*आज के विचार*
*( द्वारिका लौटे बलराम )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 112 !!*
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हे वज्रनाभ ! दो मास वृन्दावन रहनें के बाद .......बलभद्र अब लौटना चाह रहे हैं.......महर्षि शाण्डिल्य नें वज्रनाभ को कहा ।
मुझे द्वारिका जानें की कोई शीघ्रता नही है ...........मैं तो यहीं रहना चाहता हूँ ...........श्रीधाम वृन्दावन चिन्मय है ..........ये तीर्थ नही ......ये तो दिव्य मण्डप है ब्रह्म और आल्हादिनी के रास का ।
पर हे पूज्य नन्दबाबा ! मैं द्वारिका शीघ्र इसलिये जाना चाहता हूँ ....कि मैं कन्हाई को यहाँ भेज सकूँ ! और मुझे अब ऐसा लगता है जितनी जल्दी कन्हाई यहाँ आसके ........उतना अच्छा है ........क्यों की दुःख कष्ट समाप्त ही हो जायेंगे वृन्दावन के...........इसलिये मुझे आज्ञा दें आप .....हे पूज्य मेरे नन्द बाबा ! द्वारिका में अब मैं रहूंगा .....और कृष्ण यहाँ आएगा .........वह यहाँ रहेगा ।
बलराम आवेश में बोल रहे थे ।
नही दाऊ ! ऐसे आवेश में मत आओ ...........बड़े शान्त भाव से नन्दबाबा नें समझाया था बलभद्र को ।
दाऊ ! जरासन्ध की शत्रुता कन्हाई से जग विदित है ............
मैं जानता हूँ ........और ये भी जानता हूँ कि कन्हाई का यहाँ आकर रहना अभी उचित भी नही है.........जरासन्ध से हम कैसे कन्हाई की रक्षा करेंगें ? हमारे पास मात्र लाठियां हैं ...........कोई अस्त्र शस्त्र नही ...........और दाऊ ! हमें अपनी चिन्ता कहाँ है ! हम तो अपनें कन्हाई के लिये प्राण भी लगा देंगें ......पर हमारे कन्हाई को कुछ हो गया तो ? यहाँ आकर जरासन्ध नें आक्रमण कर दिया फिर ?
नन्दबाबा नें बड़े स्नेह से बलराम के सिर में हाथ रखा ..........
दाऊ सुन ! हम अपनें बालक को चाहते हैं ........बहुत स्नेह करते हैं ...........और हम ही नहीं .......इस वृन्दावन का बाल , युवा बूढ़ा स्त्री ....अरे ! दाऊ ! तुम तो जानते ही हो ......इस वृन्दावन के वृक्ष , लता, पशु पक्षी सब प्रेम करते हैं कन्हाई को ......इसलिये सब चाहते हैं कि वो यहाँ आजाये ........पर दाऊ ! यहाँ असुरक्षित रहेगा हमारा बालक .....इसलिये सब कुछ सोच समझकर कोई बात कहना ।
हमारा स्नेह तो उसी के लिये है..........वो स्वस्थ रहे ....वो सुखी रहे ......वो प्रसन्न रहे ...........हमें बस यही चाहिये ।
नन्द बाबा शान्त रहते हैं ............ मैने उनके हाथ में माला ही देखी है .....रात्रि में भी माला उनके हाथ से छूटती नही है ............
नारायण भगवान की उपासना करते हैं ...............सुबह चार बजे तक यमुना स्नान करके आजाते हैं ............फिर ध्यान, जाप, पूजन .......करते रहते हैं ..............वैसे नन्दबाबा ये अभी करनें लगे ऐसा नही है ....... शुरू से ही ऐसी दिनचर्या थी बाबा की ........
पर पहले जब कृष्ण था यहाँ ..........तब हँसते थे .....बाबा मुस्कुराते थे .........हास्य विनोद तो बाबा नन्द को बड़ा प्रिय था ।
पर अब, ये सब कुछ नही रहा ..............पूजा पाठ में पहले से ज्यादा लीन हो गए हैं ..............किसी को सम्बोधन भी अब नाम लेकर नही करते ......."नारायण ! इधर आओ ........नारायण ! तुमको ही बुला रहा हूँ ........कहते हैं स्वयं बाबा - मुझे अब किसी का नाम याद नही रहता .........इसलिये "नारायण" सबको सम्बोधन करता हूँ ।
नन्द बाबा उदासीन हो रहे हैं धीरे धीरे ........दाऊ विचार करते हैं ।
हे वज्रनाभ !
बलभद्र अब वृन्दावन से द्वारिका जाने की तैयारी करनें लगे थे ।
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विश्व का केंद्र हो गयी है द्वारिका........बड़े बड़े ऋषि, महर्षि, तपश्वी अब द्वारिका की यात्रा करनें लगे थे ........"श्रीकृष्णचन्द्र" द्वारिका में बिराजें हैं ......ऐसा सुनते ही सब चल पड़ते द्वारिका की ओर ।
पर द्वारिका पहुँचते ही.........वृन्दावन की महिमा वहाँ सुननें को मिलती.......परम प्रेमी हो चुके उद्धव से बिना मिले श्रीकृष्ण चन्द्र से मिलना तो मुश्किल ही है......वैसे महामन्त्री भी हैं उद्धव द्वारिका के ।
हे ऋषियों ! श्रीकृष्ण चन्द्र जू के दर्शन तो आपनें कर ही लिए होंगें ?
उद्धव जी पूछते हैं द्वारिका में पधारे ऋषि मुनियों से ।
जी ! धन्य हो गए हम लोग ........तपस्या पूरी हो गयी ..........
पर हम तो कुछ मास यही बितानें का विचार कर रहे हैं........ऋषि मुनि कहते .........तब उद्धव जी बड़ी विनम्रता से कहते - हे पूज्य ऋषियों ! यहाँ क्या है ? इस द्वारिका में क्या है ? बस श्रीकृष्णचन्द्र जू के दर्शन हैं ......पर आपको "वास" ही करना है .....तो आप श्रीधाम वृन्दावन जाओ .............उद्धव जी समझाते ।
"वृन्दावन" का नाम लेते ही उद्धव का मुखमण्डल खिल गया ........पर कुछ ही देर में नेत्र सजल हो उठे ......श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा ! ।
कुछ नही करना है ऋषि मुनियों ! बस उस प्रेम की भूमि में "वास" करना है .......रहना है .......बाकी सब अपनें आप श्रीधाम ही करेगा .......वो भूमि है ही ऐसी !
तो हे उद्धव ! तुम ये कहना चाहते हो कि .........हम लोग वहाँ जाकर तप साधना करें ....? ऋषियों ने पूछा ।
नही ....नही .....वहाँ तप करनें की जरूरत ही नही है ..........वहाँ के रज में वास करना ही, तप है ...........वहाँ की गोपियों के दर्शन .......वहाँ के गोप बृजवासियों के पावन दर्शन ...........श्रीराधारानी का वो दिव्य दर्शन ..........जाओ ! ऋषियों जाओ ।
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कुछेक वर्ष से, द्वारिका से वृन्दावन, आनें वालों की संख्या एकाएक बढ़ गयी थी ........आने वाले यात्रियों में ऋषि मुनि तपश्वी ही ज्यादा होते थे ।
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बलराम द्वारिका लौटनें से पहले एक बार श्रीराधारानी के दर्शन करना चाहते हैं.. ......और उनका सन्देश लेना भी आवश्यक है ।
बलराम बरसाना चले थे ।
कुञ्ज में ही मिलेगी राधा !
कीर्तिरानी और बृषभान जी नें सत्कार किया बलराम का ......और बता भी दिया कि राधा अपनें कुञ्ज में ही हैं इस समय ।
बलराम प्रणाम करके कुञ्ज की ओर चल दिए थे ।
तुम द्वारिका जा रहे हो दाऊ ? कीर्ति रानी नें पूछा था ।
हाँ ....आज ही जा रहा हूँ......इसलिये आप सबके दर्शन करनें आगया ।
श्यामसुन्दर आएगा ? कीर्तिरानी ये पूछते हुए रो गयीं ।
रुके दाऊ .......कीर्ति मैया को देखा ......सजल नयनों से देखा .......फिर बिना कुछ उत्तर दिए चल पड़े .............हाँ क्या उत्तर देते ?
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मेरे धन्यभाग हैं !
.......कि आप जैसे ऋषि मुनि मेरे पास मुझे दर्शन देनें आगये ।
आज कुञ्ज में ऋषि मुनियों की भीड़ लगी है ......सत्कार कर रही हैं स्वयं श्रीराधारानी .......सखियाँ इधर उधर कार्य में जुटी हैं ।
फल फूल मेवा सुन्दर सुन्दर दोनें में सजाकर सामनें रख दिया है श्रीराधा रानी नें ।
हे राधिके !
हमनें जब श्रीकृष्ण चन्द्र जू के दर्शन किये ........बड़ा सुख मिला ।
ऋषियों नें श्रीराधारानी से बड़े प्रेम से कहा था ।
कौन श्रीकृष्ण चन्द्र जू ?
ओह ! ये इतना बड़ा नाम था कि श्रीराधा भूल गयीं ।
"श्यामसुन्दर" का नाम ले रहे हैं ये ऋषि मुनि ......ललिता सखी नें श्रीराधिका जू के कान में कहा था ।
आप लोग नन्दगाँव से आरहे हैं ? श्रीजी को फिर विस्मरण हो गया ।
नही हम द्वारिका से आरहे हैं .........द्वारिका में श्रीकृष्ण ..........
मेरे श्याम सुन्दर द्वारिका चले गए ? श्रीराधारानी बोल उठीं ।
बलराम देख रहे हैं...........उनके नेत्र बहनें लगे .........वो कुञ्ज रन्ध्र से देख रहे हैं............श्रीराधा रानी मूर्छित हो जातीं ..........पर उन्होंने स्वयं को सम्भाला ........सहायता की ललिता सखी नें ।
हे राधिके ! हे कृष्णप्रिया ! हे बृषभान नन्दिनी ! हे कीर्ति सुते !
आपके चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है...........
ऋषि मुनियों नें स्तुति करनी शुरू कर दी थी श्रीराधा रानी की ।
दिव्य स्वरूप हो गया था श्रीजी का .........तपते हुए सुवर्ण की तरह जिनका रँग है........दिव्य आभा से जिनका मुख दमक रहा है ...........
ब्रह्मा रूद्र विष्णु आकाश से इनके ऊपर पुष्प बरसा रहे हैं ..........
ये दृश्य देखते ही .......ऋषि मुनि जयजयकार करनें लगे थे ।
हे राधिके ! श्रीकृष्ण दर्शन करके हमें आनन्द तो आया था .....पर ऐसा लग रहा था कि कुछ अधूरा रह गया है ........हे ब्रह्म आल्हादिनी ! आपके बिना कृष्ण दर्शन भी पूर्ण नही होता ...........आप के बिना पूर्णब्रह्म भी अधूरा है ...........आपका साथ मिलनें पर ही ........वो पूर्ण होता है ...............
हे राधिके ! द्वारिका में हमनें श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन किये थे ....पर आज आपके दर्शन करके ही पूर्णता का अनुभव हो रहा है ।
इतना कहकर वो सब ऋषि मुनि वहाँ से जानें लगे .........तब -
हे ऋषियों ! ये राधा आज आप लोगों से कुछ माँगना चाहती है ।
अचरा पसार कर ऋषियों से श्रीजी नें माँगा ।
हमसे आप माँग रही हैं ? हे श्रीराधा ! हमें आपसे माँगना चाहिये ।
"क्या नही दोगे मुझ दुखियारन को ? रो गयीं श्रीराधा रानी ।
आप क्या लीला कर रही हैं .......हम नही जानते ?
जैसे ब्रह्म अगोचर है ........वो मन इन्द्रियों का विषय नही हैं ........ऐसे ही आप भी उन्हीं की आल्हादिनी शक्ति हैं ............फिर कैसे ये जड़ मन आपको समझ सकेगा ? आप कहिये आपको क्या कहना है ? ऋषियों नें कहा ।
बस मुझे यही दे दो ........कि द्वारिका में मेरे श्यामसुन्दर सुखी रहें ।
वो प्रसन्न रहें.......और ! रो गयीं श्रीराधा रानी........और "हे ऋषियों ! श्याम सुन्दर को मेरी याद कभी न आये" ......ये वरदान दे दो ।
ऋषियों नें मात्र साष्टांग प्रणाम किया श्रीजी के चरणों में और चले गए ।
बलराम कुञ्ज रन्ध्र से सब देख रहे थे.......जब ऋषि मुनि चले गए तब बलराम बाहर आये ......और श्रीराधा जी के पास में ही बैठ गए थे ।
पर भाव दशा ऐसी थी श्रीराधारानी की........कि बलराम को पहचान ही नही पाईँ ।
मैं जा रहा हूँ ललिता ! बलराम नें ललिता सखी को कहा ।
उफ़ ! इस ललिता का भी यही प्रश्न.......
...दाऊ भैया ! आयेंगें श्याम सुन्दर ?
आयेंगें ! अवश्य आयेंगें ...........बलराम नें इतना कहा और जानें के लिए उठे............पर -
ये क्या कर रहे हो ? मत करो ऐसा ? बुरा लगेगा हमारी स्वामिनी को ....दाऊ भैया ! ये मर्यादा नही है ! ललिता बोलती रहीं ....पर बलराम नही माने..........और श्रीराधा रानी के चरण रज , अपनें उत्तरीय में बाँध लिया ........और प्रणाम करके ........सबको प्रणाम करके बलराम चल दिए ...............बरसानें से नन्द गाँव ।
फिर नन्दगाँव में मैयायशोदा, नन्दबाबा ......ग्वाल बाल सबसे मिलते हुये ........हस्तिनापुर के लिए चल दिए थे ।
फिर हस्तिनापुर में पाण्डवों से मिलते हुए दो दिन बाद द्वारिका के लिये निकल पड़े थे ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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