( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 2 !!
बिना यस्य ध्यानं वृजति पशुतां सूकरमुखां....
( श्रीकृष्णाष्टक )
( साधकों ! आप शाश्वत के द्वारा लिखी गयी ......"शाश्वत की कहानियाँ" पढ़ रहे हैं ........जिसमें प्रथम जगदगुरू श्री शंकराचार्य के चरित्र को ही शाश्वत नें उतारा है ।
शाश्वत अपनी टिप्पणी लिखता है जगदगुरू शंकराचार्य की जीवनी लिखते हुए ।
" आचार्य ईश्वर के ही रूप होते हैं ............ईश्वर का ही कुछ अंश लेकर ये प्रकट होते हैं ........इसलिये युग की जैसी आवश्यकता होती है ये वही करते हैं .........जैसे - युग को अगर ज्ञान की जरूरत है ..........तो आचार्य ज्ञान ही देगा ।
आचार्य शंकर के समयकाल में ........सनातन धर्म की सच में दुर्गति ही हो रही थी ..........क्यों की बौद्ध धर्म जनमानस में फैल रहा था ।
और ये बौद्ध भिक्षु सनातन धर्म को चोट पहुँचा रहे थे ।
मूर्ति पूजा का खण्डन हो रहा था .........ईश्वर को नकारा जा रहा था ।
मठ मन्दिर सब तोड़े जा रहे थे .........वो सब बौद्ध बिहार बन गए थे ।
और बौद्ध बिहारों में भी अय्याश बौद्ध भिक्षु भिक्षुणी ही वास करते थे ।
अच्छा ! उन दिनों राज शासन से भी भरपूर सहायता प्राप्त होती थी बौद्धों को ........पर सनातनी काफी पिछड़ गया था ।
तब शंकराचार्य सनातन धर्म की ध्वजा को हाथ में लेकर चल पड़े ...दक्षिण से उत्तर ............इतना ही नही .........शंकराचार्य तिब्बत भी गए ......और वहाँ जाकर बौद्धों से भीषण शास्त्रार्थ किया ......और उन सबको पराजित करते हुए .........शंकराचार्य नें हिन्दू जन मानस को आत्मशक्ति से संम्पन्न बनाया ।
शंकरम् शंकराचार्यम् केशवम् बादरायणम्........
मै शाश्वत भगवान शंकराचार्य को नमस्कार करता हूँ ।
मेरा कन्हैया कहाँ झूठ बोलता है ........गीता में उसनें कहा तो है ......"आचार्य मेरे ही स्वरूप होते हैं"
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कल से आगे का चरित्र -
हे भगवन् ! मै आपके शरण में आया हूँ ......मुझे ठुकरायें नहीं ।
नर्मदा के तट पर एक सिद्ध महात्मा थे .......श्री श्री गोविन्द गौड़ पादाचार्य ।
उनके ही चरणों में नत मस्तक हुए थे शंकर ।
इस जगत में पूज्य कौन है ?
मुस्कुराते हुए श्री श्री गोविन्द पादाचार्य ने शंकर से पूछा था ।
शंकर नें पूर्ण समर्पण की भावना से प्रणाम करते हुए उत्तर दिया ....
"गुरुतत्व" से बड़ा पूज्य इस जगत में और कौन हो सकता है !
श्री श्री गोविन्द उठे ............और शंकर को सन्यास की दीक्षा दे दी ।
कुछ समय ही रहे अपनें गुरु के सानिध्य में शंकर .......उसके बाद तो गुरु की आज्ञा मिलते ही ..........वे काशी चले आये ।
और काशी में इन्होनें ब्रह्म सूत्र , वेद वेदान्त इन सब पर भाष्य लिखना शुरू कर दिया ।
सम्पूर्ण काशी ही इनके विद्वत्ता की कायल हो गयी थी ।
पर मात्र विद्वत्ता ही काफी नही है ................केवल कहो ........केवल लिखो ......इसकी कीमत कहाँ है हमारे यहाँ ? कीमत उसकी है ....जिसनें अनुभव किया है ..........जिसनें कही बातों को जीया है ।
भगवान विश्वनाथ नें आज परीक्षा लेने की सोची.....शंकराचार्य की ।
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काशी के कई ब्राह्मण शंकराचार्य से प्रभावित होकर सन्यास ले चुके थे।
ये शिष्य साथ में ही रहते............इनको शंकराचार्य उपदेश देते थे ।
अद्वैत वाद का ................मिथ्या है सब कुछ ........सत्य एक मात्र आत्मा है .........ब्रह्म कहो या आत्मा या परमात्मा सब एक ही बात है ।
नाम रूप के प्रपंचो में मत पड़ो ...........ये सब झूठ है ....माया है ।
गंगा स्नान करके लौट रहे थे शंकराचार्य ..........साथ में कई सन्यासी शिष्य थे उन सबको उपदेश करते हुए चल रहे थे कि तभी ........
हट् जा सामनें से.....शंकराचार्य नें सामनें खड़े एक चाण्डाल से कहा ।
वो हँसा .......पर हटा नही ।
तू हटता क्यों नही है ? मै गंगा स्नान करके आया हूँ .....और सन्यासी हूँ ..............हट् तू !
शंकराचार्य नें फिर कहा ।
हँसते हुए चांडाल बोला ......बातें तो अद्वैत की करते हो ........और जीते द्वैत में हो ?
शंकराचार्य उसकी बातें सुनकर चकित थे ।
किसको हटनें के लिए कह रहे हो ?
चांडाल को ? पर चांडाल तो मिथ्या है ........ये ब्राह्मण ये शुद्र ये सब मिथ्या है .........नही ?
क्या एक मात्र सत्य आत्मा ही नही है ?
फिर क्या आचार्य ! तुम्हारी और हमारी आत्मा में कोई भेद है ?
जैसे ही चाण्डाल ये कहकर मुस्कुराया .......
तभी दौड़ पड़े आचार्य शंकर ..........और उस चांडाल के चरणों में गिरते हुए बोले .........आप मेरे भगवान विश्वनाथ हैं ...............आप मुझे उपदेश करनें के लिए आये हैं .......आप मेरी परीक्षा लेनें आये हैं ।
तभी देखते ही देखते उस चांडाल में से भगवान महादेव प्रकट हो गए थे ..................
नेत्रों से झरझर आँसू बहाते हुए ................आचार्य नें स्तुति की थी भगवान विश्वनाथ की ।
तुम उत्तीर्ण हुए आचार्य ! अब जाओ ! सनातन धर्म की ध्वजा को विश्व् में फहराओ .......ये कहते हुए अंतर्ध्यान हो गए महादेव ।
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केरला के कुछ यात्री काशी में मिले आचार्य शंकर को ।
ओह ! अच्छा हुआ आप हमें मिल गए .......आपकी माता जी अब अंतिम साँसें गिन रही हैं ................और आपको बिना देखे वो देह त्याग नही सकती ...........इसलिये आप !
पर ये अब घर कैसे जा सकते हैं ? ये तो सन्यासी हो चुके हैं ....
सन्यासी को गृह त्याग के बाद गृह में जानें का अधिकार नही होता ।
काशी के विद्वानों नें कहा ।
पर आचार्य के लिए माँ प्रथम देव थीं ...........और प्रथम देव को ही नकार देना ये आचार्य को अच्छा नही लगता ........
वो काशी से ही चल पड़े ................केरला अपनें गाँव अपनी प्रथम देवता माँ के दर्शन करनें के लिए ।
शंकर आया ! शंकर आया !
पूरे गांव में हल्ला हो गया था ।
पर शंकर नें तो सन्यास ले लिया है......एक तथाकथित विद्वान् ने कहा ।
अरे ! छोडो ............ऐसे सन्यासी बहुत देखे हैं हमनें ।
बताओ ! कहाँ नियम है ........सन्यासी एक बार घर छोड़ देता है तो वह लौटकर घर नही आता ............।
पर माँ के लिए घर आना क्या गलत है ?
हाँ गलत है .........ये शास्त्र विरुद्ध है ।
चारों ओर से आलोचना शुरू हो गयी थी शंकर की ।
पर शंकर को क्या मतलब ......लोग कुछ भी कहें ।
उनके लिए तो माँ प्रथम थीं ..................।
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माँ ! माँ ! माँ !
मै शंकर आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ ................।
शंकर ! ओह ! बस तुझे देखनें की इच्छा थी पुत्र ! ....अंतिम इच्छा .....तेनें आज इस बूढी माँ की ये अंतिम इच्छा भी पूरी कर दी ।
शंकर रो पड़े थे माँ से लिपट कर ।
पुत्र ! बता ना ...........तू तो दुनिया को उपदेश करता है ......क्या इस बूढी माँ को कुछ नही कहेगा ?
मेरा उद्धार कैसे होगा पुत्र ?
माँ नें हृदय से पूछा था शंकर से ।
माँ ! सब मिथ्या है ...........एक मात्र ब्रह्म ही सत्य है .......ये शरीर मिथ्या है ....ये जन्म मृत्यु मिथ्या है ..............सत्य ये है की आत्मा का न जन्म होता है .......न मृत्यु ।
बस हो गया ये सब .............पुत्र ! तेरी बूढी माँ ये सब नही समझती .........ये गूढ़ बातें तू अपनें विद्वान् शिष्यों को बताना .......
शंकर ! मेरे लिए सरल उपाय बता ! जिससे मै इस आवागमन से मुक्त हो जाऊँ !
माँ नें आचार्य शंकर से जब ये बात कही .......तब आचार्य गम्भीर हो गए ................आँखें बन्दकर के बैठ गए ।
तभी आचार्य के मुखारविन्द से "श्रीकृष्णाष्टक" प्रकट हुआ ।
माँ ! तू भी आँखें बन्द कर .......और हृदय के नेत्रों से देख !
कितना सुन्दर वन है .............इस वन का नाम है वृन्दावन.... माँ !
देख यमुना बह रही हैं .....नीला रँग है इस यमुना का .......ऐसे ही कृष्ण का भी नीला ही रँग है .........कदम्ब के नीचे बैठ कर बाँसुरी बजा रहा है वो .........माँ ! देख ! वो मुस्कुरा रहा है ...........।
इसी नटखट त्रिभुवन सुन्दर कृष्ण को प्राप्त करना ही मानव जीवन की धन्यता है माँ !
इसके चरण कितनें कोमल हैं ..........इनके चरणों का ध्यान कर माँ !
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण ...............
चार बार माँ के मुख से ये शब्द निकले ...................
और माँ नें अपनें देह को त्याग दिया ।
"शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णो क्षि विषयः"
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ना ! कोई शंकर की माँ के शव को हाथ नही लगाएगा ।
गांव के सारे विद्वान् उखड़ गए थे ।
अजी ! शास्त्र मर्यादा नही मानना .........हम ये सहन नही करेंगें ।
शंकर नें देरी नही लगाई ..............
अकेले ही माँ के शव को कन्धे में रखकर मशान तक ले गए ..........
और वहाँ जाकर अग्नि संस्कार भी किया ।
माँ के लिए सन्यास धर्म के नियमों की भी अनदेखी की आचार्य नें ।
और जगत को बताया कि माँ के समान देवता इस जगत में कोई नही है ......।
तभी तो आचार्य शंकर नें अपनी "प्रश्नोत्तर मालिका" में लिखा है ........
प्रत्यक्ष देवता काः ?
इसका उत्तर दिया ............माता ।
अब आगे के लिए चल पड़े थे आचार्य शंकर ...दिग्विजयी शंकर ।
शेष चरित्र कल ................
Harisharan
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