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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 105

*आज के विचार*

*( कोयला भई न राख )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 105 !!* 

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हे वज्रनाभ !  प्रेम  जिन क्रमिक दशाओं को पार करता हुआ शुद्ध तत्व में प्रकट  होता है ........उस रहस्य को  "श्रीराधाचरित"  के माध्यम से मैं तुम्हे बता रहा हूँ .......शायद पूर्व में भी मैने तुम्हे कहा हो ......पर सुनो  - 

स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव  महाभाव  ।

और श्रीराधारानी  उसी "महाभाव" की  एक  दिव्य प्रतिमा हैं   ।  

महर्षि शाण्डिल्य आज देहभान से परे हैं........उनके देह  में  शुद्ध सात्विक भावों का उदय हो रहा है.......उनके नेत्र बह रहे हैं ....।

हे वज्रनाभ !   श्रीराधा ज्वलन्त आस्तित्व है......श्रीराधा गति है , श्रीराधा यति है ,  श्रीराधा लय है ,  श्रीराधा परम संगीत है , श्रीराधा परम सौन्दर्य है ,    श्रीराधा  एक रोमांचक अभिव्यंजना है,  श्रीराधा समस्त साहित्य की अधिष्ठात्री है ,   श्रीराधा  समस्त कलाओं की स्वामिनी हैं  ।

श्रीराधा पूर्णतम  हैं ......श्रीराधा   ब्रह्म की आल्हादिनी हैं......श्रीराधा  आनन्ददायिनी हैं  ।

 क्या क्या कहूँ  हे वज्रनाभ !     श्रीराधा क्या हैं  ?    

मैं तो इतना ही कहूँगा ..........श्रीराधा क्या नही हैं  ?   

ये कहते हुए  महर्षि शाण्डिल्य के मुखमण्डल में  एक दिव्य तेज़ छा गया था ।

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आइये महर्षि !      बड़ी कृपा की आपनें  जो हमारे महल में पधारे ।

मैं  आज  बरसानें निकल आया था..........फिर मन में विचार किया  क्यों न  बृषभान जी से भी मिल ही लिया जाए ...........

साधुपुरुष हैं वो तो............ऐसा विचार करते हुए  मैं  बृषभान जी के महल में चला गया.........सच ये है  कि  मेरे मन में लोभ था -  उन महाभाव  स्वरूपा श्रीराधारानी के दर्शन करनें का  ।

आइये  महर्षि !    बड़ी कृपा की  आपनें  जो हमारे ..............

मुझे देखते ही  वो  द्वार पर आगये थे ........और  बड़े प्रेम से  मेरे पाँव में अपनें  सिर को रखकर   प्रणाम किया था  ।

बृषभान जी !   बस ऐसे ही   आगया .......कोई विशेष कार्य नही था ।

मेरे सामनें  फल फूल  दुग्ध  इत्यादि ,  बड़े आदर के साथ कीर्तिरानी नें  रख दिए थे .......बृषभान जी  हाथ जोड़कर  प्रार्थना करनें लगे थे .....आहा !  कितना सरल और साधू स्वभाव है .......क्यों न हो  श्रीराधारानी के पिता बननें का सौभाग्य ऐसे  थोड़े ही मिलता है !

आप  कुछ तो ग्रहण करें  !      हमारे ऊपर आपकी बड़ी कृपा होगी ।

मैने दुग्ध लिया...........दोनों दम्पति प्रसन्न थे   मेरा सत्कार करके ।

कृष्ण  कहाँ गए  ?

     बहुत धीमे स्वर में  कीर्ति रानी नें मुझ से ये प्रश्न किया था ।

आप को सब पता है महर्षि !    बताइये ना !      मेरा पुत्र श्रीदामा कह रहा था कि  मथुरा छोड़ दिया  नन्दनन्दन नें   ?

हस्त प्रक्षालन करके  महर्षि नें    कीर्तिरानी  को  कहा  -

हाँ  मथुरा में अब जरासन्ध का शासन है ..............कृष्ण मथुरा को छोड़कर चले गए.........महर्षि नें इतना ही कहा ।

पर महर्षि !    वो गए कहाँ  ?    कहाँ रह रहे हैं  यदुवंशी  ?    नन्दनन्दन नें अपना ठिकाना कहाँ बनाया है  ?  बृषभान जी नें अधीर होकर  पूछा  ।

मेरे मित्र नन्द  कितनें दुःखी हैं........मुझ से उनकी दशा  देखी नही  जाती.......भीतर से रोते रहते हैं ..... बाहर से  मुस्कुराते हैं .....और जब  कृष्ण के बारे में पूछो  तो कहते हैं........"वो खुश हैं ना तो  हम भी खुश हैं.......वो जहाँ रहे खुश रहे ".........बस यही कहते हैं  वो  .......मैं उनके सामनें ज्यादा देर रुक नही सकता ......क्यों की  फिर  मेरा रोना  शुरू हो जाता है .........ओह !  विधाता तूनें  ये कैसा  दुःख दे दिया  ।

हे बृषभान जी !    आपका कहना सत्य है .........कृष्ण के प्रेम को भला कौन  भुला सकता है  ?       कृष्ण हैं  हीं ऐसे व्यक्तित्व  की  सब उनसे प्रेम करते हैं .........चराचर समस्त  उनसे प्रेम करता है   ।

द्वारिका जाकर रह रहे हैं  समस्त यदुवंशी ?  उनके नायक हैं श्रीकृष्ण ?

कीर्तिरानी नें आगे आकर ये और पूछा -  द्वारिका कहाँ है  ?        

समुद्र के किनारे  ये कृष्ण नें ही बसाया है.......महर्षि नें उत्तर दिया ।

दूर है  ?      कीर्तिरानी नें  पूछा  ।

हाँ  देवी !   दूर तो है ..............बहुत दूर है   ।

महर्षि की बातें  सुनकर  अत्यन्त पीढ़ा हुयी  दोनों दम्पति को  ।

लम्बी साँस ली  बृषभान जी नें .......और कीर्तिरानी नें फिर पूछा ।

महर्षि !    विवाह   ?         क्या कृष्ण नें  विवाह किया है  ? 

इस प्रश्न पर   रुक गए  महर्षि.....

....और  दृष्टि उठाकर जब सामनें देखा तो  !        

बताइये  महर्षि !    क्या  मेरे प्राणधन नें विवाह किया  ?    

बताइये  महर्षि !     क्या मेरे प्रियतम की कोई दुल्हन    ? 

श्रीराधारानी  आगयी थीं महल में ........ललिता सखी नें कह दिया था  कि महर्षि शाण्डिल्य को महल में जाते देखा है ...........ये सुनकर  श्रीराधारानी आगयी थीं ........पर   बात कृष्ण की चली  तो  प्रेमोन्माद में जड़वत् हो गयीं  थीं  ।     अब  बात विवाह की  जब पूछी गयी .........तब  महर्षि नें  सामनें देखा .....तो खड़ी हैं   आल्हादिनी  श्रीराधा.....महर्षि चुप हो गए थे......पर श्रीराधा नें आगे बढ़कर  पूछा -

आप मुझे बताइये  मेरे "प्राण" नें विवाह किया    ?    .

हाँ .......कर लिया........आल्हादिनी के सामनें मैं झूठ कैसे बोलता  ।

मानों  वज्रपात हुआ   बृषभान और कीर्तिरानी के ऊपर ............

महर्षि नें  सोचा था   मूर्छित हो जायेंगी  श्रीराधा........पर    ।

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महर्षि !  

   उछल  पडीं  थीं  श्रीराधारानी ..........क्या सच में  मेरे प्रियतम नें विवाह कर लिया  !   ओह !   मैं कितनी खुश हूँ  ...........मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ ..........सच  !     मेरे प्राणधन नें  विवाह कर लिया  ।

अब ठीक है ............अब उनकी सेवा अच्छी होगी .............जब थके हारे  मेरे प्रियतम  शैया में  जायेंगें.......तब उनके चरण चाँपनें वाली कोई तो  चाहिये थी ना  !    हँसी  श्रीराधा रानी ......खूब हँसी   ।

अच्छा बताओ महर्षि !  कैसी है  मेरे प्रियतम  की  दुल्हन ?    

अच्छा उनका नाम  क्या है  ?      देखनें में सुन्दर है  ?  

मुझ से तो सुन्दर होगी ........है ना  महर्षि  ?     

वो तो करुणा निधान हैं मेरे प्रियतम ...........सबको स्वीकार करते हैं .....सुन्दरता  असुन्दरता  वे देखते कहाँ है  ?

मुझे ही देख लो ना  महर्षि !     मैं सुन्दर हूँ  ?     अरे !   मेरे जैसी  तो इस बृज में  अनेकन थीं ............मेरे जैसी  ?      फिर हँसी  श्रीराधा रानी ।

महर्षि ! क्षमा करना .......मुझे  ये अहंकार देनें वाले भी वही मेरे प्रियतम ही हैं ................मुझे  बारबार  -  राधे !  तू कितनी सुन्दर है ........राधे !  तुम्हारी जैसी सुन्दरी  कहीं नही है ...........

मैं भी आगयी उनकी बातों में.....और माननें लगी अपनें आपको सुन्दरी ।

अच्छा  छोडो मेरी बातों को ..............मुझे ये बताओ  -  सुन्दर है  ?  

मेरे "प्राण" की दुल्हन सुन्दर है  ?      बताओ ना  महर्षि !   

महर्षि रो पड़े !

....श्रीराधा का  ये  महाभाव देखकर  महर्षि हिलकियों से रो पड़े थे ।

चलो !   अब  ये राधा प्रसन्न है ...........बहुत प्रसन्न है ..........मैं सोचती थी  कि   उनकी सेवा कौन करता होगा  ?      सेवक और सेविकाओं की सेवा में   और पत्नी की सेवा में,   अंतर तो होता ही है ...........कितनें थक जाते होंगें  .....उनके तो शत्रु भी बहुत हो गए हैं ना  ?      

चलो !   बहुत अच्छा,    विवाह कर लिया  मेरे "पिय" नें  ।

श्रीराधारानी   विलक्षण भाव से भर गयी थीं  आज   ।

राजकुमारी होगी .......है ना  ?    हाँ   किसी  राजकुमारी से विवाह किया होगा  ,  महर्षि !  बताओ ना   ?      

हाँ ...........राजकुमारी हैं   ।     महर्षि को कहना पड़ा    ।

अट्टहास करनें लगीं  श्रीराधारानी ...........

मैं तो ग्वालिन ........वन में वास करनें वाली .........जँगली  असभ्य ......

फिर भी मुझ से इतना प्रेम किया  उन्होंने.......मैं तो उनसे कहती थी .....मुझ में ऐसा क्या है  ?    तुम्हे  तो स्वर्ग की सुन्दर कन्याएं भी मिल जायेंगी .......तुम्हे तो नाग लोक की सुन्दरी  भी  सहज प्राप्त हो जायेंगी .....कितना कहती थी मैं  उन्हें ......पर  वो बारबार    राधे ! तेरो मुख नित नवीन सो लागे ......राधे !   तेरो  मुख चन्दा है .....और मैं चकोर  ।

बोलती जा रही थीं श्रीराधा  ।

श्रीराधा की ये दशा देखकर बृषभानुजी  और कीर्तिरानी रो रहे थे ।

"रुक्मणी"...........विदर्भ की राजकुमारी हैं  .....रुक्मणि  !

महर्षि शाण्डिल्य नें बताया  ।

ठीक किया........अब मैं बहुत प्रसन्न हैं .......अब    मुझे उनको लेकर कोई चिन्ता नही होगी   ।     प्रसन्नता से भर गयीं थीं श्रीराधा ।

पर ये क्या  !  एकाएक  फिर अश्रु बहनें लगे थे  आल्हादिनी के नेत्रों से ।

मैनें उन्हें बहुत कष्ट दिया.......मेरे "मान" नें उन्हें बहुत कष्ट दिया   ।

वे मेरे सामनें कितना डरते थे ......कातर बने रहते   मेरे "मान" से  ।

मेरी सखियों के सामनें हाथ जोड़ते रहते थे ........मेरी प्यारी को मना दो ....मेरी प्यारी प्रसन्न हो जाए -  उपाय बताओ   ।

मेरे मनुहार में वे क्या क्या नही करते थे ........... ......मैने अपनें पाँव भी दववाए उनसे ......बस मेरी प्रसन्नता  ही उनके लिये सबकुछ थी  ।

इस गर्विता राधा में था ही क्या  !  न रूप , न कोई गुण ,   बस था तो  गर्व .......केवल गर्व में रहती थी मैं   ।

पर रुक्मणि  तो  अच्छी होंगी !      सुन्दर होगी !    गुणवान होगी !

मेरी तरह तो नही ही होगी .............अच्छा हुआ  विवाह कर लिया मेरे प्रिय नें .........अच्छा   हुआ !     बहुत अच्छा हुआ ...........

ये कहते हुए   श्रीराधारानी वहाँ से चली गयीं .......कीर्ति रानी  दौड़ पडीं थीं  श्रीराधा के पीछे .........सखियों से सम्भाला था  कीर्ति मैया को ......पर  श्रीराधा  अपनें कुञ्ज में जाकर बैठ गयीं  ......शान्त भाव से ..........आज   इस भाव समुद्र में कोई  तरंगें नही थीं   ।

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क्या कहोगे  वज्रनाभ !       ये प्रेम का महासागर है ............डूबनें वाला ही  इसकी थाह  पाता है .......पर वो भी    बता नही पाता .....क्यों की शब्दों की सीमा है ...........और प्रेम असीम  ।

शेष चर्चा कल -

Harisharan

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