25*आज के विचार*
*( कृष्ण को भी पावन किया श्रीराधा नें ... )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 25 !!*
प्रेम से पवित्र और क्या है ? पापी से पापी को भी पावन बना दे प्रेम ।
अरे! अच्छे अच्छे पतितों को भी पावन बनानें की हिम्मत रखता है - प्रेम ।
फिर हँसे महर्षि शाण्डिल्य ......
"पतित पावन" को भी पावन बना देती है ये प्रेम ।
और क्या ! पतितपावन कृष्ण हैं .........पर उस कृष्ण को भी पावन बनानें की शक्ति श्रीराधारानी में ही है ।
जैसे गंगा भी पापियों के पाप धोते गन्दी होजाये तो ?
हो ही जाती है ........और वज्रनाभ ! ये प्रश्न गंगा नें किया भी था जब भागीरथ तप कर रहे थे .......और बारम्बार विनती कर रहे थे कि गंगा ! आप उतरो इस धरा धाम में ......तब गंगा नें इसका समाधान चाहा था भागीरथ से .........कि मैं आ तो जाऊँगी .........पर पृथ्वी में नाना प्रकार के पापी मेरे ऊपर नहायेंगे .........और अपना पाप छोड़ कर जायेंगें .....तब मेरा क्या होगा ? मैं तो पापों का ढ़ेर लिए धीरे धीरे सिकुड़ जाऊँगी ना !
इसके उत्तर में भागीरथ नें कहा था .....गंगा ! आप उतरो पृथ्वी में .....पापी नहायेंगें तो पाप छोड़ जायेंगें पर आपमें जब कोई प्रेमी महात्मा नहायेंगें तो वो तुम्हारे में छोड़े गए पापों को नंष्ट करते हुये .....अपनी भजन की ऊर्जा तुम्हे प्रदान करके चले जायेंगें ।
हे वज्रनाभ ! ईश्वर भी अपनी ईश्वरता से थक जाता होगा ना !
पतितों को पावन करते करते .......तब अपनें में से ही वो आल्हादिनी के माध्यम से ......अपनें को पावन बनाता है ।
ये बात फिर स्पष्टतः समझते चलो ....."कि आल्हादिनी कहो ...या प्रेम कहो ....या राधा कहो ......ये सब ब्रह्म के ही तो रूप हैं.....या इस तरह से समझो कि .......ब्रह्म के ही हृदय का प्रेम आकार लेकर प्रकट होता है श्रीराधा के रूप में .........तब वह ब्रह्म भी पावन, आल्हादपूर्ण , और विश्राम को उपलब्ध होता है ।
नही नही ......बुद्धि न लगाओ ............ये मत सोचो .....कि मैं कृष्ण रूपी ब्रह्म को छोटा बता रहा हूँ .....और "राधा" को ही बड़ा बता रहा हूँ .......ये सब उसी ब्रह्म का ही विलास है .......आल्हाद है ......रास है लास्य है ।
दोनों एक ही हैं वज्रनाभ !.......इस बात को समझो .................
बस लीला है ...........ये सब लीला है .............
अब तुम ये मत पूछना की लीला क्यों है ? लीला किस लिए है ?
इसका उत्तर मैं कई बार दे चुका हूँ ......लीला का कोई उद्देश्य नही होता ....बस "अपनें आनन्द को प्रकट करना" यही है लीला का उद्देश्य ।
श्रीराधा कुण्ड में बैठे हैं .......कुण्ड की शीतल और प्रेमपूर्ण हवा में प्रसन्न हैं दोनों ही "श्रीराधाचरित्र" के वक्ता और श्रोता ..........
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हे वज्रनाभ ! मुझे पता है परम भागवत श्रीउद्धव जी आये थे और उन्होंने तुम्हे इस दिव्य श्रीराधा कुण्ड के बारे में बताया था ।
उद्धव जी बद्रीनाथ गए तो पर उनका वहाँ मन नही लगा......वापस यहीं आगये .....और इस श्रीराधा कुण्ड के निकट ही वो वास करते हैं ।
ये राधा कुण्ड दिव्य है ...........श्रीराधा रानी नें इसको प्रकट किया है ।
इतना कहकर महर्षि इस कुण्ड की कथा का गान करनें लगे .......कि कैसे इस श्रीराधा कुण्ड का प्राकट्य हुआ ।
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वो भयानक राक्षस था........."अरिष्ट" उसका नाम था.......उसके जैसा शक्तिशाली कोई नही था.......वो अरिष्ट अपना रूप कैसा भी बना लेता था ।
एक बार मथुरा में आया कंस के पास .......हे वज्रनाभ ! कंस को राक्षसों से मित्रता रखनें की एक सनक थी ........उसके बड़े से बड़े राक्षस मित्र थे....."अरिष्ट" कंस का नाम सुनकर ही मथुरा में आया था ।
कंस नें खूब स्वागत किया उसका.........और बातों ही बातों में "कृष्ण को मार दो ...मैं उससे दुःखी हूँ "........अपना दुखड़ा भी सुना दिया ।
मित्र ! कौन कृष्ण ? कहाँ रहता है ? उसका वर्णन करके सुनाओ ....मेरे रहते तुम दुःखी हो ?
"नन्दगाँव" ......कह दिया...."साँवरा रँग है" .....कृष्ण नाम है ...और ग्वाला है ...मोर मुकुट पहनाता है ......उस गांव के मुखिया का बेटा है ।
इतना काफी था उस असुर अरिष्ट के लिये ये परिचय ........
पर तुम किस रूप में जाओगे वहाँ ? कंस नें पूछा ।
तुमनें कहा ना ....वो ग्वाला है ..........तो मुझे देखो !
बस इतना कहते ही ......वो अरिष्ट तो बृषभ बन गया ।
बैल ...........बहुत बड़ा और शक्तिशाली - बैल ...............
उसे देखते ही कंस भी एक बार के लिये तो डर गया ........वो जब अपनें नथूनें से साँस फेंक रहा था .........तब ऐसा लगता था कि ......आँधी चल रही है ........कंस उसे देख कर खुश हुआ ......
जाओ मित्र ! जाओ .......मेरे उस काल कृष्ण को मारकर ही आना ।
बस वो अरिष्ट बैल के रूप में भागा ......नन्द गाँव की ओर ।
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गौ चारण करके लौट रहे हैं श्याम सुन्दर......सन्ध्या की वेला है .....
कोई कृष्ण से ठिठोली कर रहा है ........कोई हँसा रहा है ..........
आगये हैं कृष्ण अपनें महल में .....गायों को बांध दिया है गौशाळा में ।
मैया ! भूख लगी है ....कुछ दे ......थकना स्वाभाविक है ......सुबह के गए अब आये हैं ........बालक ही तो हैं ............
मैया नें लाकर माखन ......मलाई .......और रोटी रख दी है .....
पर खानें के लिए अब पहले की तरह नही.. ......मैया की गोद में ही अपना सिर रखकर लेट गए कृष्ण......आँखें मूंद ली हैं ।
मेरा लाला ! कितना थक जाता है ना..........मैया पैर दवा रही हैं .......कृष्ण को अच्छा लग रहा है ............. .तभी -
कन्हैया !
दूर से एक आवाज आयी ..........पुकारनें वाले नें भयाक्रांत होकर पुकारा था ।
कृष्ण नें सुनी .........और तुरन्त उठकर बैठ गए ।
लेट जा .......इन ग्वालों को भी चैन नही है .....जब देखो .....कन्हैया कन्हैया .....सुबह से शाम तक साथ में ही तो रहते हैं ये सब तेरे सखा !
तू लेट जा ............थक गया है ।
पर फिर आवाज आयी ..
.........कन्हैया ! सांड आगया है हमारे नन्द गांव में ....।
जोर से मनसुख चिल्लाया था .................कृष्ण फुर्ती से उठे ....और भागे बाहर .........।
अरे ! रोटी तो खा ले ...............ये भी ना !
मैया परेशान हो उठीं थीं ......बाहर गयीं देखनें ........तो .....
एक बड़ा भीषण विशाल देह का ......बैल ..........जिसनें नन्दगाँव के परिखा को तोड़ दिया था ............बड़े बड़े भवनों को अपनें सींग से ....उखाड़ फेंक रहा था ...........
गाय तो उसे देखते ही भाग रही थी .........बालकों को .....बूढों को .....जो सामनें आये .........उन्हें बस मार ही रहा था ।
कृष्ण से देखा नही गया.....वो उछलते हुए एक पेड़ पर चढ़ गए .......
और वहाँ से उस "अरिष्ट" को देखनें लगे ...............
अरिष्ट नें भी देख लिया था ......यही है .......यही है कृष्ण .......
वो दौड़ा ..........उसके दौड़नें से आँधी सी उड़नें लगी.....कोई देख नही पा रहा था कि अब क्या होगा ......कन्हैया ! बच ! सब चिल्लाये ।
उस अरिष्ट नें ये सोचा था कि ...........मैं पेड़ को ही उठाकर फेंक दूँगा ......तो कृष्ण मर जाएगा ...........
उसनें उसनें सींग से पेड़ को उखाड़ दिया .....और दूर फेंक दिया ......
पर ये क्या ! कृष्ण तो उसके ऊपर ही चढ़ गए थे .......पर कैसे ये वो असुर भी नही समझ पाया था ..........उसके दोनों सींगों को जोर से पकड़ लिया था ...............
अरिष्ट इतना तो समझ गया ......कि ये कोई साधारण नही है.........
वो दौड़ा ...........पर कृष्ण नें उसकी सींगें छोड़ी नहीं ..........हाँ .......बस थोडी ही देर में ...........उस बैल के सीगों को उखाड़ कर ...और धरती में गिरा दिया......और उसके ऊपर चढ़ गए कृष्ण ............
रक्त से लथपथ हो गया था वो .............वो धरती में गिर तो गया था ....पर अभी भी ..........वो उठनें की कोशिश में था ............कृष्ण नें एक हाथ मारा.........वो कृष्ण का हाथ उसके पेट में घुस गया .......और जब जोर से निकाला ...........तब रक्त के फुब्बारे से फूट पड़े थे ।
"मार दिया बैल को" ............अरे ! बैल को मार दिया !
पर बैल तो धर्म रूप होता है ......ऐसे बैल को नही मारना चाहिए था ।
हजार तरह की बातें उठनें लगीं उसी समय नन्दगाँव में ।
कृष्ण चुपचाप अपनें महल में आगये थे ।
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कन्हैया ! सब कह रहे हैं तूनें गलत किया ...........
मनसुख बोला ।
नही ...तू भगा देता उस बैल को ....पर मार ही देना ये तो ठीक नही था ।
मधुमंगल नें भी अपनी बात कह डाली ।
बैल कुछ भी हो हमारे शास्त्रों में धर्म रूप कहा जाता है ........
इसलिये सब कह रहे हैं.........तुझे ब्रह्महत्या लगी है ।
क्या ! कृष्ण चौंके ...........कौन कह रहा है ये सब ?
पूरे नन्दगाँव का समाज ही कह रहा है ..........सब सखाओं नें कहा ।
कृष्ण शान्त रहे .........कुछ नही बोले ।
जब दूसरे दिन गौचारण करके महल में आये .... ......तब कई लोग बैठे थे बाहर.........ये सब नन्दगाँव के पञ्च थे ।
देखो जी ! आप बृजपति हैं .........हम मानते हैं .....पर हमारा भी तो धर्म है ............ऐसे धर्म पर हम कैसे प्रहार होनें दें ..........बैल हमारा पूज्य है .......उसे तुम्हारे पुत्र नें मार दिया । गलत किया .........ऐसा नही करना चाहिये था ........अरे ! बैल, गाय ये तो हमारे धर्म के प्राण हैं ।
सब पञ्च बोल रहे थे ।
इसका समाधान ? कृष्ण आगे आये .......
तू मत बोल कन्हैया ! भीतर आ ........बड़े लोग हैं ये लोग ........तेरे बाबा हैं ना ....बात कर लेंगें.....मैया यशोदा ने भीतर खींचना चाहा कृष्ण को ।
नही ........मैनें गलती की है .....तो अब मैं भी सुनूँ कि इसका प्रायश्चित्त क्या है ?
"तीर्थ स्नान".........क्यों की ये ब्रह्म हत्या है .........इसलिये समस्त तीर्थों की नदियों में स्नान ............पंचों नें अपना निर्णय सुना दिया ।
और अगर .............सारे तीर्थ यहीं बुला लूँ तो ?
कृष्ण सहज बोले थे ।
हाँ ......ठीक है ......पर कैसे बुलाओगे यहाँ ......हँसे पञ्च ।
"एक कुण्ड में"..............कृष्ण नें उत्तर दिया ।
पर वो कुण्ड नया होना चाहिए............और हम सबके सामनें वो प्रकट हो ..........उसमें जल हमारे सामनें आये ......तब हम मानेंगें कि ये तीर्थ तुमनें प्रकट किया है .......
हाँ ...ठीक है .................
चलो .........चलो मेरे साथ ............कृष्ण नें तुरन्त कहा ।
पर अभी ? पञ्च घबड़ाये ...........हाँ ...अभी ? क्यों ?
नही ........चलो...। .....सब चल दिए ............गोवर्धन पर्वत के पास गए कृष्ण ............और एक स्थान पर ..............
आँखें बन्दकरके बैठ गए .......
गंगा, सरस्वती नर्मदा कावेरी ........बारि बारि से नाम लेनें लगे .....नदियों का .......तीर्थों का .........।
और देखते ही देखते ......जल आगया .........धार फूट पड़ी ।
सारे ग्वाल बाल नाच उठे ..........."कृष्ण कुण्ड".....कृष्ण ! इस कुण्ड का नाम कृष्ण कुण्ड है.........नाहा तू अब इसमें ।
कृष्ण नें स्नान किया ।
अब तो मेरा लाला पवित्र हो गया ....?
बृजरानी यशोदा नें गुस्से से देखा पंचो को ।
हाँ .....अब तो पवित्र हो गया आपका लाला .....ब्रह्म हत्या से मुक्त हो गया तुम्हारा लाला ।
मैया नें चूम लिया था कृष्ण को........अपनें लाडले कन्हैया को ।
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ललिता ! हमारे कृष्ण का कुण्ड बन गया .......कृष्ण कुण्ड ।
ओये ! विशाखा ! कृष्ण कुण्ड बन गया ................
हाँ तो मैं क्या करूँ ? बन जाए अच्छी बात है ......ललिता नें मनसुख की बात पर ज्यादा ध्यान नही दिया ।
पर तुम्हारी राधा रानी का कुण्ड कहाँ है ?
मधुमंगल को बोलना जरूरी है ।
सुन ! हमारी श्रीराधा रानी को ब्रह्म हत्या लगती ही नही है .........तो कुण्ड क्यों चाहिये .........जो ये पाप करे ........वो कुण्ड बनाये ।
और देख ! देख !
ललिता सखी ने ग्वाल बालों को दिखाया ......
एक ब्राह्मण पण्डित जी .............कृष्ण.कुण्ड के पास से होकर गए गोवर्धन पर्वत में .........और वहाँ के झरनें में जाकर स्नान किया ।
पूछ अब मनसुख ! कि उन पण्डित जी से कि तेरे " कृष्ण कुण्ड" में क्यों नही स्नान किया ?
मनसुख नें तो नही पूछा.........पर ललिता ही पूछ बैठी .....
अरे ! पण्डित जी ! नहा लेते इसी कुण्ड में .........क्यों नही नहाये ?
ब्रह्महत्या लगी है इस कुण्ड में ........कृष्ण का पाप इसी कुण्ड में है ......हम क्यों नहानें लगे ........पंडित जी के जबाब से मनसुख चुप हो गया ।
पर श्रीराधा रानी को आकर जब ये बात बताई ........ललिता नें .......तब सजल नयन हो गए थे श्रीराधारानी के .........
नही ललिते ! कृष्ण कुण्ड को पवित्र बनाना होगा ...... ........समाज के लोग उसमें स्नान करें ......ऐसा करना होगा .......क्यों की मेरे प्रियतम का कुण्ड है वो .........श्रीराधा रानी का हृदय प्रेम से भर गया ।
पर कैसे ? ललिता नें पूछा ।
चलो ! मेरे साथ ..........श्रीराधा रानी गयीं.........और कृष्ण कुण्ड के पास में ही जाकर ........अपनें कँगन से खोदनें लगीं पृथ्वी ........
आहा ! देखते ही देखते ............जल का स्रोत फूट पड़ा ...........
नन्दगाँव के लोग और बरसाने के लोगों में ये बात आग की तरह फ़ैल गयी .........सब दौड़े गिरिराज गोवर्धन की ओर .........
"ये कुण्ड श्रीराधारानी नें प्रकट किया है .......
और इस कुण्ड के जल में विश्व् की समस्त औषधियां हैं ........देवों के समस्त पुण्य हैं ...........ऋषियों के तप हैं .........प्रेमियों का प्रेम है .....भक्तों की भक्ति है........सब कुछ है इसमें ...........
ये बात कोई और नही कह रहा था......स्वयं भूतभावन भगवान शंकर प्रकट हुए थे आकाश में ......और समस्त बृजवासियों के सामनें ये बात कह रहे थे.......इस कुण्ड का नाम आज से "राधा कुण्ड" होगा ।
कृष्ण कुण्ड में इसका जल जाएगा ......जिसके कारण कृष्ण कुण्ड का जल पवित्र हो जाएगा ।
भगवान शंकर की दिव्य वाणी गूँज रही थी .........
"इस कुण्ड के जल में स्नान करके जो "श्रीराधा कृपा कटाक्ष" का पाठ करेगा .....और "युगल मन्त्र" का जाप करेगा उसकी समस्त कामनाएं पूरी होंगी .....और अंत में उसे निकुंजेश्वरी श्रीराधा रानी अपनी प्रेमाभक्ति प्रदान करेंगीं ........इतना कहकर भगवान शंकर नें श्रीराधा रानी को प्रणाम किया .....और अन्तर्ध्यान हो गए ।
देखा ! कृष्ण को भी पावन कर दिया हमारी श्रीराधा रानी नें ......
ललिता सखी आँखें मटका के ग्वालों को बोल रही थी ।
पतितों को पावन करनें वाले कृष्ण.........पर "पतितपावन" को भी पावन करनें वाली हमारी श्रीराधा रानी ।
सब एक स्वर में बोल उठे थे......बोलो श्रीराधा कुण्ड की जय ।
"डगर बुहारत साँवरो, जय जय राधा कुण्ड "
शेष चरित्र कल ...
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