24 *आज के विचार*
*( "श्रीराधा कुण्ड" - महिमा प्रेम की )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 24 !!*
इस वाणी में क्या सामर्थ्य जो जगदाराध्य प्रेम की महिमा को गा सके ।
हे प्रेम ! धन्य है तेरी महिमा .....धन्य है तेरा अद्भुत रहस्य .......जितना जाननें की कोशिश करो .........तेरा रहस्य उतना ही गहराता जाता है ।
और जो प्रेम की रहस्य को जाननें में लग जाता है ....वह स्वयं एक रहस्य बन जाता है ......।
धन्य है तेरी अतुलनीय शक्ति .....तू सबसे शक्तिशाली है .......ब्रह्म भी तेरे आगे नतमस्तक है ...........तू ब्रह्म को भी नचानें की ताकत रखता है ........फिर कौन गा सकता है तेरे अकथनीय चरित्र को ?
ये कहते हुये आज मौन हो गए महर्षि शाण्डिल्य ........उनसे आगे कुछ बोला नही गया ...........नेत्रों से झर झर आँसू बहते ही रहे ।
उनकी ऐसी भाव दशा देखकर.......उसी समय कृष्ण सखा श्रीउद्धव जी का प्राकट्य हुआ .......वज्रनाभ नें देखा ......सुन्दर सा रूप .....बिल्कुल कृष्ण चन्द्र जैसे .......पीताम्बरी धारण किये हुए ......मन्द मन्द मुस्कुराते हुये ..........साष्टांग प्रणाम किया चरणों में वज्रनाभ नें उद्धव जी के ।
पर महर्षि शाण्डिल्य की आज ऐसी स्थिति नही थी कि बाह्य जगत का कुछ ध्यान भी रख पाते ......वो एक प्रकार की प्रेम समाधि में बह गए थे ........उनके सामनें बस "श्रीराधा माधव" ही हैं .........उन्हें सर्वत्र वही लीला करते हुए दिखाई दे रहे हैं ..............
उनको रोमांच हो रहा है.....उनके देह से स्वेद निकल रहे हैं ......वो मूर्छित भी नही हैं .....पर बाह्य जगत उनके लिये आज शून्य हो गया है ।
साष्टांग प्रणाम किया उद्धव जी नें महर्षि शाण्डिल्य को ।
फिर वज्रनाभ की ओर देखते हुए बोले ..........बहुत भाग्यशाली हो वज्रनाभ तुम ........तुंम्हारे भाग्य को देखकर तो अन्य जितनें भी यदुवंशी थे ....वे सब बेचारे लगते हैं .......कृष्ण उनके सामनें द्वारिका में रहे .....आते जाते रहे ......फिर भी वो लोग कृष्ण को पहचान न सके ।
पर तुम ? धन्य हो तुम ! आल्हादिनी श्रीजी के पावन चरित्र को सुन रहे हो ..........और वो भी श्रीधाम वृन्दावन की भूमि में बैठ कर ......और वो चरित्र भी महर्षि शाण्डिल्य जैसे प्रेमी महात्मा के मुखारविन्द से !
उद्धव जी नें ये सब कहते हुये ...........बारबार पीठ थपथपाई ....वज्रनाभ की .........।
हे उद्धव जी ! मैने सुना तो था कि आपको श्रीकृष्ण चन्द्र जू नें बद्रीनाथ के लिए भेज दिया ......फिर आप यहाँ वृन्दावन कैसे ?
हे वत्स वज्रनाभ ! तुमनें ठीक सुना ...........जब व्याध नें श्रीकृष्ण के चरणों में बाण मारा था .......उससे पूर्व मुझे ही ज्ञान देकर कहा था कि अब तुम बद्रीनाथ जाओ ........जाओ बद्रीनाथ ! .........क्यों की मैं अब परमधाम जानें वाला हूँ ...........
मैं उस समय बहुत रोया था .........मैने रोते हुए कहा था .....मैं भी आपके साथ जाऊँगा ..........अभी देह त्यागता हूँ मैं .........मैं देह त्यागनें के लिये तैयार हुआ । .......पर मेरे "नाथ" नें मुझे रोक दिया .......नही .......मेरी आज्ञा का पालन तुम्हे करना ही होगा .........इस तरह शोक ग्रस्त होना तुम्हे शोभा नही देता ......तुम मेरे ही हो ........तुम मेरे ही पास हो ।
मैने अपनें आपको सम्भाला ............फिर मेरे कन्धे में हाथ रखते हुये सजल नेत्र से मेरे श्री कृष्ण बोले थे ........उद्धव ! तुम बद्रीनाथ जाओ .........पर ............
पर क्या ? क्या नाथ ?
बद्रीनाथ जाते हुये ......मेरे श्रीधाम वृन्दावन होते हुए जाना .........
रो गए थे उस समय द्वारकेश ...............मेरे इस मर्त्य भूमि को छोड़ते ही वृन्दावन वाले मेरे परिकर भी छोड़ देंगें इस भूमि को .........पर
उस भूमि में मेरी श्रीराधा रानी की सुगन्ध तो है ........उनका प्रेम तो है.......उस प्रेम की सुवास हर जगह है .............वृन्दावन के कण कण में है ...........वहाँ जाना उद्धव .........वहाँ जाकर बैठना ...........यमुना के किनारे बैठना ...........गिरिराज पर्वत की तलहटी में बैठना .........बरसानें की उस "साँकरी गली" में बैठना ................
रो गए थे ये कहते कहते उद्धव जी ।
फिर कुछ देर बाद अपनें को सम्भालते हुए बोले थे ..........
उद्धव !
मुझे व्याकुल हो मेरे प्राणनाथ नें सम्बोधन किया.......।
मैने उनके चरण पकड़ लिए ........नाथ ! आज्ञा !
गिरिराज गोवर्धन में ..........एक कुण्ड है ...........उस कुण्ड में अवश्य जाना ..........वहाँ बैठना ........आचमन करना उस कुण्ड का ......
क्या नाम है उस कुण्ड का ? किस दिशा में है वह कुण्ड ?
वज्रनाभ ! मैने उस पवित्र कुण्ड का नाम जानना चाहा .....जिसे याद करके मेरे नाथ बिलख रहे थे .........
"राधा कुण्ड"
.....सबसे पावन कुण्ड है वो उद्धव ! गोवर्धन पर्वत के निकट है ।
एक हजार वर्ष गंगा में नहानें का जो फल है ....एक हजार वर्ष हिमालय में वास करनें का जो फल है ........एक हजार वर्ष तक दान तप करनें का जो फल है .......वो फल मात्र एक बार राधा कुण्ड के आचमन से प्राप्त हो जाता है .............हे उद्धव ! एक बार उस कुण्ड के जल का जो छींटा अपने मस्तक में डालकर मेरी प्राणप्रिया "श्रीराधा" का नाम लेता है ........उसके पुण्य की कोई सीमा नही होती ......वो जो चाहे प्राप्त कर सकता है ......और जिसे कुछ नही चाहिये .........उसे तो 'पराभक्ति" ही मिलती है ।
आहा ! कितनें प्रेम से हे वज्रनाभ ! "राधा कुण्ड" की महिमा का गान किया था मेरे नाथ नें । मैं सुनता रहा....सुनता रहा वज्रनाभ !.....और वो बोलते रहे ।......फिर उसके बाद मुझे उन्होंने विदा किया था ...।
मैं वहाँ से चला .......जब द्वारिका में पूरा यदुवंश नष्ट हो गया ......तब चला .....जब मेरे प्राण धन अपनी लीला समेट कर.......निकुञ्ज में जा चुके थे तब मैं चला......और पता है वज्रनाभ ! जब मैं चला था द्वारिका से ....तब ऐसा लग रहा था जैसे कोई चक्रवर्ती सम्राट लुट गया हो ..... कंगाल हो गया है आज ।
मैं बद्रीनाथ जा रहा था ......पर उससे पहले मैं इस प्रेम भूमि को प्रणाम करना चाहता था ......जो मेरे नाथ की आज्ञा भी थी ।
मैं आया इस भूमि में .............हर जगह गया ...............गिरिराज गोर्वधन में ..........बरसाने धाम में ......गोकुल ......नन्दगाँव में ......
और अब "श्रीराधा कुण्ड" में ...............राधा कुण्ड में आते ही ......मुझे रोमांच होनें लगा ............मैं देहातीत हो गया ..........
मुझे कुछ सुध न रही .........मैनें राधा कुण्ड में स्नान किया .....और जैसे ही स्नान किया .........मुझे कोई , कई सुंदरियों नें खींच लिया .......मैं घबड़ाया ..........मुझे ये क्या हो रहा था ....ये कौन हैं ।
पर कुछ ही क्षण के बाद मैने देखा ........एक दिव्य सिंहासन है .......उस सिंहासन के चारों और अष्ट सखियाँ थीं ............वो सेवा में लगी हुयी थीं ...........और उस दिव्य सिंहासन में ............
श्रीयुगल सरकार ............श्रीराधारानी बायीं ओर .....और दाहिनी ओर श्रीश्याम सुन्दर विराजमान हैं ..........
मैं गदगद् भाव से नाचनें लगा ...........गानें लगा ...........
जय राधे जय राधे राधे , जय राधे जय श्रीराधे
जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्रीकृष्ण !
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आगे क्या हुआ उद्धव जी ! .........वज्रनाभ नें पूछा ।
उद्धव जी बोल नही पाये कि आगे क्या हुआ ?
अच्छा ! मुझे दर्शन तो करा दीजिये उस दिव्य राधा कुण्ड के ?
वज्रनाभ नें विनती की ।
उद्धव जी चले ........आगे आगे ....और उनके पीछे चले वज्रनाभ ।
एक दिव्य कुण्ड में लाकर मुझे इशारे में कहा ...........ये है वो कुण्ड ।
इतना कहकर उद्धव जी अंतर्ध्यान हो गए थे ।
मैं वहाँ बैठा रहा .........कब तक बैठा रहा मुझे भी पता नही .....
मैं उसी कुण्ड के जल का पान करता था ........स्नान करता था .......और उन्हीं युगल नाम का गायन करता था ...............
मुझे युगलवर के दर्शन होते थे......मेरे आनन्द का ठिकाना नही था ।
एक दिन ........मैं बैठा हुआ था ........कि .....पीछे से एक प्रेम की ऊर्जा नें मुझे छूआ ..............मैं उस स्पर्श से और आनन्दित हुआ .....पीछे मुड़कर देखा ........तो मेरे सामनें महर्षि शाण्डिल्य थे ।
मैं उनको देखते ही नाच उठा .....महर्षि ! राधा कुण्ड ! मैं इतना ही बोल पाया ...क्यों की भावातिरेक के कारण मेरे शब्द नही निकल रहे थे ।
इस कुण्ड की महिमा स्वयं कृष्ण नही गा पाते तो तुम और हम क्या हैं ?
महर्षि नें मुझे बताया ।
ये दिव्य क्यों न होगा ...............स्वयं श्रीराधिका नें अपनें कँगन से पृथ्वी को खोदकर इसे प्रकट किया है ।
आचमन किया महर्षि नें भी राधा कुण्ड में ।
मुझे इस चरित्र को सुनना है ..........हे महर्षि ! कृपा करें कैसे श्रीराधा रानी नें इस कुण्ड को बनाया ?
कृपा करो महर्षि ! साष्टांग चरणों में गिर गए थे वज्रनाभ ।
महर्षि शाण्डिल्य फिर "श्रीराधा चरित्र" का स्मरण कर ......भाव समाधि में जा रहे थे .....पर अपनें आपको उन्होंने रोका ..........और आगे की कथा सुनानें लगे थे ।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
शेष चरित्र कल .....
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