, राम, कृष्ण  इनके भक्त )   बौद्ध ( बुद्ध को मानने वाले )   जैनी ( महावीर और  24 तीर्थंकरों को माननें वाले )  सिक्ख ( गुरु नानक देव और गुरुग्रन्थ साहब को माननें वाले )

ये सब  धर्म नही है .....सम्प्रदाय हैं  ।

ईसाई, मुसलमान, यहूदी पारसी .....ये भी धर्म नही हैं ....ये भी सम्प्रदाय में ही आते हैं   ।

क्यों की  ये भी मार्ग ही हैं .......सम्प्रदाय मार्ग ही है ........धर्म भूमि  है .....मै फिर  दुबारा दोहराउं ............।

धरती एक है ..........पर  मार्ग उसमें अनेक हैं  ।

मार्ग बनते  बिगड़ते रहते हैं.............इसलिये उनका इतिहास होता है ....

सम्प्रदाय  बनते बिगड़ते रहे हैं......महापुरुष लोग आते रहे हैं.....  समय समय पर .........कभी  श्री शंकराचार्य के रूप में  आते हैं ......तो कभी  श्री रामानुजाचार्य के रूप में आते हैं ।

महापुरुष नूतन मार्ग का  निर्माण सदा से करते आये हैं ...और आगे भी करते रहेंगें ...........लेकिन धर्म  सदैव एक है ..........उसमें  परिवर्तन नही हुआ  करता ......क्यों की  धर्म धरती है ........और धरती में परिवर्तन का अर्थ है .........प्रलय .।   .....धारण करनें वाले तत्व का नाम है ..धर्म ......मनुष्य को धारण करनें वाला तत्व ही समाप्त हो जाएगा ...तो मनुष्य मर जाएगा .........।

इसलिये धर्म एक है .............जो सबको सम्भाले है ............

और वो एक धर्म ..........सनातन धर्म  है   ...बाकी तो सम्प्रदाय हैं .....जो मार्ग हैं ...........लक्ष्य तक पहुंचनें के रास्ते हैं .........।

शाश्वत आज  ज्यादा ही गम्भीरता में बोल गया ...............

चलिये  आनन्द लीजिये   श्री रामानुज सम्प्रदाय के  संस्थापक  श्री रामानुजाचार्य के  चरित्र का  ।

******************************************************

कल के प्रसंग से आगे -

यादव प्रकाश    अपनें ही छात्र रामानुज  से  ईर्श्या करनें लगा ...........

इसके  छात्र  रामानुज ............जिनकी  तार्किक क्षमता इतनी   तीव्र थी की  पढानें वाले  शिक्षक भी   दूर से ही प्रणाम कर देते  ।

यादव प्रकाश ............अद्वैत वेदान्त का   प्रकांड विद्वान् ..........

पर  उसके अद्वैत मत का आये दिन खण्डन कर देते थे  रामानुज  ।

एक दिन- 

तुम सबसे आगे निकल जाएगा  ये रामानुज ............और देखना  एक दिन  ये अपनें ही सिद्धान्त का प्रतिपादन करके  दूसरी पाठशाला खोल लेगा ...........तब हमारे अद्वैत सिद्धान्त का क्या होगा  ?  

यादव प्रकाश ने   अपनें  प्रिय छात्रों को एकान्त में बुला कर कहा ।

गुरु जी  !  आप आज्ञा करें   !      आप जो कहो  !

सुनो !    काशी तीर्थयात्रा करनें के लिए चलते हैं .............रामानुज को भी ले लेते हैं ........वहीं  मार्ग में  ही मार कर फेंक देंगें  रामानुज को ....और घर में आकर बता देंगें  की गंगा जी डूबकर मर गया  रामानुज ।

यादव प्रकाश की बातें सुनकर    सब लोगों को अजीब सा लगा ......पर   गुरु को नाराज करना भी तो ठीक नही है ....इसलिये किसी नें यादव प्रकाश की बातों का बुरा नही माना   ।

रामानुज !    सुनो !  काशी तीर्थ यात्रा के लिए हमारे साथ चलोगे ?

यादव प्रकाश नें  रामानुज से पूछा .....जब रामानुज  पढ़नें  आये तब ।

उत्तर भारत की यात्रा होगी ........भगवान विश्वनाथ के दर्शन होंगें ।

आनन्द से फूले नही समा रहे  रामानुज ....काशी की यात्रा में जाना है  ।

माँ और पत्नी को बता कर  रामानुज   यादव प्रकाश  की मण्डली के साथ काशी यात्रा में चल दिए थे  ।

एक महिनें  में  पहुँचे        विंध्यान्चल .................

********************************************************

गोविन्द  नामका एक छात्र है  यादव प्रकाश के यहाँ ........ये गोविन्द, रामानुज का  मौसेरा भाई लगता है  ।

रामानुज !  रामानुज !   

दौड़ता हुआ रामानुज के पास आया........हाँफ रहा था  गोविन्द ।

रामानुज नें पूछा  क्या बात है  ?    गोविन्द!   क्यों घबड़ाये हुए हो ?

गोविन्द नें हाथ पकड़ा रामानुज का......एक ओर  एकान्त में ले गया ।

क्या बात है  ....बताओ  ?      

गोविन्द नें  हांफते हुए ...इधर उधर देखते हुए ...घबड़ाये हुए ......सारी बातें  रामानुज को बता दीं .............कि   रामानुज !  मैने अभी  सुना है कि  यादव प्रकाश जी तुम्हे मारनें के लिए  इस तरफ उत्तर भारत में लेकर आये हैं ............।

जल्दी करो ......तुम भाग जाओ !  रामानुज !  तुम भाग जाओ !  

ये  तुम को मार देंगें .......सब मिले हुए हैं .............सारे छात्र मिले हैं  यादव प्रकाश से .....तुम्हे कोई बचानें नही आएगा  ।

कन्धे में हाथ रखा  रामानुज नें......अपनें मौसेरे भाई गोविन्द के कन्धे में ।

गोविन्द !    मेरे श्री मन्नारायण मेरे साथ हैं.......मेरा जो अच्छा होगा  वो वही करेंगें ......मुझे पक्का विश्वास है   ।

रामानुज का विश्वास ही तो बोल रहा था  ।

नही ......नही ...रामानुज !  मेरी बात मानों ......तुम  चले जाओ ....तुम अपनें आपको बचा लो .......मेरी प्रार्थना है  तुमसे ।

ये कहते हुए  पैरों में गिर गया था  गोविन्द   ...रामानुज के  ।

पर मै कहाँ जाऊँ ?   रामानुज नें पूछा ।

ये विन्ध्यांचल का घनघोर जंगल है .....इसी में चले जाओ  रामानुज !

बच गए तुम   ......तो मिलेंगें .................

तभी ............यादव प्रकाश  अपनी मण्डली को लेकर  आरहा था ।

रामानुज !  देखो !  वो आरहा है .............तुम को मार देगा .........

तुम जाओ !  भागो !  भागो !   रामानुज भागो !

मानों कोई अदृश्य शक्ति प्रेरणा दे रही थी ..........रामानुज भागो !

भागे  रामानुज  ।

उस घनघोर जंगल में  खो गए   ।

*******************************************************

ओह !   3 दिन हो गए हैं ................अभी तक   रास्ता नही मिल रहा .....इस जंगल से बाहर निकलनें का  ।

थक गए हैं  रामानुज ...............

हे नारायण !  अब तो लगता है....इसी जंगल में ही मेरी  समाधि बनेगी ।

तभी ................

एक युवा  भील दम्पति ...........दूर से  दिखाई दिए ।

रामानुज दौड़े उनकी ओर .............भील होनें के बाद भी  बहुत सुन्दर थे ये दोनों .......।

जंगल से बाहर जाना है ?       तो हमारे पीछे पीछे आओ ।

भील नें जो कहा .......रामानुज नें उसी को मानना शुरू किया  ।

चलते चलते  रात्रि हो गयी थी  ।

****************************************************

यादव प्रकाश नें    गोविन्द से पूछा .......रामानुज उधर क्यों गया ?

जंगल में क्यों भागा .......?   

गोविन्द नें उत्तर दिया ...शौच इत्यादि करना था उसे ..........मैने मना किया ....पर माना नही  ।

गोविन्द नें रोना शुरू किया .......कहीं मेरे भाई रामानुज को सिंह रीछ इत्यादि तो नही खा जायेंगें   ?

मन ही मन खुश हुआ  यादव प्रकाश .........चलो अच्छा हुआ .......स्वयं ही काल के मुख में चला गया  रामानुज ....मुझे मारना भी नही पड़ा ।

चलो अब ............काशी !      यादव प्रकाश नें अपने सभी छात्रों को कहा ........पर गोविन्द उदास है ........।

पर ये क्या हुआ ................काशी में पहुँचते ही ......यादव प्रकाश को भयंकर ज्वर नें पकड़ लिया था  ।

गंगा जी  तक जानें की हिम्मत नही हुयी  यादव प्रकाश को ।

इतना ही नही .....बाबा विश्वनाथ के दर्शन तक नही कर सका ...ये यादव प्रकाश  ।

इसका ज्वर बढ़ता ही जा रहा था .............इसके शरीर में छोटी छोटी फुंसियां निकलनी शुरू हो रही थी ...........

उसके  फूटनें पर मवाद निकल रहा था  ।

छात्र लोग घबडा गए....और कांचीपुरी लेकर चल दिए यादव प्रकाश को ।

पर  जिस दिन यादव प्रकाश काशी से जा रहा था ......उसी दिन भगवान विश्वनाथ नें स्वप्न दिया .......और स्वप्न में कहा .......यादव प्रकाश ! तूनें एक परमभक्त  रामानुज का   अपराध किया है ......ये उसी का दण्ड है .......कि  तू  काशी आकर भी गंगा नही नहा पाया .......और  मेरे दर्शन से भी तू वंचित रहा ............ये सब रामानुज को मारनें की इच्छा करनें  का  फल मिला है तुझे  ...........।

ये स्वप्न देखकर डर गया  था   यादव प्रकाश ....पर इस स्वप्न की चर्चा किसी से नही की  इसनें  ।

******************************************************

रात्रि हो गयी है ......अब इस जंगल से कल ही निकल पायेंगें ......उन भील दम्पति नें कहा .........और  एक तरफ  कोमल कोमल पत्तों को बिछाकर  दोनों ही   सो गए ।

रामानुज उन दोनों भीलों को देख रहे थे ..............कितनें सुन्दर हैं ये दोनों .....भील होनें के बाद भी  ।

बैठे बैठे  देखते रहे ..........सोते हुए उन दोनों भील दम्पति को ।

ए  क्या देखता है  ! 

भील खड़ा हुआ ..............

रामानुज सकपका से गए ......नही कुछ नही ..........।

पत्नी उठ गयी   भील की .........और पति के कान में कुछ कहा  ।

पति चिल्लाया ........सो जा !   अभी कहाँ से लाऊँ तेरे लिए जल ?

रामानुज नें  चारों ओर दृष्टि घुमाई ................एक बाबड़ी थी  जंगल में .....पता नही कहाँ से .....किस धर्मात्मा नें इस घोर जंगल में बाबड़ी बना दी थी ............।

मुझे जल  चाहिए ........मुझे प्यास लगी है  ! 

पत्नी फिर  जिद्द करनें लगी.......जिद्द करना स्वाभाविक था उसका ।

रामानुज नें  प्राणों की परवाह किये बिना ..............हिंसक पशु खा सकते हैं ......पर परवाह किये बिना ......बाबड़ी में उतर गए ........

कुछ नही था .......अंजलि में ही  जल को भरा .......और लेकर  आये ।

माँ !   ये जल पीओ ! 

दोनों दम्पति नें रामानुज को देखा  ।...ओह !  "माँ"  कहा तुमनें ?

रामानुज नें जल पिलाया .......तृप्त हो गयी   भीलनी ......रात बीत गयी ।

सुबह का जब समय हुआ ........बैठे  बैठे ही सो गए थे  ये  रामानुज तो .............उठे .............आँखों का मला   ।

पर भील और भीलनी वहाँ नही हैं   ।

पता नही क्यों ......एक अजीब सी छटपटाहट होनें लगी  रामानुज को ...

इधर उधर दौड़नें लगे ....खोजनें के लिए  .भील दम्पति को .....पर नही ।

जहाँ  सोये थे ....उस स्थान को देखा .......वहाँ से चले थे  तो उन  भीलनी और भील के ......पैरों के निशाँ थे   ।

रामानुज की आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं .........ये क्या  ?

चौंक गए रामानुज ..............उन  भील और भीलनी के पैरों के जो निशाँ थे ......उनमें  चक्र शंख गदा पदम् ....इत्यादि के चिन्ह बने थे ।

रोम रोम गदगद् हो गया   था  रामानुज  का...........नेत्रों से अश्रु धार बह चली थी ............

ओह !  वो भील और भीलनी नही थे ............वो मेरे  आराध्य श्री नारायण और मेरी माँ  लक्ष्मी जी ही  थीं .......।

उस धरती की मिट्टी को माथे से लगाते हुए .............लोटनें लगे वहीं पर  रामानुज ।

मेरी रक्षा करनें के लिए आप आये थे नाथ ! ..............

मुझ में कुछ नही है......फिर भी आप मुझे अपना मान बैठे हो .....ओह ! आपसे बड़ा करुणा वान और कौन होगा  ।

रो रहे हैं रामानुज ।

तभी ........जंगल  से नगर दिखाई देनें लगा ।

रामानुज थोडा बाहर निकले ही थे कि .......

स्तब्ध हो गए ये देखकर .......कांचीपुरी आगये थे  रामानुज  ।

भगवान श्री लक्ष्मी नारायण की परमकृपा मानते हुए .......अपनें घर की ओर चल दिए    रामानुज ।

शेष प्रसंग कल .........

Harisharan

Post a Comment

0 Comments