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"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 100

*आज  के  विचार*

*( श्रीराधारानी का यह विलक्षण रूप....)*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 100 !!*

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भक्ति की आचार्या हैं  श्रीराधारानी.....प्रेम का साकार रूप हैं श्रीराधा ! 

यह बात मुझे पता थी.......हे गोविन्द !  आपनें मुझे जब वृन्दावन भेजा था ....तब आप  बिलख उठे थे .......पहली बार मैने आपके नयन भींगें हुए देखे ........आपकी हिलकियाँ फूट पडीं थीं  ।

मैं आपका सन्देश वाहक बना  वृन्दावन में चला तो गया ........पर मैने वहाँ की स्थिति जब देखी !  ....उद्धव  वृन्दावन की बातें  विस्तार से बता रहे थे  श्रीकृष्ण को  ।

हे  वज्रनाभ !   छ महिनें  तक रहे थे उद्धव वृन्दावन .........फिर छ महिनें की बातें कितनी होंगीं  !         फिर उद्धव  सारी बातें  एक ही दिन में बता भी नही सकते थे..........क्या पता,   परिणाम क्या हो  ?      

इसलिये  वज्रनाभ !   एक - एक दिन करके ...........उद्धव जी बताते रहे  अपनें गोविन्द को वृन्दावन के बारे में ............महर्षि शाण्डिल्य नें वज्रनाभ को स्पष्ट किया   ।

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हे  वत्स !     ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग........ये तीन योग हैं ....इनको जो  अच्छे से समझ लेता है.......बस,  वह मुक्त हो गया ।

ये कहकर  मेरे  गुरु बृहस्पति मुझे शिक्षा देते थे ...............तब मैं ये अच्छे से समझ रहा था कि ..........पूर्णता तभी होगी .......जब इन तीनों का समन्वय होगा .........पर   वृन्दावन नें मेरी दृष्टि बदल दी ......

जो सच्चा प्रेमी होगा ..........उसमें ज्ञान और कर्म भी होंगें  ।

उद्धव नें कहा  -  हे गोविन्द !  इस रहस्य को मैने  वृन्दावन में ही जाना ।

श्रीराधारानी  प्रेम हैं.......पूर्ण प्रेम .....विशुद्ध प्रेम ..........

पर  जहाँ प्रेम है .......वहाँ ज्ञान भी है ..............प्रेमी ही सच्चा ज्ञानी है ......क्यों की उसकी समझ में बात आगयी है कि .....मेरे प्रियतम के सिवा सब मिथ्या है ...........और जो दिखाई भी दे रहा है ......वह सब मेरा प्रिय ही है .......उसी की लीला चल रही है .........वही है  ।

यह ज्ञान सच्चे प्रेमी में सहज प्रकट होजाता है  .....इसलिये  ज्ञान,   सच्चे प्रेम की  ऊँचाई  में स्वतः है   ।

कुछ संकोच हुआ  उद्धव को........क्यों की बोलते बोलते    प्रेम का उपदेश ही  करनें लगे थे ......वो भी श्रीकृष्ण को  ।

बोलो उद्धव !    मुझे  अच्छा लग रहा है  तुम्हारा बोलना .........

उद्धव के चेहरे को छूआ  श्रीकृष्ण नें...........

संकोच मत करो भाई !   बोलो ..........बताओ  !  तुम कुछ कह रहे थे मेरी श्रीराधा के बारे में .........बोलो उद्धव !   क्या कह रहे थे तुम  ?   

प्रेम का रूप तो हैं  हीं मेरी राधा ......ज्ञान,  प्रेम में सहज है ..........पर तुम कह रहे थे  कुछ कर्म की बातें  ?   कर्म योगिनी  हैं मेरी  राधा  ? 

उद्धव !   प्रेमी आलसी नही होता .......वो सदैव उत्साहित  और  दिव्य ऊर्जा से भरा रहता है ....बाहर से देखनें में भले ही रोता बिलखता दिखाई दे  ....पर  कमजोर नही होता  प्रेमी ..........अपनें आपको मिटाकर प्रेम किया जाता है .......फिर कमजोर कैसे हुआ   ?

श्याम सुन्दर नें  उद्धव के मुख से सुनना चाहा.......श्रीराधारानी के इस रूप को भी..........तब उद्धव सुनानें लगे थे  ।

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मैं आपके कहनें से वृन्दावन गया था ....मजबूरन गया था .....आपकी आज्ञा मेरे लिये  सब कुछ है .....इसलिये गया था  .......

आप बिलख रहे थे .............मेरे लिये वो असह्य था   ।

मैं जब वृन्दावन गया ...........सन्ध्या की वेला थी ..........ग्वालों से मिला .."नन्दमहल" मुझे बता दिया था ...........मैं  महल में जाकर  मैया बाबा सबसे मिला ......रात भर  आपकी ही  चर्चा होती रही  ।

प्रातः  सूर्योदय से पूर्व  मैं   बाहर निकला..........तब मैने  जो स्थिति देखी  वृन्दावन की .......वो मुझे विचित्र लगी थी  .......

क्यों की मैने   गोविन्द !  
 आपको बिलखते , रोते देखा था .....पर वृन्दावन की स्थिति  ? 

वो पहला दिन था वृन्दावन में मेरा  -

रंगोली  सब गोपियों नें अपनें अपनें घरों के बाहर निकाले थे ..........

आँगन को गोबर से  लीप रही थीं गोपियाँ .........उनकी सुन्दर चोटी   धरती को छू रही थी ..........सुहागिन का पूरा श्रृंगार की हुयी ......गीत गाती ........कोई  आँगन लीप रही है .......कोई  माखन निकाल रही है  ।

ये सब दृश्य मैने देखा  गोविन्द !  मुझे  अजीब लगा ......आप  इनके लिये रो रहे हो ....पर ये लोग  अपनें आप  में  खुश हैं.......सारे कार्य इनके हो ही रहे हैं........रुक तो आप गए हो ...........

मेरे  वृन्दावन का वह  प्रथम दिन था ...........मुझे ऐसा ही लगा  ।

किन्तु  मैं  जब धीरे धीरे  "प्रेमतत्व" को समझनें लगा .........श्रीराधारानी की वो सखी,    ललिता सखी,    उन्होंने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की ..........

उद्धव कह रहे हैं  -   एक दिन,      बरसानें  के ब्रह्मांचल पर्वत  में  हम दोनों बैठे  अपनी अपनी चर्चा कर रहे थे........मैने  ये बात  कह दी ललिता सखी से......कि........"उधर  गोविन्द रो रहे हैं......बिलख रहे हैं......और आप लोगों का तो मैने देखा .....सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है ........आँगन भी लीपा जा रहा है .......आँगन में रंगोली भी काढ़ी  जा रही है .....माखन भी निकाला जा रहा है ........केश सज्जा भी की जारही है ।

मैं अपनी बात  पूरी कर भी नही सका था कि .....ललिता सखी उठ कर खड़ी हो गयीं ..........मैं भी उठ गया  ।

पुरे ब्रह्माचल पर्वत की ओर दृष्टि घुमाई थी ललिता नें  ।

उद्धव !    ये वृन्दावन जल जाता  कृष्ण के विरह में ...........

हाँ ......यहाँ की ये गोपियाँ , गोप,  पशु पक्षी  वृक्ष   सब जल कर राख हो जाते ............पर    हमारी स्वामिनी नें   सब को बचाकर रखा है .........

ललिता नें अपनें आँसू पोंछे  ये कहते हुए  ।

उद्धव !  तुम जो देख रहे हो ना  !      ये आँगन लीपना ,  गोपियों द्वारा नित्य पहले की तरह रंगोली काढ़ना .........गृह कार्य करना ..........

इस की प्रेरणा देनें वाली भी  हमारी स्वामिनी श्रीराधारानी हैं   ।

ललिता सखी नें  उद्धव को  वह घटना सुनाई थी......जब वृन्दावन से  चले गए थे  कृष्ण ......और उस समय जो दशा हुयी वृन्दावन की  ।

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भोजन करना छोड़ दिया था  गोप , गोपी  वन्य जीवों नें भी........

उद्धव !   तुम नही समझोगे   विरह के कष्ट को.......प्राण चले जाएँ ......वह ठीक है .....पर  प्रियतम न जाएं.....ललिता सखी नें कहा ।

दस दिन हो गए ............बस रो रहे हैं .......गोपियाँ बेसुध हैं .......गोप बालक   मथुरा की  सीमा में  पागलों को तरह खड़े  देखते रहते ........गौओं नें भी घास चरना छोड़ दिया था.........

ऐसी स्थिति  वृन्दावन की हो गयी थी उद्धव !    उस समय  हमारी स्वामिनी श्रीराधा नें  इस वृन्दावन को सम्भाला ...........

हम अष्ट सखियाँ  नित्य  श्रीजी की सेवा में लगी रहती हैं ..........

उस दिन हमनें देखा ............श्रीराधा रानी अपनें आँसुओं को पोंछ कर उठ खड़ी हुई  थीं........अद्भुत तेज़ से  चमक रही थीं  हमारी लाडिली  ।

हम सब उनके पीछे चलती गयीं ...............वह वृन्दावन में जाकर  सबको सम्बोधित करनें लगीं थीं ................

एक कदम्ब है ..............उसी कदम्ब के नीचे खड़ी हो गयीं  श्रीराधारानी ....और    उनकी  अद्भुत  वाणी  -  

क्षणों में ही  सब ग्वाल  गोपी  गौएँ  पक्षी  सब इकट्ठे हो गए थे ।

उद्धव !  उस दिन  अद्भुत बोलीं  थीं  हमारी स्वामिनी ..........

दिव्य था उद्धव  !     कर्मयोग पर श्रीराधा नें   सहज सन्देश दिया  था ।

ललिता सखी बोलीं  ।

"मैं राधा"

  बरसानें के अधिपति  श्रीबृषभान गोप की पुत्री  ।

मैनें प्रेम किया  श्याम सुन्दर से......वो चले गए अब .........पता नही आयेंगें या नही........हम मिलेंगें या नही  .....कुछ पता नही है ।

तो क्या  इसका मतलब ये है कि....हम इस जीवन को ही समाप्त कर दें ? 

मैं  राधा अगर चाहती  तो इस देह को त्याग कर...........अपनें दुःख कष्ट को कम कर सकती थी .......या मैं इस संसार को  त्याग कर  जंगल में जाकर ...जोगन बन सकती थी .........पर नही ...........प्रेम  हमारी कमजोरी नही है .........प्रेम हमारी शक्ति है .......ताकत है  ।

हे वृन्दावन वासियों !   हीनता का त्याग करो .........प्रेम करना   कमजोर व्यक्ति का  काम नही है .....इसके लिये बहुत हिम्मत चाहिये ......फिर क्यों आप लोग  इस तरह हीनता को अपनें जीवन में  स्थान दे रहे हैं !

  बोलते बोलते   लाल मुख मण्डल हो गया था श्रीराधा का ।

ऐसी हीनता  न मुझे प्रिय है .....न  हमारे  प्रियतम श्याम सुन्दर को ।

उठो !    कर्म करो... .....कर्म का त्याग उचित नही है ...........

श्रीराधारानी नें स्पष्ट कहा था  ।

इस तरह   अन्न जल का परित्याग करना ..........हमारे प्रियतम को प्रिय नही है .......कर्म का त्याग  "होना"  अलग बात है .....पर कर्म का त्याग "करना" ......ये  पाप है ........अपराध है ।

हे बृजवासियों !      कैसा प्रेम है तुम्हारा  ?     क्या प्रियतम की  प्रियता में अपनी प्रियता को मिला देना ही प्रेम नही है  ?  

अगर है .......तो आज से   हम सब  अपनें घरों का ध्यान रखेंगें .......अपनें बालकों का सम्भाल करेंगें  ..........भोजन इत्यादि   इच्छा न होनें के बाद भी ग्रहण करेंगें .........गौ चारण  के लिए जायेंगें  ।

तभी  हमारे श्याम सुन्दर प्रसन्न होंगें .........क्या आप लोग नही चाहते कि  श्याम सुन्दर प्रसन्न हों   ?      उद्धव !  हमारी स्वामिनी का यह रूप  अलग ही था ...........हम सब देखती रहीं  ।

सब बृजवासियों नें ................हमारी स्वामिनी की बातों को  स्वीकार किया ..........गोपियों को  समझाया श्रीराधा रानी नें ।

उद्धव ! तब जाकर  "बृजवासी"  कर्म में लगे थे ..........कितने सुन्दर ढंग से कर्मयोग की शिक्षा  दी थी  हमारी श्रीराधा रानी नें  ।

हे गोविन्द  !   मैं   आनन्दित हुआ था  ललिता सखी के मुखारविन्द से  श्रीराधारानी का यह सन्देश सुनकर  ।

उद्धव नें कहा  ।

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हे उद्धव !   पूर्व में  भगवान शिव की शिवा नें वो कार्य नही किये.....

इस सृष्टि में  किसी भी महिला नें  अपनें पुरुष के लिये वो कार्य नही किये .....जो कार्य  मेरे लिये  मेरी राधा नें किये हैं ..........मेरी कीर्ति बढ़ें , मेरा यश बढ़े  इसके लिये ........वियोग में ....विरह में  घुट घुट कर  बिलखती रही .....पर ............मेरे कर्म में कभी बाधा नही  बनीं  राधा  ।

हाँ उद्धव !    कभी नही...........वो चाहती  तो  मुझे रोक सकती थी मथुरा आनें से .........और वो अगर एक बार भी रोकती ......तो  इस कृष्ण में ताकत नही  कि ........रुकता नही ..............

पर .................श्रीकृष्ण  फिर  राधाभाव  में डूब गए थे  ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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