*आज के विचार*
*( श्रीराधा की अद्भुत विस्मृति )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 110 !!*
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मुझे पता नही था ........न मैने "प्रेमतत्व" को इतनी गम्भीरता से कभी लिया था ....मुझे भावुकता बचपन से ही प्रिय नही थी........पर वृन्दावन इस बार जो मैं आया.......कल से तो मेरे अश्रु रुक ही नही रहे .....मैं पहले कभी रोया नही.....बचपन में कभी रोया हूँ......मुझे याद नही ।
दाऊ ! क्रोध मत करना वृन्दावन में........यही बारबार कहा था कृष्ण नें ।
नही .........मेरा क्रोध तो पिघलता जा रहा है .............
हाँ ..........दो बार क्रोध आया मुझे इन दो महीनों में ............
बलराम जी वन में बैठे हैं और विचार कर रहे हैं...........साथ में श्रीदामा हैं ।
एक तो यमुना को हलाग्र से खींच दिया था मैने ...........
और दूसरा क्रोध !
मैं क्या करता ?
"मेरे वृन्दावन में जाकर एक वानर का वध कर दिया दाऊ ? "
ये शिकायत तो करेगा कन्हैया ।
पर मैं क्या करता..........वो बरसानें की बालिकाएँ देहातीत होकर मुझे अपनी स्थिति बता रही थीं कि ..........वो वानर ........द्विविद नामक वानर .......अरे ! सब वानर "हनुमान" तो नही होते ........कोई कोई "द्विविद" भी होते हैं........कितना असभ्य था......बरसानें की बच्चीयों के पास आकर उन्हें छेड़ रहा था......गन्दे इशारे कर रहा था, मैं कैसे सह लेता.....मार दिया मूसल.....मर ही गया था एक ही बार में ।
श्रीदामा ! क्या मैने गलत किया द्विविद वानर को मारकर ?
नही दाऊ भैया ! आप नही मारते तो वह हम सबको मार देता......और वैसे भी ये वानर न जानें कहाँ से आगया था......वृन्दावन के सारे पुरानें वानरों को मारकर भगा दिया था......और ये द्विविद ! ये तो गोपियों को बहुत दुःखी करता था......दाऊ ! आपनें बहुत अच्छा कार्य किया है......हम सब वृन्दावन वाले आपके इस कार्य से बहुत प्रसन्न हैं ।
फिर कुछ देर बाद श्रीदामा नें कहा - दाऊ भैया ! बरसानें चलें .........शाम तक वापस आजायेंगें नन्दगाँव .............
मुझे बरसानें की हवा में प्रेम की सुगन्ध मिलती है .........हाँ मुझे वहाँ की मिट्टी भी ले जानी है द्वारिका ........कन्हैया नें कही थी ।
हम दोनों श्रीदामा और "मैं बलराम" .......बरसानें के लिये चल पड़े थे ।
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"गहवर वन" में जाकर हम दोनों बैठ गए थे ..........गहवर वन के ही दूसरे कुञ्ज में श्रीराधारानी और सखियाँ विराजीं थीं ......
एक कुञ्ज में हम बैठ गए ।
"कभी कुछ नही खाती राधा ..........जब से कन्हैया गए हैं तब से राधा कुछ नही खाती ..........न सोती है दाऊ भैया !
वर्षों हो गए कृष्ण के गए हुए ........तब से बिना खाये बिना सोये ये जीवित कैसे हैं ? मैने पूछा था श्रीदामा से ।
मेरे श्याम सुन्दर आगये ! मेरे प्राण नाथ आगये ! सखी ! देख मेरे श्याम खड़े हैं.......वो रहे ! कुञ्ज में श्रीराधा रानी नें एकाएक पुकारना शुरू किया था.......वो रहे श्याम ! मेरे श्याम सुन्दर !
अरे ! ललिता ! तूनें मुझे सजाया नही.......आज नवमी है .......आज नन्द बाबा के यहाँ उत्सव है.......मेरे श्याम सुन्दर की बधाई गा रहे होंगें .......चलो ना ! मेरे श्याम मेरी प्रतीक्षा भी कर रहे होंगें.......मेरी वेणी गूँथ दो........मुझे सुन्दर सुन्दर वस्त्र पहनाओ......आज उनका जन्म उत्सव है ।
मैं देख रहा हूँ ............दूसरे कुञ्ज में क्या लीला चल रही है ..........उन्मादग्रष्त हो गयी थीं श्रीराधारानी ...........मुझ से ये सब सहन नही होता ..........मुझसे ये सब देखा भी नही जाता ।
मुझे इस तरह बैचेन देख श्रीदामा नें कहा - ये विस्मृति ही राधा का जीवन है .......इन्हीं विस्मृतियों के सहारे इनका जीवन चल रहा है ।
मैं समझा नही .......................मैने पूछा ।
दाऊ भैया ! कन्हैया हमें छोड़कर चले गए.......इस प्रसंग की जब विस्मृति होती है राधा को ......तब मेरी बहन प्रसन्न हो उठती है .........चहकती है........उसे लगता है कि श्याम आगया ........उसका प्रियतम आगया ........दाऊ ! यही विस्मृति मेरी बहन राधा के जीवन को सम्भाले हुये है .........ये जो एकाएक भूल जाती हैं कि कन्हैया वृन्दावन को छोड़कर जा चुका है..........बस ये "भूलना" ही इनके जीवन के लिये अच्छा है ।
मैं श्रीदामा की बातें सुनकर चकित था ।
तभी मैने देखा - हे राधा ! कृष्ण द्वारिका गए..........इस बात को अच्छे से समझ लो ..........सच्चाई यही है .........ये चन्द्रावली सखी थी ......जिसनें स्पष्ट कह दिया था ।
हे वज्रनाभ ! तुमनें वियोग और हास्य को एक साथ देखा है ?
ओह ! कैसा दृश्य हो जाता है .................
बलराम से भी ये दृश्य देखा नही गया ................
आँसू बह रहे हैं .........और हँसी फूट रही है ।
एकाएक दृश्य बदल गया था ......मात्र चन्द्रावली के इतना कहनें से कि .....कृष्ण तो गये द्वारिका ।
गए द्वारिका ? हँसी फूट पड़ी श्रीराधारानी के ।
दूर है ना द्वारिका ................बहुत दूर !
पर मैं कैसे जाऊँ वहाँ ? दूर है तो मैं कैसे जाऊँ ?
फिर हँसी .........उन्माद चरम पर पहुँचा श्रीराधारानी का ।
हाँ ......मैं इस देह को त्याग दूंगी .......और फिर भूतनी बन जाऊँगी .............ललिता ! भूतनी के लिए तो दूर और पास कुछ नही होता ना ! वो तो कहीं भी जा सकती है......मैं जाऊँगी.......द्वारिका जाऊँगी ............नही नही छुऊँगी नही अपने प्रियतम को .........भूतनी का छूना अच्छा नही होता ना !
पर मैं उन्हें देखूंगी ..............दूर से देखूंगी .............उनकी सेवा होती है कि नही ......मैं देखूंगी ..........उनके चरण चाँपति हैं कि नही उनकी दुल्हनें ........मैं देखूंगी .........मैं बस उन्हें देखती रहूँगी ।
ये क्या ! ये कहते हुए लोट पोट हो रही हैं धरती पर ।
वो तपते कुन्दन की तरह जिनका अंग था ............अब कैसा काला होता जा रहा है ..............शरीर सूख रहा है .........मुख मण्डल पीला पड़ रहा है ..............अधर सूख गए हैं पपड़ी निकल रही है ।
पर एकाएक ......................
सखी ! ललिता ! देख ! नगाढ़े बज रहे हैं ...............सब झूम रहे हैं ...........नन्द के आनन्द भयो ....जय कन्हैया लाल की ........
दधि कांदा शुरू हो गया है ................बधाई लेने चल ना ।
चमक वैसी ही मुखमण्डल में छा गयी फिर ...............तपते सुवर्ण की तरह वापस उनका देह हो गया ............दिव्य तेज़ छा गया उनके आस पास ..........आनन्द से उठकर बैठ गयीं ।
मेरे श्याम सुन्दर नन्दभवन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं........चल सखी !
श्रीराधा की ये स्थिति देखकर ..........मैं जोर जोर से रोनें लगा था ।
मैं संकर्षण .....................रो रहा था ......................
विस्मृति हो गयी थी फिर श्रीराधा को ........विस्मृति ये हो गयी कि ....."कृष्ण द्वारिका गए हैं"..........इस बात को ही भूल गयीं ।
अपनें आँसू पोंछते हुए श्रीदामा नें पूछा - दाऊ भैया ! राधा का बीच बीच में भूल जाना ......ये अच्छा है ना !
मैं कुछ बोलनें की स्थिति में नही था .................मैं क्या कहूँ ? ये तो प्रीति प्रतिमा हैं राधा ।
हाँ..........ये विस्मृति ही राधा का जीवन बचाये हुए है ।
पर राधा का जीवन कौन बचाएगा ? ये स्वयं ब्रह्म आल्हादिनी हैं ......फिर ये सब क्या है ?
लीला है ! हाँ ........ये सब मेरे कन्हैया की लीला है.......पर अकेले मेरे कन्हैया से कुछ नही होता ....इसलिये ये उनकी आल्हादिनी हैं ।
मेरी तो इच्छा हो रही थी कि ......मैं दौडूँ और इन स्वामिनी के चरणों को पकड़ लूँ ..........पर मर्यादा को तोड़नें की मुझ में हिम्मत न थी ।
मैने बस हाथ जोड़कर प्रणाम किया था श्रीराधा को ।
बलराम बरसानें से लौट कर नन्दगाँव आगये ..........पर अब बलभद्र के भी अश्रु बहनें शुरू हो गए थे .......हे वज्रनाभ ! ये प्रेम है ही ऐसा ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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