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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 109

आज  के  विचार

( कन्हाई की वर्षगाँठ )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 109 !! 

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मैं  अनन्त, संकर्षण, बलभद्र, बलराम.......पर इनसे ज्यादा प्रिय नाम मुझे कोई लगता है  तो वह है .....दाऊ .......दाऊ दादा  !     कितनें प्रेम से बोलते हैं यहाँ  मुझ से ...........मैं  इसी प्रेम को फिर पानें के लिये तो वृन्दावन आया हूँ  .......सोचकर आया था  कि   कुछ दिन  रहूंगा ....पर  पूरे तीन महिनें  हो गए........मन ही नही कर रहा,    यहाँ से जानें का  ।

लौट रहा था  उस दिन  बरसानें से  नन्दगाँव की ओर.........

बैल गाडी में  मुझे बिठाया  श्रीदामा नें  और  हम  चल दिए थे  ।

कदम्ब के पुष्प का  रस  "वारुणी" पिला दिया सखियों नें ....रजोगुणी वृत्ति हो गयी थी मेरी.........शरीर का ताप बढ़ गया था ..........तब जल पीनें की इच्छा हुयी .........

चिल्लाया मैं ..........क्रोध किया मैने ........यमुनें  !    कालिन्दी ! 

गलती थी मेरी ........."मेरी अनुज वधू" हैं  कालिन्दी ........स्वाभाविक है .........प्रिय के अग्रज से  संकोच होगा ही ।

मैं चिल्लाया था.............कालिन्दी !  आओ यहाँ  !

पर  मेरे  इतना चिल्लानें पर भी ........यमुना नही आयी ......मर्यादा का पालन किया  यमुना नें ........पर मैं  !       

मैने  क्रोध से आव्हान मात्र किया था........हल मेरे हाथों में आगया  ।

बस मैने  क्रोध से खींच दिया  यमुना को हल से .....और  जल पीया   ।

ये बात जाकर  कन्हैया से कहूँगा  द्वारिका में .......तब  वो क्या सोचेगा ?

सोचेगा क्या  !   कहेगा .....दाऊ !   वृन्दावन में तो ये उपद्रव न मचाते ।

आहा !    ये भूमि  तो  मेरी अपनी है .......मेरी जन्मभूमि है ..... यहाँ के लोग !     कितनें प्रेम से लवालव भरे हैं ।

मैं  इन दिनों  द्वारिका में  ऋषि दुर्वासा का सत्संग करनें लगा हूँ ..........ऋषि बड़े प्रेम से  मुझे तत्वज्ञान समझाते  हैं ........ऋषि  का सत्संग  मुझे  आनन्द प्रदान करता है ...........मैं तो  योग - समाधि ..........यही विषय  सत्संग में मुझे प्रिय हैं .......और  ऋषि  दुर्वासा   मुझ से बड़े प्रसन्न भी  रहते हैं  ।

वो सत्संग में मुझे समझा रहे थे -  "जाग रहे हैं ,  निद्रा नही हैं , मनोलय भी नही हैं,  पर शरीर का ध्यान भी नही हैं,  किसी इन्द्रिय से कोई सूचना मन ग्रहण नही कर रहा .......और अपनी ऊहापोह में भी नही है ....अर्थात्  मनोराज्य भी नही है .........इसी का नाम  समाधि है"

और  यहीं तक पहुँचना  योगी का  लक्ष्य है .............ऋषि दुर्वासा तो यही कहते हैं   ।

 वृन्दावन में   "योग" नही है ........पर मुझे लगता है  योग से बड़ा  वि + योग  यहाँ है ......विशेष योग........योग से विशेष होनें के कारण इसे "वियोग" कहते हैं.......यम, नियम, आसन, प्राणायाम ,प्रत्याहार धारणा ध्यान ........इन सबको  क्रम से साध कर   उस उच्चावस्था में पहुंचनें का नाम ही  समाधि है ...................

पर यहाँ  !        वियोग की तीव्रता  प्रत्येक स्थिति में  समाधि का अनुभव करा जाती है ..................

    ये  राधा.......दिनरात रोती रहतीं हैं.....और  रोते रोते  शून्य के तांकनें लग जाती हैं ......और ऐसे ही खड़े खड़े , बैठे बैठे  अद्भुत शून्यता को उपलब्ध हो  जाती हैं .........यही तो समाधि है  ।

बलराम  मन में विचार करते हुए चल रहे हैं.............

वृन्दावन मुझे याद ही नही रहा........मैं तो  चातुर्मास,   किसी  पवित्र तीर्थ में वास करनें  के लिए  निकला था.......पर  मुझे कन्हैया नें कहा -  

दाऊ ! 

अपना वृन्दावन किसी  तीर्थ से कम है क्या  ?   

ओह !    मैने  वृन्दावन के बारे में सोचा नही था......इसलिये नही सोचा था  कि ......कृष्ण के बिना बलराम  वृन्दावन में जाकर करेगा क्या ? 

पर  कृष्ण नें जिद्द की..............और मैं तो कहूँगा     मेरे कृष्ण नें  मेरे ऊपर कृपा की .........कि  मुझे यहाँ भेज दिया ......वृन्दावन भेज दिया ..............प्रेम  रस को मैं तो भूल ही चुका था .......द्वारिका की  राजनीति, कूटनीति,  शत्रुओं से सदैव सावधान ......कितनें झंझावात ।

पर जाकर  कहना चाहूँगा कृष्ण से .............तुमनें मुझे   वृन्दावन भेज कर अच्छा किया ......बहुत अच्छा किया  ।

नन्दगाँव  आगया था ।

.......श्रीदामा को मैने  हृदय से लगा कर विदा किया  ।

दाऊ !  कल हम सब बरसानें वाले भी  आयेंगें  तुम्हारे यहाँ  ? 

हाथ हिलाते हुये  बोला था  श्रीदामा  ।

कल कन्हाई की वर्ष गाँठ है ना  !      इसलिये हम सब आयेंगें  ।

ओह !        कल है  भादौं कृष्ण अष्टमी  ?         

मैं प्रसन्न हो कर  महल में प्रवेश कर रहा था  ..........कल जन्मदिन है  हमारे कन्हाई का   ।

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ये उपहार दे आओ ना  !         मेरी  प्रार्थना है आपसे  ।

आज के  दिन तो मेरी बात मान लो ...........साल भर से  इकठ्ठी करके रखीं हैं मैने .......आज उसका  जन्मदिन है .........ले जाओ ना !  पास में ही तो है  मथुरा .................

रात्रि की वेला थी..............अर्धरात्रि  ................

पर मैया यशोदा को लग रहा है  कि   सुबह होनें वाली है  ।

मैं तो  रात्रि को,  आते ही सो गया था ..........मैया कह रही थी  कुछ खायेगा दाऊ ?    तो मैने कहा .....बरसानें के लोगों नें बहुत खिला दिया है ....मैं सो रहा हूँ  मैया  !   मैं सो गया  था  ।

हाँ ....सो जा .....सो जा !          

मेरे पास तो तू  अभी तक बैठा ही नही है .............मुझे कितनी बातें करनी है तुझ से  कन्हाई के बारे में .........पर तू  मेरे पास बैठता ही नही ......हाँ ......हम बूढ़े बड़े  लोगों के पास  तुम युवा लोग क्यों बैठोगे ? 

बोलती रहीं थीं  मैया यशोदा...........मुझे तो नींद आगयी थी ।

पर  अर्धरात्रि में ............"आप  क्यों ऐसा कर रहे हो ?     मैं वैसे ही दुःखी हूँ ......मेरा लाला   मथुरा गया,   आज वर्षों होनें को आये ........मैने उसका मुँह तक नही देखा है ..............मुझ दुखियारी का दुःख कुछ तो समझिये ......जाइए ना  !   ये  कुछ उपहार हैं  .........उसके लिये  ये मोर मुकुट है ......उसके लिये ये गुंजा की माला है .......ये माखन ।

पर यशोदा !  मैं कहाँ ले जाऊँ तेरे ये उपहार  ? 
    मथुरा में  नही है तेरा लाला ।

नन्दबाबा नें  समझाना चाहा   यशोदा को  ।

तो क्या  वो आएगा यहाँ  ?     मेरा लाला आगया ?   

हाँ ....हाँ ......मैने  देखा था उसे  यहाँ सोते हुए ..............तब मुझे लग रहा था  कि .........ये कौन है  ?      

ओह !   मेरा कन्हाई  !    अपनी मैया को याद करके आगया ............

एकाएक फिर उन्माद  !       

दौड़ पडीं थीं  यशोदा .........और  मैं  जहाँ सो रहा था  ......मेरे पास में आईँ  ........मेरे मुख के चादर को हटाया  ।

पर ये तो दाऊ है .............मेरा लाला नही आया   ।

"तुम्हारा लाला  मथुरा में भी नही हैं"

    नन्द बाबा नें  फिर समझाना चाहा ।

अच्छा !  फिर कहाँ है  ?   कहाँ गया मेरा लाला  ? 

मेरा लाला !    मेरा कन्हाई !  मेरा कनुआ  !  

कहाँ गया  ?     बताइये ना  !   जोर से चिल्लाईं  यशोदा  मैया  ।

सम्भाला  नन्दबाबा नें ............मूर्छित हो गयीं थीं  मैया तो   ।

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नन्दभवन  भरा है ..........समस्त नन्दगाँव के लोग और बरसानें के ......सब  आगये थे  ........नन्दभवन  सजा हुआ था ............।

गीत गाया जाएगा  इन सबसे  ?      

प्रत्येक वर्ष ऐसे ही सब लोग जुटते हैं   नन्दभवन में ...........कन्हाई की .वर्षगाँठ मनाते हैं ............पर नाचते नही हैं ........मैया कहती है .........छोरियों !  कुछ बधाई गाओ ..........गाओ  !   

और जब गानें लगती हैं   गोपियाँ ........तब     गानें वाली ही   गोपियाँ  सब  रोनें लग जाती  हैं ......और मैया भी ..................

नही ....आज के दिन नही रोना चाहिये ..........हमारे लाला का जन्म हुआ है .......कोई नही रोयेगा ...........सब गाओ .........

"वर्ष गाँठ मोहन की सजनी  सब मिल मंगल गाओ"

पर इससे ज्यादा किसी से नही गाया जाता  ।

"कन्हाई  मेरा था ही नही"  

.एकाएक फिर विचित्र उन्माद से भर गयीं  यशोदा मैया  ।

हाँ ........दाऊ !  तू बता  !     वसुदेव के पुत्र हो ना  तुम दोनों .........

कन्हाई  को मैने अपना माना है .........वो मेरा पुत्र कैसे हुआ ?  वो तो देवकी का जाया है ........मैं  तो बन्ध्या हूँ ..........मेरे कोई पुत्र नही ......दूसरे के पुत्र को लेकर इतराती रही .........देवकी के पुत्र को अपना कहती रही ।  ......यशोदा मैया की ये  स्थिति  अभी ठीक होनें वाली नही है ............श्रीराधारानी  नें   सम्भाला  मैया यशोदा को  ।

मैं  आज की स्थिति देख नही पाया ........मैं  गम्भीर रहनें वाला  बलराम ...........भावुकता से दूर ही रहता हूँ मैं ........

पर  यहाँ की स्थिति देख कर ....... मैं हिलकियों से रो पड़ा.... ...शायद जीवन में पहली बार इस तरह से रोया था ...........

क्यों है  कन्हाई द्वारिका में ...........उसे यहाँ होना चाहिये था  ।

पीछे से ललिता सखी आयी............दाऊ !    कृष्ण के वियोग में  पल पल जल रहे हैं यहाँ के लोग.........कुछ करो  ।

मैने अपनें आँसू पोंछे ..........और  "हाँ" ....में  अपना सिर हिलाया ।

मन गयी थी  कन्हाई  की  वर्ष गाँठ ।

कुछ गोपियाँ   गानें का प्रयास कर रही थीं -

"नन्द के आनन्द भयो"

उफ़ !   नन्द बाबा  भी आँसू पोंछते हुए दीखे   ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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