*आज के विचार*
*( जब निकुञ्ज दर्शन के लिये तड़फ़ उठे थे अर्जुन )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 114 !!*
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कौन हैं ये श्रीराधा ? हे वासुदेव ! मैने इस नाम को बहुत बार सुना है ..........पर कभी आपसे पूछनें की हिम्मत नही हुयी ..........आज जब बलराम जी नें वृन्दावन और श्रीराधा का उल्लेख किया तब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ .........हे वासुदेव ! मुझे आपनें अपना सखा माना है ....अगर मैं आपका सखा हूँ ......तो इस "श्रीराधा" नामक रहस्य से परदा हटाइये ! ये कहते हुए अर्जुन नें श्रीकृष्ण चरणों में प्रणाम किया था ।
बलराम जी नें श्रीकृष्ण से कहा ..............मैं थक गया हूँ ........इसलिये विश्राम करनें के लिये जा रहा हूँ ......और हाँ ......कल हम द्वारिका के लिये निकल रहे हैं ..........बलराम जी नें कहा और अपनें अतिथि कक्ष में जाकर विश्राम करनें लगे थे ।
"श्रीराधा".............ये तो बहुत गोप्य प्रश्न किया है तुमनें अर्जुन !
भाव जगत में डूब गए वासुदेव ।
ब्रह्मा, रूद्र, विष्णु .........ये भी श्रीराधा रहस्य को नही जान पाते ।
पार्थ ! मानव मात्र में प्रेम की पावन शक्ति का संचार करनें के लिये मैं इस धरा पर अवतरित होता हूँ ...........पर हे पार्थ ! मेरी जो अपनी शक्ति हैं .........आल्हादिनी शक्ति ........जो प्रेम उमंग को बढ़ानें वाली शक्ति है .........मुझे निरन्तर आनन्द प्रदान करनें वाली शक्ति है .......उसी को आल्हादिनी शक्ति कहते हैं .........वह श्रीराधा हैं ।
यानि पार्थ ! मुझ में और श्रीराधा में कोई अंतर नही है ......हम दोनों एक ही हैं ......हाँ ये लीला है मेरी........इसलिये लगता है कि हम दोनों अलग अलग हैं .........पर ऐसा नही है .........हम दोनों अलग हो ही नही सकते ........अलग होकर रह ही नही सकते, बाकी जो विरह और वियोग दिखाई दे रहा है.........वो मात्र लीला है ।
हे पार्थ अर्जुन ! सर्प की कुण्डली........क्या कुण्डली और सर्प अलग अलग हैं ? सर्प जब चलनें लगता है ......तब कुण्डली कहाँ गयी ?
ऐसे ही हम दोनों लगते हैं अलग अलग .....पर हैं नहीं .......हैं एक ही ।
कृष्ण नें समझाया "श्रीराधातत्व" को ......प्रेम ही आकार लिया हुआ है श्रीराधा के रूप में ...........वो राधा ! मेरी राधा ....मेरी निकुंजेश्वरी श्रीराधा ।
ये तो अवतारकाल की लीला है .........जिसमें संयोग वियोग की लीला चलती ही रहती है ........पर हे अर्जुन ! एक लीला है, निकुञ्ज की लीला .......जो अनादि है अखण्ड है ............
सूर्य मिट जाएँ, चन्द्र मिट जाए .........प्रलय हो जाए .......महाप्रलय आजाये .......जिसमें सारे लोक जलमग्न रहते हैं ............उस समय भी दिव्य वृन्दावन के निकुञ्जलीला में कोई व्यवधान नही पड़ता ।
प्रेम की बातें, वो भी कृष्ण के मुख से .........आहा ! अर्जुन गदगद् हो रहे हैं......और कृष्ण भी बड़े उमंग-उत्साह के साथ बताते जा रहे हैं ।
हे वज्रनाभ ! अर्जुन कोई साधारण तो हैं नहीं..........ये भी ईश्वर के अनादि सखा हैं .........नर नारायण की जोड़ी तो सनातन ही है ।
अर्जुन को समझनें में देरी नही लगी..............वो तुरन्त युगल चरणों में साष्टांग लेट गए ................
वासुदेव ! क्या मुझे "निकुञ्ज दर्शन" का सौभाग्य प्राप्त नही होगा ?
हँसे श्रीकृष्ण..........शेष , अनन्त, संकर्षण को तो मात्र "कुञ्ज" प्रवेश का ही अधिकार मिला ........फिर तुम क्या हो ? ये बात अर्जुन के पीठ में हाथ मारते हुए बोले थे कृष्ण ।
पर क्यों ? निकुञ्ज दर्शन का अधिकार हमें क्यों नही ?
अर्जुन ! क्यों की अहंकार "प्रेमनगर" में बाधक है......कृष्ण नें कहा ।
पर मेरे अंदर अहंकार कहाँ ? अर्जुन नें पूछा ।
तुम पुरुष हो ना ? कृष्ण बोले ।
अर्जुन ! क्या पुरुष का अर्थ ही अहंकार नही होता ?
फिर अहंकार को ढोकर, प्रेम नगरी में जाओगे ?.......जा ही नही पाओगे .....और गली छोटी है यार ! उसमें दो कहाँ ?
फिर ? मैं क्या करूँ ? क्या मुझे दर्शन नही होंगें उस दिव्य निकुञ्ज के ? फिर चरणों में गिर गए अर्जुन ........आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं ...........कीजिये ना ?
पर कुछ नही बोले श्रीकृष्ण.............अर्जुन प्रार्थना करते रहे ।
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अर्जुन ! तुम भी चलो हमारे साथ .................
हस्तिनापुर से विदा हो रहे थे कृष्ण बलराम द्वारिका के लिये ।
पर चलते समय अर्जुन को पूछा था .......नही नही पूछा नही था ......आदेश था ।
अन्य पाण्डव देखते रहे .........कुछ बोले नही ..........अर्जुन के लिये तो कृष्ण का आदेश ही सब कुछ है........तुरन्त ही रथ में चढ़ गये अर्जुन .......और सबको प्रणाम करते हुए कृष्ण, चल दिए द्वारिका के लिये ।
वृन्दावन में उतार देना अर्जुन को .!
......अपनें प्रिय सारथि दारुक से कहा था कृष्ण नें ।
पर क्यों, वृन्दावन में अर्जुन क्यों जाएगा ?
बलराम बड़े होनें का रौब दिखाते ही हैं ।
पर कृष्ण नें बलराम की बात का कोई उत्तर नही दिया......अर्जुन से ही बोले -
अर्जुन ! मेरे भाई ! कन्धे में हाथ रखा कृष्ण नें अर्जुन के ........और बड़े प्रेम से बोले.........हम द्वारिका चले जायेंगें ....पर अब वृन्दावन आनें वाला है तुम्हे वहाँ उतरना है ............
हे गोविन्द ! मुझे निकुञ्ज के दर्शन होंगें ना ?
अर्जुन नें फिर प्रार्थना की ।
अर्जुन ! तुम मेरे प्रिय हो........मैं इस "प्रेम तत्व" से तुम्हारा साक्षात्कार कराना चाहता हूँ.......इसको नही जाना तो सब कुछ जानना व्यर्थ ही है...........इसलिये अब तुम मेरी बात ध्यान से सुनो ।
रथ रुका.............वृन्दावन की सीमा में ही रथ रुका था ।
कृष्ण नें हाथ जोड़कर प्रणाम किया उस दिशा को, जिस दिशा में बरसाना था ।
हे अर्जुन ! अब मेरी बात ध्यान से सुनो ...........यह "सर" है .......जिसका नाम है "मान सरोवर" ......नेत्र सजल हो उठे कमल नयन के ............मेरी राधा यहाँ मान करती थीं ..........मैं उन्हें मनाता था ..........प्रेम की रीत अनूठी होती है ...........ये प्रेम की सिद्ध भूमि है.........इसलिये तुम यहीं बैठो .......और त्रिपुरा सुन्दरी की आराधना करो ...........हाँ वही त्रिपुरा सुन्दरी जो भगवान शिव के हृदय में रहती हैं .........उन्हीं की आराधना करो ।
अर्जुन हाथ जोड़कर खड़े रहे ..........रथ में बैठ गए थे कृष्ण .........बलराम और दारुक सारथि चकित भाव से कृष्ण अर्जुन की ये अबुझ लीला देख रहे थे ।
त्रिपुरा सुन्दरी, मेरी राधा की सखी ललिता हैं........रथ जब चला ....तब कृष्ण को लगा बता दूँ अर्जुन को........इसलिये, चलते चलते बता दिया ........पर बता रहे थे अर्जुन को.......चकित हो गए थे बलराम जी ।
क्या ललिता सखी भगवती त्रिपुरा सुन्दरी हैं ?
अर्जुन वहीं बैठ गए..........ध्यानस्थ हो कर बैठे थे मान सरोवर में ।
और अपनें हृदय में भगवती त्रिपुरा सुन्दरी का ध्यान करनें लगे थे ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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