"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 7

7 आज  के  विचार

( श्रीराधारानी का प्राकट्य )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग  7 !! 


जय हो प्रेम की .......जय हो इस अनिर्वचनीय प्रेम की .........आहा ! जिसे पाकर  सचमुच कुछ और पानें की इच्छा ही  नही रह जाती ।

जिस प्रेम से  सदा के लिये कामनाएं नष्ट हो जाती हैं..............उस प्रेम की जय हो ।

जिस प्रेम से ये जगत पावन हो जाता है .........ये पृथ्वी धन्य हो जाती है .........उस प्रेम का वर्णन कौन कर सकता है  ।

ईश्वर है प्रेम  ? 

   नही ये कहना भी पूर्ण सत्य नही है .............प्रेम ईश्वर का भी ईश्वर है ......जय हो ....जय हो  प्रेम की ।

जिसकी दृष्टि में प्रेम उतर  आता है .......उसे चारों ओर  प्रेम की सृष्टि ही तो दिखाई देती है .........राग, द्वेष अहंकार  इन सबको मिटानें में  योगी एवम्  ज्ञानीयों को कितनें परिश्रम करनें पड़ते हैं ..........बारबार उस  बदमाश मन को ही   साधनें का असफल प्रयास ही करता रहता है साधक ....पर कुछ नही हो पाता ..........मन वैसा ही है ........।

पर  प्रेम के आते ही ........प्रेम के जीवन में उतरते ही........राग, द्वेष ईर्श्या  अहंकार  सब  ऐसे गायब हो जाते हैं .....जैसे बाज़ पक्षी को आकाश में देखते ही   सामान्य पक्षी  कहाँ चले जाते हैं पता ही नही ।

तो अपना सच में कल्याण चाहनें वालों ......क्यों नही प्रेम करते ?

क्यों  इधर उधर भटकते रहते हो .........क्यों  प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा  की अग्नि में झुलसते रहते हो......क्यों  कभी ज्ञान मार्ग तो कभी  योग मार्ग के चक्कर लगाते रहते हो ........प्रेम के मार्ग में क्यों नही आते .......कितनी शीतलता है यहाँ .......देखो ! इस  प्रेम सरोवर को .....कितना शीतल जल है इसका ......क्यों नही इसमें गोता लगाते ?

प्रेम प्रेम प्रेम ...........निःश्वार्थ प्रेम के  प्रचारक .....प्रेमाभक्ति के आचार्य  जिन्होनें "शाण्डिल्य भक्ति सूत्र"  की रचना कर  जगत का कितना उपकार किया है  ऐसे   महर्षि  शाण्डिल्य  आज गदगद् हैं ........और गदगद् क्यों न हों ..........वो जिस प्रेम  की चर्चा युगों से कर रहे हैं ........उसी प्रेम का अवतरण  आज होनें वाला है ........यानि प्रेम आकार लेगा  ।

वज्रनाभ  आँखें बन्द करके बैठे हैं ..........भूमि बरसानें की है  ......प्रेम कथा  "श्रीराधाचरित्र" को सुनते हुये  वज्रनाभ को रोमांच हो रहा है .......उनके नेत्रों से अश्रु बहते जा रहे हैं ........ये हैं  श्रोता  ।

और कहनें वाले वक्ता  महर्षि शाण्डिल्य.......ये तो  थोडा ही बोलते हैं .......फिर  इनकी वाणी ही अवरुद्ध हो जाती है .......आँखें चढ़ जाती हैं ..........साँसें तेज गति से चलनें लगती हैं........रोमांच के कारण शरीर में  सात्विक भाव का  प्राकट्य शुरू हो जाता है ........।

आल्हादिनी का  प्राकट्य होनें को है अब -  हे वज्रनाभ !    

इतना ही बोल पाये थे महर्षि .......फिर  प्रेम समाधि में स्थित ।

पर प्रेम की बातें मात्र सुनी नही जातीं ......उसे तो अनुभव किया जाता है ...इस बात को  वज्रनाभ समझ गए हैं ...............इसलिये  वो भी बह जाते हैं ......डूब जाते हैं ...........डूबते  तो महर्षि ज्यादा हैं ........और कभी कभी  चिल्ला भी उठते हैं ......."आगे "श्रीराधाचरित्र" को सुनना है  तो हे  वज्रनाभ !  मुझे बचाओ ..........मुझे   निकालो  इस  "अथाह प्रेमसागर" से .......नही तो  हो सकता है  मेरी  हजारों वर्ष की समाधि लग जाए .............।

हाँ .......ये  है ही  ऐसा   चरित्र  !          प्रेम चरित्र !    

श्याम सुन्दर का प्रेम  अब आकार लेकर  प्रकट होनें को है ...........

महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया  अपनें श्रोता वज्रनाभ को .......और फिर कथा  सुनानें लगे ...............

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कीर्तिरानी !    मैने आज एक सपना देखा......बड़ा विचित्र सपना था........मेरा सपना सच होता है ..........इसलिये मैं  उस सपनें के बारे में विचार कर रहा हूँ ......और तुम्हे बता रहा हूँ  ।

उस  दिन  बृषभान नें   अपनी पत्नी कीर्ति को अपना सपना सुनाया ...।

क्या  सपना था आपका ?        कीर्तिरानी नें पूछा  ।

मैं  भास्कर हूँ ........मैं  सूर्य हूँ ..........और मेरे सामनें   सब देव खड़े हैं .............वो सब मुझ से कह रहे हैं ........चन्द्रमा के वंश में   भगवान  अवतार लेकर आगये .........पर  तुम्हारे वंश में  तो  .........!

मेरी कोई स्पर्धा नही है  चन्द्रमा से......पर   मेरे यहाँ  तो  साक्षात् आद्यशक्ति,  आल्हादिनी शक्ति अवतरित होनें वाली हैं .....मैनें कहा ।

मेरी बात को सुनकर  सब  चुप हो गए..........पर मैने देखा  मेरा पुत्र  शनिदेव  जिसकी  मेरे से कभी  बनी नही .......वो  मेरी ये बातें  सुनकर    मेरे पास आया ........और    बस इतना ही पूछा उसनें .....कहाँ पर प्रकट होनें वालीं हैं   मेरी बहन   ?

मैने स्पष्ट कहा .....शनिदेव से ,    बृज में,  बृहत्सानुपुर में   (बरसाना) ।

बस  इतना सुनते ही  वो वहाँ से चला गया .........और  यहीं बरसानें   में ही   आकर रहनें लगा ........और तो और .........इस भूमि में उसनें    मणि माणिक्य  सुवर्ण   ये सब पृथ्वी से प्रकट कर दिए ।

मैने देखा सपनें में कीर्तिरानी !  .....लोग जहाँ से धरती खोद रहे हैं .....वहीं से सोना  रजत  मणि इत्यादि प्रकट हो रहे हैं ............।

हे कीर्तिरानी !  मैं सपनें से जाग  गया था ये सब देखते हुए .......मेरी नींद खुल गयी थी ..........मैं तुम्हारे पास आया .......तो  क्या देखता हूँ मैं ..........तुम  दिव्य तेज़ से आलोकित हो रही हो ...........तुम  एक  प्रकाश का पुञ्ज  लग रही हो ........और ये देखो !   तुम्ही देखो ......तुम्हारे उदर में ........ऐसा  प्रतीत हो रहा है  कि .......भास्कर ही आगये हैं .......कितना तेज़ है  ।

कीर्तिरानी  नें  अपनें पति बृषभान के हाथों को प्रेम से पकड़ा ............आराम से उठीं  ....क्यों की   अष्ट मास पूरे हो चुके थे  ।

ये देखिये !    हे स्वामिन्  !    ऐसे  फूल आपनें कभी  देखे थे ?  

अपनें ऊपर बिखरे पुष्पों   को दिखानें लगीं   कीर्तिरानी.....बृषभान नें उन पुष्पों को लिया.....देखा  और सूँघा....ये तो  पृथ्वी के  पुष्प  नही हैं  ।

हाँ .......और पता है ! ......मैने भी सपना देखा  .....मेरा  सपना भी बड़ा विलक्षण था....।

कीर्तिरानी  भी  अपना सपना सुनानें लगीं ............

हे स्वामिन् !   मैने देखा   मुझे कोई कष्ट नही हुआ है   और एक बालिका मेरे गर्भ से प्रकट हो गयी है .........और वो कन्या  इतनी सुन्दर है  जैसे  तपाये हुए सुवर्ण के समान ........उस कन्या की सब स्तुति कर रहे थे ........यहाँ तक कि .......लक्ष्मी  सरस्वती  महाकाली   अन्य समस्त देव गण .......सब हाथ जोड़े  खड़े थे ......और  ! हे राधे ! जय जय राधे !     यही पुकार सब  लगा रहे थे .........पर  वो  कन्या   मुझे ही देखे जा रही थी..........।

"मैया"

     आहा ! उसके मुख से मैने ये सुना .......बस  इतना सुनते ही मेरे वक्ष से दुग्ध की धारा बह चली......वो मेरे पास  आयी .........मेरा  दुग्ध पान करनें लगी.........मैं क्या बताऊँ उस दृश्य को देखते ही  मैं देहातीत हो गयी थी ....।

"शायद  अब   उस कन्या के  जन्म का समय आगया है"

इससे ज्यादा  कहनें के लिये कुछ नही था बृषभान के पास ।

हे कीर्ति रानी !   समय बीतता जा रहा है.....ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया है ....मैं जाता हूँ  यमुना स्नान करनें ........इतना कहकर  उठे बृषभान ।

अरे !    आप ?       सामनें देखा   "मुखरा मैया" खड़ी थीं .........

( ये कीर्तिरानी की माँ हैं )

कहाँ है मेरी बेटी कीर्ति ?    आनन्दित  होते हुए भीतर आगयीं ।

"ये रहीं आपकी पुत्री".............बृषभान नें  बड़ा आदर किया  ।

सीधे जाकर मुखरा मैया नें  अपनी बेटी की आँखें देखीं .......नाड़ी देखी ....उदर देखा ..............।

फिर आँखें बन्दकर खड़ी रहीं,    कुछ बुदबुदाती भी रहीं .......।

"आज ही होगी लाली"     

मुखरा मैया नें स्पष्ट कह दिया ...........हे  वज्रनाभ  !  कहते हैं इनकी वाणी  कभी झूठी नही होती थी ।

बृषभान  नें अपनें आनन्द को छूपाया ......और बोले .......इतनी सुबह  आप आगयीं  मैया ?        

अरे !    मैने एक सपना देखा .............बृषभान हँसे ...........अब  सपना अपनी बेटी को सुनाओ ......मुझे देरी हो रही है ......मैं तो जाता हूँ स्नान करनें के लिए ..........इतना कहते हुये बृषभान जी चल पड़े  ।

आज मन बहुत प्रसन्न है .......भादौं का महीना है...अष्टमी तिथि है ....रात भर  रिमझिम बारिश हुयी है .......वातावरण  शीतल है ......ठण्डी ठण्डी हवा चल रही है ......पर हवा में  सुगन्ध है .....चले जा रहे हैं  बृषभान ।     

बीच बीच में  ग्वाले मिल रहे हैं ...........वो सब  भी  आनन्दित हैं ।

एक कहता है ............हे भान महाराज  !  कल शाम को मैनें गड्डा खोदा था ...........मुझे मिट्टी की जरूरत थी .......तो मैने खोदा .......पर   मैं क्या बताऊँ ......मुझे तो    चमकते हुए  पत्थर मिले ..........मेरी पत्नी कह रही थी......ये हीरे हैं ......ये मणि हैं ।  

.मार्ग के लोग  बृषभान को अपनी अपनी बातें  बताते हुए चल रहे हैं .........और क्यों न बताएं ........पृथ्वी नें  रत्नों को प्रकट करना शुरू कर दिया था  ।

एक ग्वाला दौड़ा आया  .........महाराज बृषभान की जय हो !  

रुक गए  बृषभान जी ...........क्या हुआ  कुछ कहना है ? 

हाँ .........रात में ही  बिजली गिरी था ..........मैं  खेत में था .....डर गया ........जहाँ बिजली गिरी ......वहाँ जब मैं गया ........तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही    ।

क्यों ?      क्या था वहाँ  ?    बृषभान नें पूछा ।

एक  काली मूर्ति गिरी  है ..........पता नही  क्या है.........उस मूर्ति में से दिव्य तेज़ निकल रहा है .........ग्वाला बोलता गया  ।

कहाँ है   मुझे दिखाओ ............बृषभान उस ग्वाले के साथ गए  ।

उन्हें जो लग रहा था    वही था .........सपना पूरा हुआ था ........शनिदेव ही  विग्रह में आगये  थे ........ये तो ?      हँसे बृषभान ।

पर किसी को कुछ बताया नही .......और ये मणि माणिक्य  सब यही प्रकट कर रहे थे  बरसानें में  ।     ( "कोकिलावन"  जो बरसानें के पास है  वहाँ विश्व् प्रसिद्ध शनिदेव का मन्दिर भी  है )

प्रणाम करके  बृषभान चल दिए अब  स्नान को ..............पर आज बिलम्ब पर बिलम्ब हुआ जा रहा है .......स्नान  नित्य करते थे  ब्रह्म मुहूर्त में .....पर  आज तो   सूर्योदय भी होनें वाला है   ।

पर क्या करें .....लोग मिल रहे हैं .....बातें करते हैं .....तो उनकी बातों का उत्तर देना ,   ये  कर्तव्य है गाँव के मुखिया का  ।

जैसे तैसे पहुँचे     यमुना जी  में ................

आहा !  आज यमुना  भी  आनन्दित हैं ............कितनी स्वच्छ और निर्मल हो गयी हैं .........किनारों में  कमल खिले हैं ........उन कमलों  में  भौरों का गुँजार हो रहा है .........।

स्नान करके  बाहर आये  बृषभान .......और  फिर नित्य की तरह  ध्यान करनें बैठ गए ..........आज मन  शान्त है ......आज मन  अत्यन्त प्रसन्न हैं .....आज मन   आनन्दातिरेक के कारण   झूम रहा है  ।

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ये क्या !       यमुना के किनारे  एक दिव्य कमल  खिला है .......बहुत बड़ा कमल है  ये तो .............उसके आस पास कई कमल हैं .......उन कमल के पराग उड़ रहे हैं ........सुगन्ध फ़ैल रही है वातावरण में  ।

तभी ......उस मध्य कमल में ......बिजली सी चमकी  ।

और देखते ही देखते ...........एक सुन्दर सी कन्या  खिलखिलाती हुयी उसमें प्रकट हुयीं   ।

उस कन्या के प्रकट होते ही ......आकाश में  देवों नें   पुष्प बरसानें शुरू कर दिए .........

.!! जय राधे जय राधे राधे , जय राधे जय श्री राधे !! 

सब देवियों नें  एक स्वर में गाना शुरू कर दिया  ।

अरे !  महाराज  उठिये !  उठिये !   पता है  मध्यान्ह का समय हो गया है ......आप अभी तक ध्यान में बैठे हैं  ?   

एक ग्वाले नें आकर बड़े संकोच पूर्वक  उठा दिया बृषभान को.......

उस आनन्द से बाहर आना पड़ा बृषभान को ......उठे .......चौंके..... सूर्य नारायण को देखकर ........सच में मध्यान्ह का समय हो गया था ।

इधर उधर देखा .........उस कमल को  खोजा  ............पर  ध्यान में ये सब घटा था .........धीरे धीरे   उसी आनन्द की खुमारी में   बढ़ते जा रहे थे अपनें महल की ओर  बृषभान जी  ।

महाराज ! महाराज !      एक दासी दौड़ी .............

बाबा ! बाबा !     एक महल का  सेवक दौड़ा .........

श्रीदामा दौड़े.....ये दो वर्ष के हो गए हैं ।

बाबा !   बाबा !  कहते हुए ये दौड़े  ।

बृषभान समझ नही पा रहे हैं  कि महल में ऐसा क्या हुआ  ?

दौड़े वो भी महल की ओर ................

और जैसे ही  कीर्तिरानी के महल में गए ................

कीर्तिरानी   लेटी हुयी हैं.........उनके बगल  में एक  सुन्दर अति सुन्दर    कन्या  खेल रही है ..........गौर वर्णी  ............कमल की सुगन्ध उस कन्या के देह से निकल रही थी  .............

नेत्रों से अश्रु बह चले  बृषभान के ..............आनन्दाश्रु .........।

बाहर आये .........भीड़ लग चुकी है  लोगों की ......समझ में नही आरहा  कि  क्या करूँ  ?    

मुखरा मैया   दीपों की  कई थाल  अपनें सिर में  सजाकर  आज नाच रही हैं ............

लोगों नें   गाना नाचना शुरू कर दिया है ...........

बधाई हो ......बधाई हो ......बधाई हो ...........।

"देंन बधाई चलो आली, भानु घर प्रकटी हैं लाली"

सुन्दर सुन्दर सखियाँ बधाई लेकर चलीं भानु के महल की ओर  ।

महर्षि शाण्डिल्य  उस आनंदातिरेक में  मौन हो गए ......क्या बोलें  ?

शेष चरित्र कल -

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