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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 111

*आज  के  विचार*

*( वो ममता की मारी - यशोदा मैया )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 111 !!*

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कल दिन भर  वर्षा होती रही .......मैं  अपनें नन्दभवन में ही रहा ।

बाहर जानें का मतलब नही था ..........वर्षा घनघोर थी ...... ।

पर  बाहर न जानें से  मुझे जो दर्शन हुआ  वात्सल्य का ........यशोदा मैया के वात्सल्य का ...........वो  अद्भुत था   ।

मैं देखता रहा  उन  ममता की मारी को ......ओह !    आज  पागल हो उठीं थीं   अपनें कन्हाई को याद करके.........उन्हें  लग रहा था कि  उनका कन्हाई  वन में गया है गैया चरानें  ।

अरे !    भींग गया होगा मेरा कन्हाई ।   मैया कुछ कहती नही हैं किसी से ......बस अकेले ही  बुदबुदाती रहतीं हैं ..........

हे भगवान !  वर्षा रुक ही नही रही ............मेरे कन्हाई को कहीं कुछ हो न जाए  !         क्या जरूरत थी   गैया चरानें जानें की ?    मैं तो मना करती रहती हूँ .....पर ये दोनों  पिता पुत्र मानें तब ना  !

भला  बताओ !   गैया भी कहीं वर्षा में भींगती हैं ?    ........अरे ! गैया हैं ......कोई  भैंस नहीं .......भैंस तो  नाक से नीचे तक  पानी रहे  तो भी तैरते हुए   घण्टो बिता जाती हैं  पानी में .........पर  गाय  को ये आदत नही होती ............ये बात समझते ही नहीं  ।

अब देखो !   बिजली भी चमक रही है ..................

ये बात यशोदा मैया किसी से कह नही रहीं ...........बस   बाहर देखती हैं  फिर ऐसे ही  कुछ कुछ बोलनें लग जाती हैं  ।

परेशान हो उठी थीं .............."बिल्कुल   उसी दिन की तरह बादल गरज रहे हैं ...........ओह !      मैं जाऊँगी  वन में ,      हाँ  मेरे कन्हाई को कुछ हो गया तो  !    मैं जाऊंगी ..............

ये क्या  !     यशोदा मैया  बाहर निकलीं...........वर्षा भीषण हैं ......

दो गोपियाँ दौड़ पडीं .......और  यशोदा मैया को पकड़ कर ले आईँ  ।

जब  पकड़ कर  ला रही थीं गोपियाँ यशोदा मैया को ...........तब मैं ही सामनें खड़ा था ....मुझे देखा ........ पहले  तो  चौंकीं ............फिर ध्यान से देखा........दाऊ  ?      तू यहाँ   ?     

मेरा देह काँप गया ............ये  सब भूल गयीं  !   मैं दो महिनें से यहीं हूँ  और ये मैया  एकाएक भूल गयीं ,   मुझे   ।

कन्हाई ?        मुझे कन्हाई कहनें लगी थीं ...............

पर तू कन्हाई नही है...........गम्भीर होकर सोचनें लगीं  ।

दाऊ ..........दाऊ भैया !           हँसी    यशोदा  जी  ।

तू नही गया   वन ?     गैया चरानें नही गया  ?   अकेले अपनें छोटे भाई को भेज दिया ...........बलराम !   तेरा भाई छोटा है ......अकेले नही भेजना था    ।

अब तू यहाँ खड़ा क्यों है  !   जा  बाहर जाकर देख   ....कहाँ गया तेरा  छोटा भाई   ।

फिर मेरा हाथ पकड़ लेती हैं ...........

"बलराम !      वो जो कार्तिक में वर्षा हुयी थी ना !   जब  तेरे भाई कन्हाई नें  गिरिराज उठाया था.....याद है तुझे ?   वैसी ही वर्षा हो रही है आज भी......देख !  कहीं बिजली न गिर जाए....तेरा छोटा भाई असुरक्षित है  वन में.....तू जा दाऊ ! जल्दी जा ।  यशोदा मैया का उन्माद विचित्र था ।

बिजली फिर चमकी...इस बार जोर से चमकी थी,  फिर गर्जना भी हुयी ।

मैं आज  उसे,   उसे पर्वत उठानें नही दूंगी .......ना !   मेरा कोमल सुकुमार कन्हाई .....हाय हाय !     सात दिन तक उठाया उसनें  पर्वत को ।

पर आज  ?      गम्भीर हो गयीं  मैया  यशोदा ...........अपनें दोनों मुठ्ठी भींच कर   ऊपर उठाते हुए बोलीं .......आज चाहे कुछ भी हो जाए .....पर मैं  अपनें लाला को पर्वत"..........ये कैसा उन्माद है - उफ़  ।

मेरा हाथ पकड़ कर  बारबार जिद्द कर रही थीं..........तू भी मना करना उसे पर्वत उठानें मत देना   ।

पर  उसी समय   किसी गोपी नें यशोदा मैया के कान में कह दिया ........"कन्हाई  तो द्वारिका में है"

और ये दाऊ   द्वारिका से ही आये हैं ..........गोपी नें कह दिया ।

जैसे ही सुना  - "कन्हाई  द्वारिका में है" ... आनन्दित हो गयी थीं  मैया ।

मैं  समझ नही पा रहा था .....मेरी बुद्धि जबाब दे रही थी.......

सच,  कन्हाई  यहाँ नहीं है  ?   वन में नही गया वह  ? 

नही .......वो द्वारिका में हैं   ।   मैने आगे बढ़कर बताया  ।

फिर ठीक है ...........अब  मैं निश्चिन्त हो गयी.........अब मैं प्रसन्न हूँ ......द्वारिका में है वो ,   तो सुरक्षित होगा.....वहाँ  मकान पक्के हैं ना ?  फिर ठीक है.........यहाँ नही है वो,  ये  अच्छा हुआ.........

मन ही मन बोलती रहीं यशोदा मैया...........

आकाश में फिर बिजली चमकी  और भयानक गर्जना......

इस बार फिर हँसी  मैया,  आकाश में देखते हुये.......अब बरस.......खूब बरस.......चमक .......बिजली  चमक तू !   अब मुझे कोई डर नही है .......आकाश !   गिरा वज्र.......मार दे मुझ  बुढ़िया को......मुझे अब कोई परवाह नही है .......मैं मर जाऊँ  यही अच्छा रहेगा  ।

कुछ देर गर्जना रुकी ........वर्षा कुछ कम हुयी ...........मगर  चौमासा की बारिश है ........फिर शुरू हो गयी  .....और  फिर  गर्जना  ।

आज कर ही ले तू अपनी कसर पूरी ........उस दिन तो  डुबाना ही चाहता था  तू ........पर मेरे कन्हाई नें तुझे ऐसा करनें नही दिया .......पर  आज कर ले .....कोई कुछ नही कहेगा ......डुबो दे  आज  हम सबको ......गिरा दे वज्र,   हम सब वृन्दावन वासियों के ऊपर  ।

अकेले आकाश की ओर देखकर बोलती रहीं मैया यशोदा........

दाऊ !      वो आएगा ना  !        एक गोपी नें पूछा...........

हाँ आएगा  .......मेरा लाला आएगा .........मैं कह रही हूँ ......अरे !   बहुत बड़ा राज्य है मेरे लाला का ........काम बहुत है द्वारिका में ........अब ऐसे द्वारिका को  दोनों भाई  छोड़ भी नही सकते ना ........दाऊ जाएगा  तब मेरा कन्हाई आएगा ................

मैनें ऐसा कुछ नही कहा है ......पर यशोदा मैया  स्वयं ही कह रही हैं  ।

क्यों ?  क्यों नही आना चाहिये  मेरे कृष्ण को  इस प्रेम की भूमि में  ?

मैं लाऊँगा ........मैं कहूँगा उसे .........तू जा  कन्हैया  !     द्वारिका में कुछ नही है ........रस-प्रेम  तो  भरा है वृन्दावन में ........यहाँ  !

बलराम जी भी  प्रेम रस में डूबकर उन्मत्त हो उठे थे ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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