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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 113

*आज  के  विचार*

*(  "श्रीराधाभाव" की चर्चा - बलराम जी द्वारा  )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 113 !!*

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हे वज्रनाभ !    बलराम  द्वारिका  जानें से पूर्व हस्तिनापुर आये थे ......वैसे वृन्दावन के  निकट ही है हस्तिनापुर .....वृन्दावन से हस्तिनापुर  बलराम इसलिये आये,   क्यों की  इन दिनों  श्रीकृष्ण यहीं पाण्डवों के साथ रह रहे थे......महर्षि शाण्डिल्य नें ये बात कही ।

फिर क्यों नही आये  वृन्दावन में श्रीकृष्ण  ?   हस्तिनापुर तो  बराबर जाते ही रहते थे  द्वारिका से .........फिर  निकट होते हुए भी वृन्दावन क्यों नही आये श्रीकृष्ण  ?     वज्रनाभ  का ये प्रश्न था  ।

आकर क्या करते यहाँ  ?       लम्बी साँस लेते हुए  महर्षि नें कहा  ।

क्या करते ?      महर्षि !    वृन्दावन वालों के  प्राण वापस आजाते  ........ये   प्रसन्नता से नाच उठते ..........वज्रनाभ कहते गए  ।

पर कब तक  ? 

       कब तक रहते  श्रीकृष्ण वृन्दावन में  ?     महर्षि नें पूछा वज्रनाभ से.........प्रश्नवाचक दृष्टि से  वज्रनाभ नें महर्षि की ओर देखा था  ।

हे वज्रनाभ ! 
"प्रेम सिद्धान्त" को  कृष्ण से ज्यादा क्या कोई समझ सकता है ? 

तपते हुये  तवा में ...........कुछ पानी की बुँदे डालनें से तवा शीतल नही हो जाती ......अपितु   वह और  धधक उठती है............

 कृष्ण वृन्दावन आते ,   कुछ समय के लिये ........तो    इन सब बृजवासीयों  को आनन्द तो  खूब आता ...... पर    कुछ क्षण का मिलन,  प्रेम को  गहरा कर ........इनके लिये और कष्टदायी न हो जाता ? 

क्यों की कृष्ण तो वापस   फिर चले जाते द्वारिका  ।

और  आते वृन्दावन कृष्ण  तो करते क्या ?        रही बात  प्रेम करनें की ....तो  इसका तो कोई आदि अंत ही नही है वज्रनाभ !  ....और  "अंतर" से  तो मिले  ही हुए हैं .......बाहर से मिलना,    कुछ समय के लिये मात्र  ?    ये तो  और अनर्थकारी हो जाता ........मिलकर  कृष्ण फिर जब वापस चले जाते  द्वारिका ......तो शायद  ये वृन्दावन वाले  मर ही जाते  ।

इसलिये श्रीकृष्ण हस्तिनापुर बारबार आने के बाद भी वृन्दावन नही आये ...........महर्षि नें  समझाया  ।

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अर्जुन सो रहे हैं ............बड़ी गहरी नींद में सो रहे हैं अर्जुन  ।

श्रीकृष्ण उनके पास में बैठे हैं ............अन्य कोई नही है  ।

पर विलक्षण स्थिति अर्जुन की ............अर्जुन के रोम रोम से  "कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण"   नाम   प्रकट हो रहा ...........गदगद् भाव से भरे हैं श्रीकृष्ण भी .............तभी   -  

कन्हैया  !         

कौन  ?       ये सम्बोधन सुनकर  चौंक गए थे  एकाएक कृष्ण  ।

वर्षों से  ये सम्बोधन सुना कहाँ हैं  श्रीकृष्ण नें   ।

देखा  तो   उठकर खड़े हो गए कृष्ण..........सामनें थे  बलराम  ।

कन्हैया !       दोनों हाथों को फैलाये  नयनों से अश्रु बहाते हुए   खड़े हैं ।

कृष्ण नें देखा ..............दाऊ  !    दौड़ पड़े  कृष्ण ............अपनें अनुज को हृदय से लगाया था  बलभद्र नें  ।

तुम यहाँ  क्यों हो ?     चलो वृन्दावन  कन्हैया  !     दाऊ नें   अपनें छोटे भाई से बड़े स्नेहवश कहा..........

कान्हा !  यहाँ क्या देख रहे हो  ?    अर्जुन के रोम रोम से  कृष्ण नाम निकल रहा है  ये देखकर तुम प्रसन्न हो  ?   अरे !     इसका मन तुममे लगा है,  हाँ हाँ ,   अच्छे से लगा है  ..... इसलिये  रोम रोम से तुम्हारा नाम निकल रहा है .....पर ......नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे  संकर्षण के ।

उन   गोपियों का मन, उन गोपों का मन , तेरी मैया यशोदा का मन, तेरी राधा का मन ......हे कृष्ण !   तुममें नही है .......मन तुममें नही लगा है उन लोगों का ......अपितु   उनका मन ही  "कन्हाई" बन चुका है   ।

भक्त वो है  जो   अपना मन तुममें लगाये हे कृष्ण ! .........जैसे ये अर्जुन ......ये पाण्डव .........पर  वृन्दावन  के प्रेमी अलग ही हैं ........उन लोगों नें अपना मन तुममें नही लगाया ..........अपनें मन को ही  तुम बनाकर खड़ा कर दिया .......अब अलग से उनके पास कोई मन ही नही है  ।

ये अर्जुन,   ये पाण्डव लोग    युद्ध में  विजय  मिले  यही प्रार्थना करते हैं तुमसे ..........कोई विपत्ति न आये  रक्षा करो ......यही कहते हैं ये लोग तुमसे.......अपनें  छत्रिय कुल की आन बान शान बनी रहे.........ये चाहते हैं तुमसे ये  लोग..........पर  हे कृष्ण !     वो लोग .......वो लोग कुछ नही  चाहते ..........न कुल की परवाह , न स्वर्ग,  न नर्क की चिन्ता.......न स्वयं के कष्ट की ...........उन्हें  परवाह है ........वो  माँगते हैं .......दिन रात माँगते रहते हैं   भगवान से ..........पर अपनें नही ........अपनें लिए कुछ नही ............मांगते हैं  तो केवल तुम्हारे लिये .........तुम्हारे लिए ......कि तुम खुश रहो ......तुम प्रसन्न रहो ........तुम्हे कोई  कष्ट न हो ..........बस यही कामना है उन लोगों की  ।

अश्रु बहते जा रहे थे  बलराम जी के ..........और बोलते जा रहे थे -

मुझ से कहा  उन देवतुल्य नन्दबाबा नें ......... ..दाऊ !  मत आनें को कहना उसे वृन्दावन ...............

मैने पूछा -  क्यों ?  क्यों न आनें को कहूँ  ?   

क्यों कि  जरासन्ध शत्रु है मेरे लाला का ..........घात लगाकर बैठा है ....वो आएगा यहाँ  तो कहीं  ...............हम तो रक्षा भी नही कर पायेंगें अपनें लाला की ..................

अपनें आँसू पोंछते हुए  बलराम जी नें कहा -   राधा ........वो तो  साक्षात् प्रीति की प्रतिमा हैं ..............मुझ से कह रही थीं -  दाऊ भैया !   श्याम सुन्दर प्रसन्न हैं  तो   वो वहीं रहें ...........हमें उनकी प्रसन्नता से मतलब है .........हम तो उनकी ख़ुशी में ही खुश हैं  ।

बताओ  कन्हैया !        यहाँ कौन है  ऐसा  ?  जो तुमसे इतना प्रेम करता है ..............कन्हैया !      मैं भी  तुम्हारे साथ ही  जन्मा बृज में , खेला, कूदा .........पर   मैं  इतना समझ नही पाया था  उन लोगों को ........

पर इस  बार जब  मैं गया...........वो मैया यशोदा ..........अभी भी कहती हैं ...........कि "गैया चरानें गया है मेरा कन्हैया"   ।

दाऊ !     बलराम के  हृदय से लगते हुए  हिलकियों से रो पड़े थे कृष्ण ।

वृन्दावन के रज की सुगन्ध आरही थी बलराम के वस्त्रों से............

बलराम महक रहे थे  वृन्दावन के प्रेम से ............कृष्ण उसे ही महसूस कर रहे हैं    ।

दाऊ भैया !    तुमनें  निकुञ्ज दर्शन किये  ?    

ये  प्रश्न क्या किया  कृष्ण नें ........बलभद्र तो हिलकियों से रो पड़े  ।

नही ......अहंकार को त्याग नही पाया मैं........और बिना अहंकार को त्यागे निकुज्ज का दर्शन कहाँ मिलता  !     हाँ  कुञ्ज तक मैं गया .....मैने कुञ्ज की उन दिव्य लताओं के दर्शन किये......जो चिन्मय थीं ।

पर  निकुञ्ज के दर्शन का सौभाग्य मुझे नही मिला .........बलराम नें बृज की सारी बातें  बतायीं   ।

अर्जुन भी उठ गए थे.....अब वो भी सुननें लगे थे   वृन्दावन की महिमा ।

पर चकित हैं  अर्जुन..........हाँ,   बलभद्र जब जब  "श्रीराधा"   का नाम लेते हैं    तब अर्जुन  के मुख मण्डल में हल्की मुस्कुराहट आजाती है ......क्यों की  इतना तो सबको पता ही था कि .......श्रीकृष्ण की प्रेयसि हैं  ये श्रीराधा ..........पर    जब   श्रीराधा  नाम लेते हुए  कृष्ण को रोते देखा अर्जुन नें .........तब  वो  चकित हो गया था ।

वो मेरी सर्वेश्वरी हैं दाऊ !     वो मेरी स्वामिनी हैं ........वो मेरी  प्राणाधार हैं......राधा हैं   तभी कृष्ण है ...................मेरी आल्हादिनी  श्रीराधा !

हिलकियाँ  चल पडीं  कृष्ण की ..........राधा ......हा  राधा  !  

सम्भाल लिया  बलभद्र नें  ..........नही तो  गिर जाते .............देह सुध भूल गए  थे  श्रीकृष्ण ................

कृष्ण और  बलराम  की  ये स्थिति देख कर  अर्जुन   स्तब्ध   थे ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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