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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 108

*आज  के  विचार*

*( बरसानें में  बलराम )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 108 !!*

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इन्दु !     सुन ना  !       देख बरसानें में  आज  दाऊ जी आरहे हैं   सन्ध्या में .......आज मैं प्रसन्न हूँ  ....     दाऊ  को भी उनके अनुज नें ही भेजा है  ऐसा श्रीदामा भैया बता रहे थे .......हमारी याद आती है उन्हें  तभी तो भेजा है ना  अपनें अग्रज को..............

वर्षों बाद प्रसन्न देखा था मैने  अपनी स्वामिनी को ............

मेरा नाम इन्दुलेखा है ........मेरी  सखियाँ मुझे बड़े प्रेम से  इन्दु ही कहकर बुलाती हैं........पर मुझे  आनन्द तब आता है ........जब  मेरी स्वामिनी  मुझे  इन्दु कहती हैं.......हाँ  मैं   अपनी  स्वामिनी श्रीराधिका जू की  सेविका हूँ ............

पर उन करुणामयी नें  कभी हमें सेविका कहकर जाना ही नहीं ..........सखी ..........हम सेविकाओं को  भी सखी बनाकर रखनें वाली  हमारी स्वामिनी श्रीजी के सिवा और कौन हो सकता है  ।

स्वामिनी   कहती हैं  हम  सब सखियाँ हैं..............पर ये भी इन्हें प्रिय नही हैं ............कहती हैं  -  तुम  लोग ये स्वामिनी मत कहा करो ......तुम सब मेरी सखियाँ हो ............सखी  ......समझीं   ? 

मेरे पिता जी  बृजमण्डल के  सबसे बड़े संगीतज्ञों में से एक हैं .........

सागर गोप.......मेरे पिता का नाम है  सागर गोप है........गन्धर्वों की विशेष कृपा प्राप्त है मेरे पिता जी को .........देवर्षि नारद जी के प्रिय शिष्य तुम्बुरु नें   अपना वरद हस्त मेरे पिता के  मस्तक पर रख दिया था .......बस  फिर क्या चाहिये .......मेरे पिता जी  बृजमण्डल के प्रसिद्ध संगीतकार हो गए ........नही नही.......मात्र बृजमण्डल के ही क्यों   विश्व के  श्रेष्ठ गायकों में से एक हैं   ।

बचपन से ही  मुझे भी संगीत का व्यसन लग गया.....सारंगी  बजाती हूँ मैं..... सारंगी वाद्य मेरी  स्वामिनी को बहुत प्रिय है.........राग "विहाग"....   ये राग मुझे प्रिय है.......मेरी  स्वामिनी भी मुझ से यही गवाती हैं  ।

पर  इन  कुछ वर्षों से   मैं बहुत दुःखी हूँ ..............नही नही  मेरा अपना दुःख कुछ नही है........अरे ! आल्हादिनी के चरण जिन्हें प्राप्त हों ......उसे क्या दुःख हो सकता है .........पर   इन  कोमलांगी प्रिया का कष्ट  अब  मुझ से देखा नही जाता......उफ़ !     

आज  थोड़ा ठीक लगा .............क्यों की   मेरी स्वामिनी  आज कुछ प्रसन्न दीखीं ................क्यों की - सुना है  श्याम सुन्दर के  बड़े भाई बलराम पधारे हैं  ......और आज  बरसानें में आरहे हैं   ।

उन  संकर्षण के स्वागत के लिये  संगीत की व्यवस्था तू देख लेगी ?

आज्ञा भी नही देतीं  ...............बड़ा संकोच करती हैं ..........

इन्दु !   तू   ये कार्य कर देगी  ?       सखियों को भी बता दे .....श्याम सुन्दर के अग्रज आरहे हैं .........बरसानें में कुछ तो स्वागत हो उनका ।

जो आज्ञा स्वामिनी !   मैने सिर झुकाया  ।

तू ऐसे क्यों बोलती है.............तू मेरी सखी है  पगली ! 

सच में    करुणा से भरी हैं  हमारी किशोरी जी   ।

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दाऊ बरसानें आये ..........साथ में  सखाओं की टोली थी .......

श्रीदामा भैया  साथ में  चल रहे थे ..............

द्वार पर  ही  कीर्ति मैया और भानु बाबा  खड़े हैं.......दोनों नें स्वागत किया था दाऊ का........और चरण वन्दन किये थे  दाऊ नें  ..... 

वहीं  दाऊ का भोजन आदर,  सबकुछ महल में ही हुआ .........बृषभान बाबा नें   द्वारिका की समस्त जानकारी प्राप्त कर ली थी .........कीर्ति मैया  सुनती रही ........उन संकर्षण को  बड़े वात्सल्य से देखती रहीं  ।

अब सखियों को  दाऊ का एकान्त चाहिये.......ताकि   सब  अपनें प्रियतम के बारे में कुछ पूछ सकें.....चर्चा - विश्राम  हो जानें के बाद ....इन्दुलेखा  नें दाऊ को निवेदन किया.....और दाऊ कुञ्ज में पधारे थे ।

चारों ओर सखियाँ बैठी थीं......मध्य में   श्रीकिशोरी जी ..........घूँघट कर लिया था......प्रियतम के बड़े भाई हैं.....आदर तो करना ही है ।

उच्च आसन में बैठाया था  सखियों नें   दाऊ को  ।

प्रणाम किया सबनें ........श्रीजी नें  घूँघट से ही  नमन किया था  ।

विहाग राग में........मैं इन्दु ...गानें लगी थी.......मैं ही सारंगी भी बजा रही थी.........चन्द्रमा खिला था  आकाश में......कुञ्जों की छटा बड़ी प्यारी थी .....इन कुञ्जों नें भी  वर्षों बाद आज  उत्सव का आनन्द लिया था  ।

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क्या हमारे प्रियतम  कभी हमें याद करते हैं  ? 

घूँघट में ही बोली थीं   श्रीराधा जी  .......बताओ ना  दाऊ भैया  !  क्या हमारे प्रियतम  कभी हमें याद करते हैं  ?   

उनका तो विवाह हो गया ना !     

अच्छा दाऊ भाई !    वे  रुक्मणी के साथ जब होते हैं ........तब  उन्हें  मेरी याद आती है  ?      फिर हँसती हैं  राधारानी  -    मेरी जैसी को कहाँ याद करते होंगें । 

दाऊ भैया !     सुना है आठ विवाह कर लिए हैं  श्याम सुन्दर नें  !  

 "सोलह हजार एक सौ आठ" ...इतनें विवाह किये हैं ...दाऊ नें कहा ।

घूँघट से ही हँसी  श्रीराधारानी ...........कुछ देर तक हँसती ही रहीं  ।

ये कुछ ज्यादा नही हो गया  ?      ललिता सखी नें व्यंग किया  ।

नही ........बिल्कुल नहीं .......अरी सखी ललिता !     ये तो ईमानदारी के विवाह हैं .............ये भी  "श्रीजी" नें ही कहा ......और फिर हँसी थीं  ।

अच्छा दाऊ भैया !  ये  तो बताओ  !    तुम तो  उनके अग्रज हो ......बड़े हो ...और  वृन्दावन में भी रहे हो........तो  कभी एकान्त पाकर ,  तुमसे  श्याम नें    हमारे बारे में   कुछ नही कहा  ?  

ये प्रश्न फिर किया  श्रीराधा जी नें   ।

हे  राधा !    आप लोगों को  ही तो  मेरा कन्हा याद करता रहता है ....

कोई भी प्रसंग हो ........आप लोगों को ही याद करता है ।

उसके हृदय में आप लोग हो ........मैं झूठ नही बोलूंगा ..........उनके सामनें आप हो .............द्वारिका में मात्र  उसका शरीर है .........उसकी आत्मा,    सबकुछ यहीं है ............वो  कतिपय प्रसंगों में मुझ से कह भी चुका है  कि .........दाऊ !  वृन्दावन  का प्रेम  बहुत याद आता है ।

हे राधा !   मैं झूठ नही कह रहा ........उद्धव,  श्याम और मैं ....शाम के समय जब  सागर किनारे घूमते हैं .........तब  श्याम सजल नयन से आप लोगों की ही चर्चा करता है ।..........कृष्णाग्रज बलभद्र    बरसानें में  श्रीराधा रानी के सामनें  बोले जा रहे हैं..........सखियाँ सुन रही हैं ...........बोलना चाहती हैं .........हाँ  उद्धव  होता तो कुछ  बोल भी देतीं .......पर  प्रियतम के बड़े भाई है.........इसलिये  केवल सुन रही हैं ......।

जब  दाऊ नें कहा.............वो  तुम्हे याद करके रोते हैं ।

ओह ! इतना सुनते ही  श्रीराधारानी   उच्च स्वर में  रोनें लगीं थीं  ........आवेश आगया  श्रीराधा को.......उन्माद में भर गयीं ।

हा  प्राण !  हा श्याम सुन्दर !    हा मनमोहन  !    

घूँघट इत्यादि को हटा कर  तमाल वृक्ष  को आलिंगन करनें के लिये दौड़ पडीं   श्रीराधा रानी .........और  वहाँ जाकर मूर्छित हो गयीं .............सखियाँ दौड़ीं   ।

दाऊ जी  नें इस दृश्य को देखा .... ....  ऐसा  प्रेम उन्माद  !  

दाऊ  का शरीर शीतल होनें लगा............ऐसा दृश्य  इन्होनें देखा नही था आज तक.......ओह !  यहाँ ऐसी स्थिति है कन्हाई को लेकर ।

ये लोग अभी भी आस लगाए बैठे हैं ............कि  वो आएगा  !

ये  बेचारी राधा !    ये सखियाँ  !    ग्वाल बाल ..........ये वृन्दावन !   मैया यशोदा ....बाबा नन्द ....उफ़  !       ये सब    तब से  विरहाग्नि में जल रहे हैं   जब से श्याम सुन्दर  यहाँ से गया है  ? 

सहन नही हुआ  दाऊ से ये दृश्य ..........अनन्त के रूप ....संकर्षण काल के स्वरूप    बलभद्र को     चक्कर आनें लगे ............शरीर ठन्डा पड़नें लगा ..............

मैं  इन्दु  .......उठी ..........और  सामनें  कदम्ब का वृक्ष्  ..........उस कदम्ब वृक्ष के फूलों से निकलनें वाला   वारुणी रस  ..........उसे लेकर आयी  मैं ......और  दाऊ भैया को   वो  वारुणी  मैने दिया ......दाऊ नें उसे पीया था .......तब उन्हें   ठीक सा लगा    । 

हे  वज्रनाभ !  

   संकर्षण भी   वृन्दावन में लगे   इस भीषण  विरहानल से डर गए थे ।

कैसे नही डरते .........ये विरहानल था ही इतना भीषण   ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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