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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 101

*आज  के  विचार*

*( जब उद्धव को श्रीकृष्ण में "वृन्दावन" के दर्शन हुये...)*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 101 !!*

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श्रीकृष्ण का शरीर - रोम रोम पुलकित हो उठा था  ।

वो कमल से नयन  बराबर बहते ही जा रहे थे ..........

पर  उद्धव,   लाल लाल नेत्रों से घूर रहे थे श्रीकृष्ण को ।

फिर वही कठोरता वाणी में आचुकी थी उद्धव की .......बारबार  श्रीराधारानी का वह  विरह का रूप ........ललितादि सखियाँ ......वो बिलखती मैया,    वो बाबा ..........रोते रोते खारा हो गया था वहाँ का जल भी ...............कैसे  कहा था  उस ग्वाल नें .........." कहना -  दुबला हो गया है मनसुख ........माखन खिलाकर मोटा करनें  तू आजा  ।   

कितनी आत्मीयता है वृन्दावन में ...........उद्धव  के सामनें वृन्दावन का वो  विरह का  दृश्य  घूम गया था .........इसलिये  कठोर भर्त्सना कर उठे थे  श्रीकृष्ण की ......

आप यहाँ क्यों हो ?    चलिये ना  वृन्दावन !      

मुझे आश्चर्य होता है ......उन  प्रेम की पावन रूपा  गोपियों को छोड़कर  आप यहाँ हो   ?          क्यों  ? 

आप  प्रेम की साक्षात् मूर्ति  श्रीराधा रानी को छोड़कर यहाँ हो  ?

यहाँ ?        

उद्धव  आज  मथुरा के नही हैं ..........उद्धव तो आज कृष्ण के भी नही हैं .....ये  श्रीराधा  के हो गए हैं ........ये वृन्दावन के हो गए हैं   ।

क्यों आगये  "तुम" दौड़े दौड़े  मथुरा में  ?    बोलो ?  

"आप" कहना भी  अब भूल गए उद्धव  ।

कोई प्रलय नही आरहा था  कि तुम सब कुछ छोड़कर यहाँ आगये  ?

अब चलो वहाँ !     

उद्धव के नेत्र सजल हो उठे थे..........ओह !  कितनी खुश होंगीं तुम्हे देख कर मैया यशोदा !   कितनी खुश होंगीं   गोपियाँ  !    बाबा  कितनें  प्रसन्न होंगें..........और आपकी  वो आल्हादिनी  , मेरी गुरु  श्रीराधारानी  कितनी  आनन्दित हो उठेंगीं..........उद्धव  कृष्ण का हाथ पकड़ कर  बोले ........चलो !   अभी  चलो   ।

तुम  मथुरा में हो  ?      यहाँ कौन है  जो तुमसे इतना प्रेम करता है  ?

और रही वहाँ के  प्रेम की बात  !   तो हे  गोविन्द !     इस उद्धव में  वहाँ के विरह का  एक अंश भी आपाता ना ......तो ये  उद्धव मर गया होता ।

विचार करो  वो कैसे जीती होंगीं .........कितनी पीढ़ा होती होगी ..........वो  हर समय तुम्हारी याद में तड़फती हैं यार  ! 

चिल्ला पड़े थे उद्धव  !         

वो तेरी पगली मैया कहती है  -  मेरा कन्हाई आएगा ..........

मैने लाख समझाया  कि  - वो नही आएगा.......अब नही आएगा ।

पर मानती ही नही हैं  ।

तू नही जानता उद्धव !      देखना मेरे  प्रियतम श्याम आवेंगें ।

उधर  वो उन्मादिनी  श्रीराधारानी  ये कहकर बैठी हैं  ।

अरे !   आज नही तो कल तो आएगा  !      सखाओं का कहना है  ।

बृज के जन जन में ये विश्वास जमा है .......और जमानें वाले तो तुम्हीं थे ना ............क्यों  सच  बात नही बोल सके तुम भी  !   

अब चलो !    हे  गोविन्द  !   चलो  !   

फिर हाथ पकड़ कर जब  उठानें लगे कृष्ण को   उद्धव .......

जो हो जाए ....हो जाए मथुरा में ......आजानें दो प्रलय मथुरा में ......पर  तुम चलो..........वो  आस लगाएं  बैठे हैं  ।

तभी  -

उद्धव !    मेरे  भाई !  

   श्रीकृष्ण का मेघगम्भीर स्वर गूँजा  ।

कहाँ चलो ?   

 कहाँ चलूँ तुम्हारे साथ  , किसके पास चलूँ ?      बोलो  उद्धव  !

"श्रीराधा के पास".........उद्धव नें हाथ जोड़कर कहा  ।

मुस्कुराये  कृष्ण .............राधा !    लम्बी साँस ली   ।

राधा,  कृष्ण से दूर होती  तो  ये कृष्ण  रहता ही नही - होता ही नहीं  ।

राधा है  तभी कृष्ण का आस्तित्व है    उद्धव  ।

वो मुझ से दूर हैं,  जो यहाँ आएं?  मैं उनसे दूर हूँ  जो उनके पास जाऊँ ? 

नही उद्धव !   नही .........कोई दूर नही है .......

मैं समझा नही  गोविन्द !   उद्धव नें हाथ जोड़ कर पूछा  ।

उद्धव के कन्धे में हाथ रखा  कृष्ण नें.......और बड़े सहज ढंग से बोले  !

गुरु तो बना लिया  मेरी राधा को .......पर  उद्धव  !   तुमनें  कुछ चीजें ध्यान से नही देखीं  ?       दिव्य तेज़युक्त मुखमण्डल हो गया था कृष्ण का ......उद्धव  कुछ समझ नही पा रहे थे  ।

तुमनें  श्रीराधा के हृदय में नही देखा ......तुमनें  श्रीराधा के रोम रोम में नही देखा .......गोपियों  के ,  ग्वालों के .......मैया यशोदा बाबा नन्द के ......अंग को भी ध्यान से देख लेते ......तो  उद्धव !  तुम्हे मैं दीख जाता .......सच कह रहा हूँ  उद्धव !     वृन्दावन के कण कण में,  मैं हूँ.......मैं हूँ .....मैं ही हूँ ......गम्भीर वाणी गूँज रही थी श्रीकृष्ण की  ।

अगर  नही देख पाये वृन्दावन में ये सब ............तो  मैं खड़ा हूँ तुम्हारे सामनें उद्धव ........देखो  मेरे अंग अंग में ........देखो उद्धव !   मेरे रोम रोम में  मेरी राधा है .......मेरे ग्वाल हैं ....मेरी मैया है ..........सम्पूर्ण वृन्दावन का दर्शन करो उद्धव !       ये वृन्दावन मेरे साथ है .......मैं इससे दूर नही होता .....और न ये मुझ से दूर है   ।

उद्धव नें  देखा ..........श्रीकृष्ण  का दिव्य देह  आकाश की तरह है ......नीला रँग है .....अद्भुत  !

पर एकाएक  गौर वर्ण  उभर आता है ..........दिव्य तेज़ युक्त गौर वर्ण ।

ऐसा लगता है उद्धव को .....नीले आकाश में  चन्द्रमा  प्रकट हो गया हो ।

श्रीराधा रानी और  कृष्ण  दोनों मिल रहे हैं .....................

तभी एक  गम्भीर ध्वनि   -   उद्धव !    देख  !  

जिस ओर से ये  ध्वनि आयी थी उधर ही देखा उद्धव नें ............

दिव्य लोक है .....गोलोक.......गौ चारण करनें के लिये  सखाओं के साथ  कन्हाई  निकले हैं .......सब सखाएं हैं ... .....खेलते कूदते  जा रहे हैं ।

उद्धव  चकित हो गए  ये सब देखकर  ........

उद्धव !      देख !       गम्भीर ध्वनि  फिर  ।

दूसरी ओर देखा ........तो     यशोदा मैया की गोद में बैठे हैं कन्हाई .........और खेल रहे हैं .....अपनें नन्हें नन्हें चरण फेंक रहे हैं  ।

उद्धव आनन्दित हो उठे  ।

उद्धव !  देख !     फिर  वही ध्वनि ,  गम्भीर ध्वनि  ।

उद्धव नें देखा -       दिव्य निकुञ्ज है........युगलवर झुला झूल रहे हैं ....

साथ में अष्ट सखियाँ हैं ..........सब झूला झुला रही हैं   ।

ललिता सखी नें  उद्धव को देखा .........मुस्कुराईँ ..........और  ले गयीं ..........हाथ खींच कर ले गयीं..........सखियों नें जब उद्धव को देखा  तब सब हँसीं .........श्रीराधा रानी भी मुस्कुराईं ............

सखियों नें     उद्धव को  पकड़कर  लहंगा पहना दिया था .....चूनर ओढ़ा दी थी.......और नचा रही थी.......उद्धव  सब कुछ भूले,   नाच रहे थे  ।

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" कोई मुझ से भिन्न नही है .......कोई मुझ से दूर नही है "

गम्भीर स्वर फिर  गुंजा   उद्धव के कानों में............

सामनें श्रीकृष्ण खड़े हैं ....मुस्कुरा रहे हैं.......तभी  देखते देखते .....वाम भाग से  आल्हादिनी का प्राकट्य हुआ .....श्रीराधारानी के दर्शन करते ही .....उद्धव    प्रसन्नता से उछल पड़े थे ......नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले ......और  युगलवर के चरणों में साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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