*आज के विचार*
*( गहवर वन में जब "रात" ठहर गयी...)*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 104 !!*
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गहवर वन.....बरसानें का गहवर वन.....यहीं मिलते थे युगलवर ।
यहाँ की वृक्ष लताएँ, मोर अन्य पक्षी सब साक्षी हैं.....प्रेम मिलन के ।
"मैं रंगदेवी"
प्रिय सखी श्रीराधारानी की ।
सारंग गोप और करुणा मैया की लाडिली बेटी .......रंगदेवी मैं ।
मेरे पिता सारंग गोप सरल और सहज स्वभाव के थे ...........मित्रता थी भानु बाबा से मेरे पिता जी की ..........और मेरी मैया करुणा, वो तो कीर्तिमैया की बचपन की सखी थीं.........मायका इन दोनों का एक ही है ........बचपन से ही मित्रता और विवाह भी एक ही गाँव बरसानें में हुआ.........कहते हैं ......मेरा जन्म भादौं शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था........तब सब नाचे थे .....कहते तो हैं कि मेरे जन्म के समय कीर्तिमैया भी खूब नाचीं थीं..........मैं एक नही जन्मी थी .......हम तो जुड़वा जन्में थे.........मेरी छोटी बहन का नाम है सुदेवी ।
हम दोनों बहनें हीं श्रीजी की सेवा में लग गयीं........और हमारी कोई इच्छा भी नही थी........विवाह तो करना ही नही था ..... श्याम सुन्दर और हमारी श्रीराधा रानी की प्रेम लीला प्रारम्भ हो चुकी थी........पता नही क्यों हम दोनों बहनों की बस यही कामना होती थी कि .....इन दोनों युगलवरों को मिलाया जाए......राधा और श्याम सुन्दर दोनों प्रसन्न रहें..........बस विधना से हमनें सदैव यही अचरा पसार के माँगा है ।
पर विधना भी हमारी लाडिली के लिये कितना कठोर हो गया था ।
असह्य विरह दे गया.......और कल तो ललिता सखी नें एक और हृदय विदारक बात बताई .......कि मथुरा भी छोड़ दिया श्यामसुन्दर नें ?
मत बताना स्वामिनी को ............यही कहा था ललिता सखी नें ।
मुझ से सहन नही होता अब ...........कैसे सम्भालूँ मैं इन्हें ।
आज ले आई थी गहवर वन.........मुझे लगा था कि थोडा घूमेंगीं तो मन कुछ तो शान्त होगा ........पर अब मुझे लग रहा है कि बेकार में लाई मैं इन्हें यहाँ..........यहाँ तो इनका उन्माद और बढ़ेगा ........क्यों कि यहीं तो मिलते थे श्याम सुन्दर और ये श्रीजी ।
वन के समस्त पक्षी एकाएक बोल उठे थे .........मैने इशारे में उन्हें चुप रहनें को कहा ..........पर मानें नहीं ........पूछनें लगे थे ..........कहाँ है श्याम ? कहाँ है श्याम ?
ओह ! मेरी श्रीराधा तो जड़वत् खड़ी हो गयीं.......चारों और दृष्टि घुमाई ..........वन को देखा ............सरोवर में कमल खिले हुए थे ......कमलों को देखा........लताओं को छूआ ।
तुम को विरह नही व्यापता ? हे गहवर वन के वृक्षों ! क्या तुम्हे याद नही आती मेरे श्याम सुन्दर कि ........क्या तुम्हे याद नही आती ! वो मेरे श्याम तुम्हे छूते थे ......क्या उनके छुअन को तुम भूल गए ?
कैसे इतनें हरे हो ? कैसे ? हे गहवर वन कि लताओं ! तुम जरी नही ?
इतना कहते हुये विरहिणी श्रीराधा , हा श्याम ! हा प्राणेश ! कहते हुये मूर्छित हो गयीं थीं ।
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रंग देवी ! कहाँ हो तुम ? मैं यहाँ अकेले ? रात हो रही है !
ओह रंग देवी ! पता नही क्यों मुझे रात्रि से डर लगता है .....मैं डरती हूँ ........क्यों की रात्रि को मेरा उन्माद बढ़ जाता है ............और रात्रि का समय कटता भी नही है ...........काटे नही कटता ।
मैने अपना हाथ दिया..........मेरे हाथों को छूते हुए -
मेरी सखी रंगदेवी ! सुना ! तुमनें सुना ! मेरे श्याम कुछ कह रहे हैं !
आहा प्यारे ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो ................
मुझसे कह रहे हैं मेरे प्राणेश ........कि राधे ! बहुत दिनों से मैने वीणा नही सुनी है .......मुझे वीणा सुना दो ..............
रंगदेवी ! अपनें प्रिय कि बात न मानना ये तो अपराध होगा .......
जाओ ! मेरी वीणा ले आओ ...........आज मैं इस गहवर वन में फिर वीणा बजाऊंगी ...............मेरे पिय भी प्रसन्न होंगें और उनकी प्रसन्नता में मेरी ही तो प्रसन्नता है ।
देख रंगदेवी ! ये वृक्ष भी सुनना चाहते हैं मेरी वीणा को ........ये लताएँ.....और ये मोर भी.......जाओ रंगदेवी ! मेरी वीणा ले आओ ।
पर रात हो गयी है .......आप महल नही चलेंगीं ?
क्या रात यहीं बितानी है ?
हँसी श्रीराधारानी .............मुझे नींद आती कहाँ है ? मुझे तो लगता है कि ये रात होती क्यों है ! दिन ही हो तो ठीक है ।
अब तू जा .......और मेरी वीणा ले आ ...........आज रात भर मैं वीणा सुनाऊँगी अपनें श्याम सुन्दर को ।
मैं क्या करती ........श्रीजी की आज्ञा का पालन ही हमारा धर्म था ।
मैं वीणा लेनें चली गयी थी महल में ।
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गहवर वन..........घना वन है .....मध्य में सरोवर है ..........चाँद खिला है .........पूर्णता से खिला है.......मानों वह भी तैयार होकर आया है वीणा सुननें के लिये..........लताएँ झूम उठीं थीं तब, जब श्रीजी नें वीणा के तारों को झंकृत किया था ।
आह ! हृदय विदीर्ण हो जाए.......ऐसा राग छेड़ा था श्रीप्रिया जू नें ।
अपनें आपको भूल गयीं थीं वीणा बजाते हुये .........अश्रु बह रहे थे नयनों से ............बहते बहते कंचुकीपट को गीला करनें लगे थे ।
मोर शान्त होकर श्रीराधारानी के पीछे खड़े हो गए .........
कोई कोई मोर तो अश्रु बहानें लगे थे ...........पक्षी भी श्रीराधा की विरह वेदना को अनुभव कर रहे थे ..............
पर ये क्या ? वीणा बजाते बजाते रुक गयीं श्रीराधारानी .........
और अपनें बड़े बड़े नयनों से चन्द्रमा की ओर देखा था ।
हे स्वामिनी ! क्यों वीणा को रोक दिया ? बजाइये ना ?
रंगदेवी नें प्रार्थना की ।
चन्द्रमा रुक गया रंगदेवी ! मेरी वीणा सुनते हुए ये रुक क्यों गया ?
ये क्या कह रही थीं ? मैं चौंक गयी ......मुझे घबराहट होनें लगी ।
आपको क्या हो गया एकाएक ? मैने पूछा ।
मुझे क्या होगा रंगदेवी ! हुआ तो इस बाबरे चन्द्रमा को है ।
श्रीराधारानी नें रँगदेवी से कहा ............और फिर बड़े गौर से चन्द्रमा को देखनें लगीं ।
ओह ! चन्द्रमा नही रुका रंगदेवी ! अब मैं समझी...........चन्द्रमा को चलानें वाला जो हिरण है ना वो रुक गया है .......देख !
हाँ अब समझी मैं रंगदेवी ! हिरण को तो वीणा की ध्वनि मुग्ध कर देती है ना.......हाँ मेरी वीणा सुनकर ये चन्द्रमा में काला काला जो दिखता है यह हिरण ही तो है.......जो इस चन्द्रमा को खींचकर चलाता है ।
रंगदेवी ! चन्द्रमा रुक गया है.......
...उफ़ ! ये श्रीराधारानी का विचित्र उन्माद ।
इसका मतलब रात रुक गयी ? ओह ! और जब तक ये चन्द्रमा चलेगा नही ........रात आगे बढ़ेगी नही ..............
रंगदेवी ! पर चन्द्रमा को चलानें वाला हिरण रुक गया है .......इस हिरण को आगे बढ़ाना आवश्यक है .......नही तो रात रुकी रहेगी ....और दिन होगा नही.......और दिन नही होगा तो ?
अद्भुत स्थिति हो गयी थी श्रीराधारानी की ।
रंगदेवी ! रात में वो ज्यादा याद आते हैं.......वो रात ही बनकर आते हैं.......ये जल्दी जाए ना चन्द्रमा......
उठकर खड़ी हो गयीं श्रीराधारानी ............नही....इस हिरण को चलाना आवश्यक है .........जब हिरण चलेगा तभी चन्द्रमा आगे बढ़ेगा .......तब रात भी बढ़ेगी .........
सोचती हैं श्रीराधारानी ।
फिर एकाएक दौड़ पड़ती हैं ..............दाड़िम के पेड़ से दाड़िम की एक लकड़ी तोड़ती हैं ..........फिर भोजपत्र के वृक्ष से भोज पत्र .........सिन्दूर के वृक्ष से सिन्दूर .............
मैं कुछ समझ नही पा रही थी कि, क्या करूँ ?
वो इतनी शीघ्र कर रही थीं सबकुछ कि .........पर क्या कर रही हैं ?
भोजपत्र को धरती में रखा .........सिन्दूर के बीज निकाले उन्हें मसला ........फिर उसे दाड़िम की लकड़ी में लगाकर .............
कुछ चित्र बना रही हैं श्रीराधारानी ।
मैनें देखनें की कोशिश की ............तो वो बना चुकी थीं ।
उफ़ ! सिंह का चित्र बनाया था ...........और उस चित्र को चन्द्रमा को दिखा रही थीं .............फिर ताली बजाते हुए हँसीं .........रंगदेवी ! देखा - सिंह के भय से हिरण अब चल रहा है .......चन्द्रमा भी बढ़ रहा है .....और रात अब चल दी है ..........अब शीघ्र ही सुबह होगी ।
ये कहते हुए वीणा को फिर हाथों में लिया श्रीराधा रानी नें .........और बजानें लगीं वीणा ................
पर मैने अपनी स्वामिनी से प्रार्थना की - आप न बजाएं .......क्यों की वीणा सुनकर फिर रुक गया हिरण तो ?
तब तो चन्द्रमा भी रुक जाएगा .....और रात भी रुक जायेगी ?
ये कहते हुए श्रीराधारानी नें वीणा रख दी थी .........
प्यारे ! सुन ली ना वीणा तुमनें ?
बोलो ना ? कहो ना ? रंगदेवी ! श्यामसुन्दर कुछ बोलते क्यों नही हैं ?
श्रीराधारानी नें मुझ से पूछा था ।
इस प्रेमोन्माद का मैं क्या उत्तर देती ?
सो गए हैं आपके प्यारे ! मैने इतना ही कहा था ।
ओह ! मैं भी कैसा अपराध करती हूँ ना ? अपनें स्वार्थ के लिये प्यारे को रात भर जगाना चाहती हूँ ........छि ! ये पाप है .........
मुझ से ये क्या हो गया !
फिर रुदन ...........फिर विरह सागर में डूब जाना श्रीराधारानी का ।
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हे वज्रनाभ ! मैं भी कभी कभी बरसाना हो आता था ...........और वहाँ की स्थिति देखता तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठता .........मुझे श्री कृष्ण से शिकायत होनें लगी थी........और दुखद तो ये भी था कि अब वो मथुरा में भी नही .....दूर दूर, वृन्दावन से बहुत दूर, खारे समुद्र में जाकर रहनें लगे थे ।............पर इन सबसे अनजान यहाँ के ये प्रेमिन लोग, बस उसी कन्हाई, श्याम, कन्हा , इन्हीं में अटके थे .........किन्तु वो ! वो तो द्वारिकाधीश महाराजाधिराज श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज बन बैठे थे ।
महर्षि शाण्डिल्य बताते हैं ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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