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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 103

*आज के विचार*

*(  जब ललिता सखी नें देखा..... )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 103 !!*

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विशोक गोप की कन्या हूँ मैं......फिर भी इतनी शोकग्रस्त क्यों हूँ ?

दुःख - सुख मेरा अपना कहाँ है  ?    मुझे  स्वयं के लिये कभी कुछ चाहिये ही नही था ..........मेरी मैया शारदा   का  कीर्तिरानी से  मित्रवत् व्यवहार था.........बस मेरा जब जन्म हुआ ..........भानु बाबा और कीर्तिरानी  नें  आकर मेरे घर में आनन्द कर दिया था  ।

मेरे बगल में ही लाकर सुला दिया था  लाडिली को........बस ,  उसी दिन से  मेरी अपनी स्वामिनी हो गयीं थीं वो ..............

फिर तो उन्हीं के महल में खेलना .......उन्हीं के वस्त्रों को पहनना .........उन्हीं को खिलाकर खाना ...............जीवन का लक्ष्य ही यही हो गया था मेरा तो .......विवाह करनें की सोची नही......श्याम सुन्दर  प्राण थे मेरे भी ........पर   वो तो  मेरी स्वामिनी  श्रीराधा को चाहते थे ........तो मैने भी  अपनी  कामना  श्रीजी के चरणों में ही चढ़ा दी थी ।

श्रीराधा की जो कामना है.....वही मेरी भी कामना  बनती जारही थी ।

मेरे बाबा नें  अच्छे अच्छे रिश्ते खोजे .............पर मुझे तो करनी ही नही थी  शादी ................

पर  क्यों  ?        कारण बताना ही पड़ेगा  तुम्हे  ललिता  !

मेरी मैया नें मुझे डाँटते हुए पूछा था  ।

मेरी लाडिली का क्या होगा  ?     मैं नही रहूँगी  तो मेरी  श्रीराधा  को कौन संभालेगा ...........ये कैसा तर्क था ...........कन्याओं को तो विवाह करके पराये घर जाना ही पड़ता है ना !     

मैया !    श्याम सुन्दर चले गए हैं मथुरा ........अब शायद ही आवें........

स्थिति बिगड़ रही है  दिन प्रतिदिन  श्रीराधा की ..............उनका उन्माद बढ़ता ही जा रहा है ..................उनके साथ  किसी को  हर समय रहना ही पड़ेगा ........नही  तो  क्या  पता     वो  अपनें जीवन लीला को ही समाप्त कर दें    ।

मैया और बाबा को समझा दिया मैने ......स्पष्टता से समझा दिया था ।

अब नही कहते  मुझ से विवाह करनें के लिये ...........पर  दुःखी होते रहते हैं ........किन्तु    मैं  तो  दुःख के अपार सागर में ही डूबी पड़ी  हूँ.......मेरी  श्रीराधा ठीक हो जाएँ ..........बस  हर देवस्थान में मैने यही माँगा है ............मेरी श्रीराधा पहले की तरह मुस्कुराये .........ब्राह्मणों को प्रणाम करते हुए  उनसे यही  आशीर्वाद मांगती हूँ  ।

गण्डा तावीज़   तन्त्र मन्त्र  क्या नही करवाया मैने   ...........

क्या चाहती हो ललिते ?   

     हर महिनें,   मैं  चली जाती हूँ   महर्षि शाण्डिल्य के पास .........और उनके पास जाकर  पूछती रहती हूँ ................

श्याम आएगा  ?     

   लाल लाल  मेरी आँखों में  महर्षि तक देख नही पाते थे ......फिर मैं ये प्रश्न भी तो     बड़े   आक्रामक होकर पूछती हूँ ...........

महर्षि कुछ नही कहते ........आँखें बन्दकर  के बैठ जाते .........और जब आँखें उनकी खुलती ......तब   अश्रु बिन्दु   लुढ़क  पड़ते  थे ........वो  सजल नयनों से मुझे देखते ..........अश्रु  बहाते हुए  मुझ से कहते .........हाथ जोड़ते हुए  मुझ से कहते .......

नही आएगा  श्यामसुन्दर  !        

क्या  !      मेरी आँखें  क्रोध से लाल हो जातीं ..............मुझे क्रोध आता था ...........क्यों की  मेरी  श्रीराधारानी की इस स्थिति के लिये जिम्मेवार कौन था  ?         

मेरे साँसों की बढ़ती गति ............और मेरा क्रोध देखकर   महर्षि  मेरे सामनें हाथ जोड़ते थे ...........और कहते ......मेरे शिष्य श्यामसुन्दर को  तुम श्राप मत देना ........तुम भगवती ललिताम्बा हो .......तुम ही त्रिपुर सुन्दरी हो  जो सदैव शिव के हृदय में ही विराजमान रहती हो .........पर  यहाँ वृन्दावन में   आल्हादिनी की सखी बनकर  तुम उनकी सेवा में ही लगी  हो  ।

महर्षि नें मेरे सामनें हाथ जोड़ दिए थे .........मैं  क्या कहती उनसे  ।

मैं शान्त होती.....अपनें आपको सम्भालती......फिर कहती - महर्षि !      मिलन कब होगा   हमारी सखी  श्रीराधा और श्याम सुन्दर का ?

कुछ वर्ष और  !  

       कितनें वर्ष और  महर्षि !   श्याम के गए हुए ........पाँच वर्ष तो बीत चुके हैं ......और कितनें  ? 

ललिते !   अभी तो बहुत समय बाकी है ........करीब   ९५ वर्ष और  ।

मेरा हृदय धक्क बोलकर रह गया......ओह !    अभी  ९५ वर्ष और ?

हाँ ....ललिते !   सम्भालना होगा  अपनी श्रीराधारानी को  ।

मैं उठ गयी .........पर जाते जाते  बोली ............महर्षि !  तुम्हारे यज्ञ कुण्ड की भस्म ले जाऊँ ?     लगा दूंगी माथे में अपनी लाडिली के ....कुछ तो  शान्ति मिलेगी  ....................मैं   कुछ भी करनें के लिये तैयार थी  अपनी  स्वामिनी के लिये ........।

महर्षि  स्वयं रो पड़े थे  मेरी भस्म ले जानें की बात सुनकर  ........कुछ नही होगा  इन सब से ललिता  !         

क्यों नही होगा  ?   प्रभावती गोपी   को  भूत लगा था.........ऊँची पहाड़ी के  तांत्रिक बाबा नें भस्म दी  और वो ठीक हो गयी ।

क्या कहें  मुझ पगली को .............महर्षि  इतना ही कहते ..........ये भूत-प्रेत की बाधा नही है  ललिता !     तुम भी समझती हो ..........

हाँ ...मैं समझती हूँ ..........पर  अभी   कुछ नही समझ पा रही हूँ  ।

मेरी स्वामिनी  मूर्छित हैं  अभी ..............अब जब उठेंगी  तब उनकी उन्मादजन्य स्थिति ..........ओह !    मैं  रो पड़ी  थी   ।

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नहीं  नहीं .......ये झूठ है .......कह दो ना भैया ! ये झूठ है  !

ऐसी सूचना क्यों देते हो तुम !   अब मैं ये बात  अपनी स्वामिनी को कैसे बताऊँ  ?       

मत बताओ  !        पर  ललिता !   मैने तुम्हे बता दिया है .........सच्चाई यही है   ।      श्रीदामा भैया  ये क्या कह गए  !

मैं शून्य में ताकती रह गयी ..........मेरे कुछ समझ में नही आरहा था  कि ये दूसरा वज्रपात  हमारे ऊपर क्यों  ? 

हमारा राजा   अब जरासन्ध  !     ओह !   

श्यामसुन्दर  अपनें परिवार, समाज के सहित  मथुरा छोड़कर जा चुके थे...........कहाँ ?      पर ये बात श्रीदामा भैया नें  हमें नही बताया ।

मैं किंकर्तव्य विमूढ़ सी हो गयी थी ........क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ  ? 

किससे कहूँ  ?       

हिलकियों से रो पड़ी थी मैं ...............धरती में अपना सिर पटक रही थी मैं ..............हाय !   ये क्या हो गया ? 

हम लोग  वृन्दावन वाले  कमसे कम  ये  सोचकर तो सन्तुष्ट थे कि .......मथुरा में  हमारा   श्याम सुन्दर है .....और मथुरा हमसे पास ही है .....हम न भी जाएँ  तो क्या हुआ .......वृन्दावन के कुछ लोग हैं  जो  मथुरा जाते आते हैं ......उन्हीं से समाचार तो मिल जाता था  कि  "श्याम कैसा है"      पर अब  ?  

हे श्याम !   हे श्याम सुन्दर !  हे प्रियतम !   हे प्राणेश !  

ओह !    श्रीराधारानी की मूर्च्छा टूट गयी थी  ।

मैं दौड़ी दौड़ी  गयी ........जल पिलाया उन्हें ............

ललिते !   चन्द्रावली जीजी !  कहाँ हैं  ?    

स्वामिनी !   आपको क्यों चाहिये  चन्द्रावली ? 

ललिते !  वह  कह रही थीं  कि ..........मैं  मथुरा जाऊँगी और श्याम सुन्दर से मिलकर आऊँगी .........कह तो मुझे भी रही थीं  चलनें के लिए।  .....पर  मैं नही जारही  मथुरा ..............

मेरी ललिते !      जा  ना !     बुलाकर ला ना .......जीजी चन्द्रावली को ....और उनसे पूछ ..........कि  मथुरा वो जाकर आईँ हैं ! .........तो हमारा श्याम सुन्दर कैसा है  ?     वो ठीक है ना  ?        पता नही क्यों ललिते !  आज मुझे घबराहट हो रही है ...........मेरे श्याम सुन्दर कुशल तो हैं ना मथुरा में  ?        जा  !   चन्द्रावली जीजी से पूछ कर आ ।

मैं रो गयी ..........पर आँसुओं को  छुपा लिया .........क्यों  कि  मेरे आँसू अगर लाडिली को दींखें .......तो वो और दुःखी हो जाती हैं ।

मैने तभी देखा ...........सैनिक बदल गए  थे ..........सत्ता ही बदल गयी थी ...........बरसानें में  सैनिकों की जो  टुकड़ी आरही थी .........पर ।

हर ग्वाल बाल के मन में यही प्रश्न  अब उठ रहा था  कि ......क्या सत्ता बदल गयी  ?      सब डरे हुये से थे भोले भाले बृजवासी  ।

ललिता !  तू जा ना  चन्द्रावली जीजी के पास .........और सुन उनसे अच्छे से पूछियो ..........मेरे श्याम सुन्दर कैसे हैं   ?      

जा !   जा  ललिता जा  !

मैं  चल रही थी .......पर कहाँ  ?        मैं  आगे बढ़कर रो गयी ..........और  वहीं बैठ गयी   ।

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हे वज्रनाभ !    सत्ता बदल गयी थी मथुरा की ...........आक्रमण कर दिया था जरासन्ध नें ...........और इतना ही नहीं ..........विश्व का सबसे बड़ा आतंककारी  "कालयवन"  को अपनें साथ में करके ........ये  और उग्र हो उठा था ............कृष्ण   नें  स्थापत्य कला की  एक अद्भुत कृति  सागर के बीचों बीच  द्वारिका में बना ली थी .......रातों रात ........इसमें  देव शिल्पी विश्वकर्मा नें  अपनी सेवा  दी थी कृष्ण को   ।

और इधर मथुरा में  आधिपत्य हो गया था जरासन्ध का .........

और वृन्दावन के ये प्रेमी लोग  अभी भी प्रतीक्षा में हैं  कि   -   "कन्हाई आएगा"..................अब इनको कौन समझाये कि .......जिस कन्हाई को  तुम  अपना मान कर  खिलाते पिलाते नचाते थे ........वह  अब  द्वारिकाधीश बन चुका था    ।

शेष चरित्र कल  -

Harisharan

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