53 आज के विचार
( उन्मादिनी श्रीराधिका )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 53 !!
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सखी ! देख ना ! यह बेल उलझती जा रही है .........मेरे रोम रोम में उलझ गयी है ...........मैं तो चाहती हूँ ये लहलही रहे...पर कैसे ?
नीर से सींच - सखी !
यही तो बात है ना ! अब इन नयनों में नीर भी नही बचे .......
कितना बहें ये भी ........दोनों नालों से बहते बहते ये नीर भी अब नही बचे ।
तब तो एक ही उपाय है अब .............वही आकर सींच जाएँ इसे .....तब इस बेल में लहलही आ पाये ।
वज्रनाभ ! नयन से नीर खाली हो गए ...........ओह ! कैसा विरह होगा ..............दोनों ही नाले सूख गए ........उस विरह की अग्नि में ।
पर सच्चे प्रेमियों का विरह अद्भुत ही होता है ..........दूर गए हैं ......पर हृदय से दूर जानें की हिम्मत दोनों में ही नही है ...........दोनों ही प्रेम की डोर से बन्धे ही रहते हैं ......चाहे बाहर से कितनी भी दूरी क्यों न हो ।
हाँ कितनी भी दूरी क्यों न हो ................पर मज़ाल है कोई कमी आजाये इनके प्रेम में .............
तीर एक है ......और उस प्रेम - तीर से दोनों ही एक साथ बिंधे हुए हैं ।
कभी कभी विरह इतना बढ़ जाता है कि .....संयोग की सुखद अनुभूति करा जाता है ये विरह देव .............भिन्न होते हुए भी लगता है हम अलग कहाँ ? पर दूसरे ही क्षण प्रिय की स्मृति में फिर बह चलते हैं वे रुके हुए नाले .............और क्या ! आँसू और आह !
बड़ा दयालु है हमारा प्रियतम ...........कितनी अनमोल वस्तु दे दीं .......
एक आँसू और एक आह ! रोते रहो और आह भरते रहो .......उफ़ !
अब जायेंगें कृष्ण मथुरा, फिर द्वारिका ..............हे वज्रनाभ ! ये लीला है ............सही में देखा जाए तो श्रीराधा और कृष्ण अलग हैं कहाँ ?
पर इस दिव्य प्रेम का दर्शन कराना है जगत को ............कृष्ण यही तो चाहते हैं ......कि देखो ! देखो ! श्रीराधा का प्रेम ..निःस्वार्थ प्रेम .........रोती रही .....तड़फती रही ........पर कोई शिकायत नही ........ओह !
सुनो अब आगे के चरित्र को हे वज्रनाभ ! ......महर्षि सुनानें लगे ।
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क्या !
मूर्छित होते बचीं श्रीराधा रानी ।
विनोद मत कर ! सिर चकरा गया था श्रीराधा का .........क्यों की बात ही ऐसी सुनाई थी सुबह सुबह इस सखी नें आकर ।
"कृष्ण मथुरा जा रहे हैं"........और यह भी कहा था उस सखी नें .......अभी जा रहे हैं ....रथ तैयार है उनका ।
इस बात को सुनते ही .........पछाड़ खाकर गिर पडीं थीं ।
ललिता बिशाखा दौड़ी दौड़ी आईँ ..........क्या हुआ ?
देख ना ! ललिते ! ये मेरी परीक्षा क्यों ले रही है .........सुबह से ही कह रही है कि .........मेरा कृष्ण मथुरा जा रहा है ? ये मेरी दुश्मन क्यों बन रही है आज ........इसको बोल ...........ये सम्भव है क्या ? बोल ललिते ! ये कैसे सम्भव है ? मेरे प्राणाधार श्याम सुन्दर किसी गोपी के घर भी जाते हैं तो मुझ से पूछते हैं ........वो नया कुछ भी करते हैं तो मुझ से पूछते हैं ..........और ये कह रही है इस वृन्दावन को छोड़ वे मथुरा जा रहे हैं ! ये झूठ है .......ये झूठ बोल रही है ......ललिते ! तू कुछ बोल ना !..........श्रीराधा रानी प्रेमोन्माद से भर गयीं ........श्रीराधा की ऐसी स्थिति देख ललिता बिशाखा का हृदय फटा जा रहा है .....वो क्या कहें ! क्यों कि यही सूचना लेकर तो ये भी आयी थीं ......पर !
ओह ! कैसी हृदयविदारक सूचना है .........है ना ललिता ! झूठी है ये ............अच्छा तू बता ! चलें अब नन्दगाँव ! इसनें ये सब कह दिया ना .....तो मुझे अब नन्दनन्दन को देखनें की इच्छा हो रही है .....
चल ललिते ! चल बिशाखा ! चल .........
श्रीराधा रानी चल पडीं नन्दगाँव की ओर........मष्तिष्क काम नही कर रहा ललिता और बिशाखा सखी का...........अपनें आँसू पोंछ रही हैं .......और अपनी लाडिली को लेकर चली जा रही हैं ।
श्याम सुन्दर चले जायेंगें ..........उस दृश्य को हमारी लाडिली देख पाएगी ? ओह !
हे विधाता ! आज का दिन अच्छा नही है ............इस वृन्दावन के लिये अच्छा नही है आज का दिन ..........हाँ मथुरा के लिए तो बहुत अच्छा है ..........पर हम लोग ? फिर दृष्टि जाती है श्रीराधा रानी के ऊपर.......वो चली जा रही हैं........श्याम सुन्दर को देखना है इन्हें .......पूछना भी तो है ।
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भीड़ लगी है नन्द महल में ..................
एक रथ भी खड़ा है .........उस रथ को कोई सजा रहा है ।
इतनें लोग क्यों हैं आज नन्दमहल में ? चौंक कर पूछती हैं श्रीराधा ।
कुछ नही कहती सखियाँ.......बस श्रीराधा रानी को आगे ले जाती हैं ।
सुनो ! सुनो ! अक्रूर से ही श्रीजी पूछनें लगीं ।
हाँ ...क्या बात है ? अक्रूर नें सहजता से श्रीराधा को देखकर कहा ।
क्यों आये हो तुम ? बताओ ना ! क्यों आये हो ?
"मैं कृष्ण का काका हूँ" .........अक्रूर नें इतना ही उत्तर दिया ।
पर पहले तो कभी नही आये थे तुम यहाँ ? श्रीराधा पूछ रही हैं ।
"मैं मथुरा से आया हूँ .......और कृष्ण को ले जा रहा हूँ "
ओह ! कितना कठोर शब्द बोल दिया था अक्रूर नें ...........
इतना भी नही सोचा ......कि श्रीराधा रानी पर क्या बीतेगी ?
किसनें नाम रखा तेरा अक्रूर ? कितनी क्रोध में आगयीं थीं ये श्रीजी की सखियाँ .......और क्यों न आएं क्रोध में ........उनकी स्वामिनी मूर्छित हो गयी थीं ये सुनते ही कि ........कृष्ण जा रहा है ।
अक्रूर नाम किसनें रखा तेरा ...........अक्रूर ? तेरे जैसा क्रूर इस दुनिया में कोई नही है .............हमारे प्राणों को ले जा रहा है ...और कहता है अक्रूर नाम है तेरा ।
अक्रूर के समझ नही आरहा .......कि ये हो क्या रहा है यहाँ ?
दिव्य तेजपुंज गौरवर्णी एक आभा धरती में पड़ी है ....मूर्छित ।
वो कुछ समझ नही पारहे .................
बृजरानी यशोदा मैया से आज्ञा ली कि तुम कृष्ण को मथुरा लिए जा रहे हो ? ललिता पूछ रही है अक्रूर से ।
हाँ ...आज्ञा ली - अक्रूर का उत्तर ।
बृजपति नन्द से भी पूछा ? ललिता का ही प्रश्न था ये भी ।
हाँ उनसे भी पूछ लिया .....अक्रूर इतना बोलकर फिर श्रीराधा रानी को देखनें लगे .......।
हमसे पूछा ? बिशाखा सखी चिल्लाई ..........हम गोपियों से पूछा ?
इस वृन्दावन से पूछा ? इस वन के पक्षियों से पूछा ? इस वन के बन्दरों से .........वृक्षों से .....फूलों से .........कहते कहते रोनें लगी बिशाखा ..........।
ऐसे कैसे ले जाओगे अक्रूर ? ये वृन्दावन मर जाएगा इन कृष्ण के बिना .........हम लोग कैसे रहेंगीं ?
ओह ! इन सबका उत्तर दे पाते भला अक्रूर ?
वो तो कुछ समझ ही नही पा रहे हैं कि ये सब क्या हो रहा है ।
तभी -
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राधे ! राधे ! मेरी प्यारी !
दौड़ पड़े थे श्याम सुन्दर अपनी श्रीराधा को मूर्छित हुआ सुनके ।
उठा लिया था ......अपनी गोद में श्रीजी का मस्तक रख लिया था ।
राधे ! बोलो ! राधे ! अपनें नेत्र खोलो ........ऐसे मत करो प्यारी !
बिलख पड़े थे श्याम सुन्दर तो ।
श्याम सुन्दर ! आँखें खोलीं थीं राधिका नें .....अपनें हाथों से श्याम के कपोलों को छूआ था ।
तुम जा रहे हो ? आँखों में आँसू भर आये थे ।
कुछ नही बोल पाये श्याम सुन्दर ।
बोलो ना ! जा रहे हो ? श्रीराधा नें फिर पूछा ।
मुझे जाना पड़ेगा ........राधे ! मुझे जाना पड़ेगा ............
कब आओगे ? श्रीराधा नें फिर पूछा ।
बताओ ना ! कब आओगे ?
इसका कोई उत्तर नही दिया कृष्ण नें ।
राधे ! मेरी प्यारी ! मुझे जाना पड़ेगा ............धर्म, कर्तव्य, नीति, बहुत कुछ है जिसका मुझे निर्वाह करना है ..............
बोले बहुत थे श्याम सुन्दर..........पर श्रीराधा आज वो क्या बोल रहे हैं इसे नही सुन रही थी.........वो बस निहार रही थी अपनें प्रियतम को ......क्यों कि अब ।
तो अब सौ वर्ष के बाद मिलेंगें ? हिलकियाँ फूट पडीं श्रीराधा की ।
अपनें आँसुओं को पोंछते रहे हैं श्रीकृष्ण ।
फिर एकाएक अपनी श्रीराधा को उठाया ..........बड़े प्रेम से ..........फिर स्वयं घुटनों के बल बैठ गए उनके सामनें ..........फेंट में से अपनी बाँसुरी निकाली .............अपनें हाथों में रखते हुए सजल नयन हो गए थे ।
ये क्या है ? श्रीराधा नें पूछा ।
ये बाँसुरी है ...............राधे ! मैं ये बाँसुरी तुम्हे देता हूँ ..........
पर मुझे क्यों ? श्रीजी कुछ समझ नही पाईँ ।
मथुरा में बाँसुरी को कोई नही सुनेगा .......न द्वारिका में ........
क्यों की ये प्रेम की वस्तु है ..........जहाँ प्रेम हो वहीं ये बजती है ......अब प्रेम तो वृन्दावन में ही है ...............नेत्रों से टप् टप् आँसू बह रहे हैं श्रीकृष्ण के ..........
राधे ! ये बाँसुरी मैं तुम्हे देता हूँ ........जब मेरी याद आये बजा लेना ।
ना ! मैं नही बजाऊंगी ............तुम्हारी बाँसुरी मैं कैसे बजा सकती हूँ ?
मैं इसकी पूजा करूंगी ..........मैं इसको नित्य भोग लगाउंगी .........
मेरी जब याद आये ....इसे बजा लेना .....मैं तुम्हारे सामनें खड़ा हो जाऊँगा .....कहीं भी होऊं .......कृष्ण फिर बोले ।
हँसी श्रीराधा रानी ..........."जब याद आये बजा लेना" ?
क्या कहा तुमनें ? "जब मेरी याद आये बजा लेना बाँसुरी".......
याद नही आएगी तुम्हारी श्याम !.......इसलिये राधा ये बाँसुरी कभी नही बजाएगी........कैसा विलक्षण उन्माद था श्रीराधा रानी का ।
मेरी याद नही आएगी ? कृष्ण नें फिर पूछा ।
प्यारे ! याद उसकी आती है जिसे भूलते हैं ..........तुम्हे लगता है ये राधा तुम्हे कभी भूलेगी ? और जब भूलेगी नही तो याद कैसे ?
श्रीराधा के नेत्र फिर बह चले............बाँसुरी तो मैं बजाऊंगी ही नही .........क्यों कि प्यारे ! मैं बुलाऊँ और तुम आओ ......ये आना नही हुआ ............प्रिय ! तुम्हे जब लगे कि अपनी राधा से मिल आऊँ तब तुम स्वयं आजाना ........मैं नही बुलाऊंगी ............पता नही तुम वहाँ राजा बन जाओगे ........कितनी व्यस्तता होगी .....।
श्रीराधा रानी नें कृष्ण के कपोल छूए ............".तुम्हारे सुख में सुखी हैं हम" ........तुम्हे अच्छा लग रहा है जाना, मथुरा जाओ ! मैं कुछ नही कहूँगी ......कुछ नही.......इतना कहकर चुप हो गयीं ।
दुःख इतना बढ़ता जा रहा है भीतर ही भीतर .........कि श्रीराधा रानी जड़वत् होती जा रही हैं ..........वो कभी हँस रही हैं .........कभी रोनें लग जाती हैं .........आसुंओं से उनके वस्त्र सब भींग गए हैं ।
मत करना प्रेम ! प्रेम कभी मत करना .........और इस छलिया से तो करना ही मत ...........हँसते हुए बोल रही हैं श्रीराधारानी ।
पर इसी हँसी में विरह की वो ज्वाला दबी हुयी है .........
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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