आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 177 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
अयोध्या ........विश्व का सबका समृद्ध नगर ।
मैंनें प्रवेश करते ही सबसे पहले यहाँ की भूमि को प्रणाम किया ।
मैं आज शान्त थी ..........मुझे कोई भय नही था ........कि श्रीराजाराम क्या निर्णय लेंगें ........हाँ मैं आई इसलिये थी कि .....उनके पुत्रों को मैं उन्हें ही सौंप दूँ ।......ये पुत्र उनके ही हैं ? ये प्रश्न उठा तो ?
मैं फिर से अग्नि परीक्षा दूंगी ......ये सीता है परीक्षा देनें के लिये ही तो इसका जन्म हुआ है.........पग पग में परीक्षा देगी सीता .......श्रीराम का अधिकार है .........हाँ उन्हीं का अधिकार है ....और मेरा अधिकार ? "सिर्फ परीक्षा देना" .........जितनी करेंगे मेरी पवित्रता पर प्रश्न .......सिया उत्तर देगी ..........सीता परीक्षा देगी ।
मुझे रथ में आते देखकर अयोध्या के नर नारियों में हलचल मच गयी थी.....सब लोग मुझे देखनें के लिये दौड़ पड़े थे........सैनिकों नें मेरे रथ को घेर लिया था ......ताकि सभा तक पहुंचनें में मुझे कोई कष्ट न हो ।
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सभा बहुत बड़े स्थल पर लगाया गया था .......पर लोगों की भीड़ अपार थी ..........किसी को जयघोष करनें की आज्ञा नही दी गयी थी .........इसकी सूचना सैनिक बारबार दे रहे थे .......और जो आज्ञा नही मान रहा था , उसे पकड़ कर ले जाया जा रहा था ।
सर्वत्र सैनिक खड़े किये गए थे ...........।
वो सभा ........कौन नही था उस सभा में .......................
देश विदेश के राजा महाराजा , ऋषि मुनि विद्वत्वृन्द ......देवता यक्ष किन्नर .........मेरी दृष्टि गयी ............मेरे पिता जी जनक महाराज ......मेरी माँ सुनयना .........मेरा भाई लक्ष्मी निधि ...........
दूसरी ओर मेरी दृष्टि गयी .......मेरी बहनें.....माण्डवी , उर्मिला , श्रुतकीर्ति ........मुझे देखकर इन सबके नेत्रों से पनारे बह चले थे ।
दिव्य सिंहासन में ........चक्रवर्ती सम्राट रघुकुलनन्दन श्रीराजाराम विराजमान थे ..........उनके ही अगल बगल में भरत , शत्रुघ्न और लक्ष्मण के पुत्र ......और साथ में कुश और लव .......।
मैने अपनें पुत्रों को देखा ........वो बेचारे मुझे देखते ही रो पड़े .........प्रणाम करनें के लिये उठ रहे थे .......मेरे पास दौड़कर आनें के लिये तैयार थे......पर महर्षि वाल्मीकि नें इशारे से मना कर दिया ।
आगे आगे महर्षि वाल्मीकि थे....उनके पीछे मैं थी .......गैरिक वस्त्रों में, .......मैं देख रही थी......उस सभा में बैठे हर व्यक्ति की दृष्टि मुझ में ही थी ।
गुरुवशिष्ठ नें उठकर अपनें हृदय से लगाया था महर्षि वाल्मीकि को ।
श्रीराजाराम नें अपनें सिंहासन से उठकर प्रणाम निवेदित किया था महर्षि को .........।
औपचारिकता पूरी हुयी.............।
"मैं राम , पूज्य प्रचेता के बारहवे पुत्र महर्षि प्राचेतस वाल्मीकि के चरणों में प्रणाम करता हूँ ..................।
वैदेही सीता आपके यहाँ रही हैं..........श्रीराजाराम बोल रहे थे ।
ये पुत्र जिनका नाम कुश और लव है ........ये किसके पुत्र हैं ?
हे प्राचेतस महर्षि वाल्मीकि ! ये सीता तो आपके साथ रही हैं .........लोग कुछ भी कह सकते हैं .......इसके लिये आपको अपनी सफाई देनी होगी ।
ओह ! मैनें श्रीराजाराम की बातें सुनीं ............ऐसा लगा मेरे कानों में शीशा पिघलाकर कोई भर रहा हो ।
उठे सभा में महर्षि .............लाल नेत्र हो गए थे ...........।
दोनों हाथों को उठाकर आकाश की ओर देखते हुए बोले .......
"मैं प्रचेता का बारहवाँ पुत्र वाल्मीकि शपथ लेता हूँ ......कि सीता पवित्र है .....सीता इतनी पवित्र हैं जितनी गंगा.......प्रजा की ओर देखते हुए बोले .....ये सीता पवित्रतम है........हे राजाराम ! मैने दीर्घकालीन तप किया है .............मैं आप सबके सामनें बोल रहा हूँ ......अगर सीता पवित्र न हो तो मेरा सम्पूर्ण तप निष्फल हो जाए ............।
सीता पवित्र है .......सीता के बराबर कोई सती आज तक न हुयी है न होगी .........महासती है सीता ..........हे श्रीराजाराम ! सीता अगर परम सती न हो .....तो मुझ वाल्मीकि के समस्त पुण्य नष्ट हो जाएँ ।
ये कहते हुए आँखें अंगार की तरह लाल हो गयीं थी महर्षि की .........
हे राजाराम ! यदि सीता मन , वचन, कर्म से अपनें पति श्रीराम की परायण न हो तो वाल्मीकी नरक गामी बनें .............और हजारों वर्षों तक नरक में ही रहे ।
मैं सुन रही थी .......अयोध्या की प्रजा चुप रही .........महर्षि वाल्मीकि नें ये बात तीन बार दोहराई थी .....तीन बार शपथ लिया था .....कि सिया पवित्र है......सीता परमसती है ......सीता सिर्फ राम की है ।
पर नही ............अयोध्या की प्रजा मूक बनी सुनती रही ............
सामान्य प्रजा में से किसी नें कोई आवाज नही उठाई .............किसी नें मेरा समर्थन नही किया ...........सब सुनते ही रहे ।
हाँ जो सैनिक थे .....राजपरिवार के सदस्य थे ........स्वजन थे .....सम्बन्धी थे ........ये बोलना चाह रहे थे .....पर इन को आदेश नही था बोलनें का ..............।
अब महर्षि क्रोध के कारण काँपनें लगे .............
चारों और ऐसे देखनें लगे जैसे श्राप देकर अयोध्या को अभी भस्म कर देंगें ...............पर राजाराम की ओर देखा तो महर्षि नें तुरन्त अपनें हाथ जोड़ लिए ................क्रोध को पी गए ........।
नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे .................
हे श्रीराजाराम ! बेटी का पिता क्रोध करनें का अधिकारी नही होता .....ये मेरी पुत्री है सीता ..... आप तो जानते हो कि आपकी सीता कितनी पवित्र है ..........फिर ये सब क्यों ?
हे राजाराम ! बहुत दुःख सहा है पुत्री सीता नें ......अब और दुःख इसे मत दो .......मेरी प्रार्थना है .........मेरी प्रार्थना है ........हिलकियाँ छूट पड़ी थीं महर्षि की ।
मेरे पुत्रों के अधर फड़कनें लगे थे क्रोध से ......."ये क्या है"
पर वो कुछ कर नही सकते थे ...........।
"जन समूह जनता , स्वयं जनार्दन का रूप है ....सीता आगे आये और सबके सामने अपनें पवित्र होनें का प्रमाण दे "
श्रीराजाराम नें ये बात कही ।
मुझे पता था ..........श्रीराजाराम यही कहेंगें ।
शेष चरित्र कल
Harisharan
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