वैदेही की आत्मकथा - भाग 178

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 178 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

"सीता  आगे आये और अपनें पवित्र होनें का प्रमाण दे"

मेरी दृष्टि अभी तक धरती पर थी .......जैसे ही मैने ये सुना  राजाराम के मुख से .......मैनें दृष्टि ऊपर उठाई ..........।

मेरी ओर कोई देख नही पा रहा था .............मैने  श्रीराजाराम की ओर देखा .......पर  वो भी  आँखें झुका लिए .....।

जीजी !    चिल्लाई  थी श्रुतकीर्ति ..............नही  ये अन्याय है .......हमारी जीजी  अब कोई प्रमाण नही देगी  ।

उर्मिला खड़ी हुयी ..............हमें आशा नही थी रघुकुल से कि   पवित्रतम सीता जीजी  से भी यहाँ   प्रमाण माँगा जाएगा  ।

माण्डवी तो मूर्छित ही हो गयी थी   ।

गुरुपत्नी  अरुंधती   नें भरी सभा में उठकर    अपनें ही पति गुरु वशिष्ठ  से कहा था.......आप  गुरु हैं  , आप इस समय अगर कुछ नही करेंगें तो  अयोध्या में  अनर्थ हो जायेगा ...........।

गुरु वशिष्ठ का उत्तर था ........."जो होकर रहेगा  उसे टालनें में  वशिष्ठ भी आज असमर्थ है..........इतना कहकर  वशिष्ठ जी  रोनें लगे थे ।

महर्षि वाल्मीकि  के नेत्र बह चले  ..........वो हाथ जोड़कर कह रहे थे ........राम !  ऐसा मत करो .........अब "राजा"  या "श्री" लगाना उन्हें   प्रिय नही लग रहा था ..........राम !   मेरी बात मान लो ......अभी भी अवसर है  ....सीता पवित्र है ......सीता पवित्र है......सीता पवित्र है ......फिर अपनी वही बातें दोहरानें लगे थे ........मेरे प्रति स्नेह के कारण ....वात्सल्य के कारण ......वो कभी मुझे देखते ....कभी मेरे बालकों को ......और कभी  रोष से    राजाराम की ओर  ।

मैं आगे  आयी ..........मैं शान्त ..........अत्यन्त तेजपूर्ण ..........मुझे पता नही  क्या हो रहा था .............मैं आगे बढ़ी ...........हट गए थे महर्षि  वहाँ से ................मैं ही थी    अब मध्य में  ।

सारी सभा  मुझे देख रही थी ...........राजाराम मुझे देखनें की कोशिश कर रहे थे .....पर  मुझ से  आँखें नही मिला पा रहे थे  ।

मैं शान्त रही .........पूरी सभा की ओर मैनें एक बार दृष्टि घुमाई ......

सबकी नजरें नीची हो गयी थीं  ।

मैं हँसी...........हँसते हुए  मैने  राजाराम की ओर देखा ।

फिर  मेरे नयनों से अश्रु बह चले ..................

"यदि सीता  मन, वचन कर्म से  सिर्फ राम की हो ......तो  मेरी धरती माँ  मुझे अपनें में समा ले "

सब काँप गए थे,  मेरे मुख की ओर देखनें का किसी का साहस नही था । 

"यदि सीता   का मन   राम को छोड़कर कभी  किसी में नही लगा ....तो हे माँ  वसुधा  !   मुझे  अब  अपनें पास बुला लो "

देवता यक्ष किन्नर  इतना ही नही ....सूर्य का तेज़  भी कम हो रहा था ......चन्द्रमा  की  ज्योत्स्ना  खतम हो रही थी  ....।

"यदि सीता  सचमुच  पतिव्रता है  तो "धरती"  मुझे अपनें अंक में लेगी"

"यदि सीता सच में  राम के लिये ही जीती रही....तो पृथ्वी फट् जाए और सीता उसमें समा जाए"

ये शपथ  मेरी गूंजनें लगी   चारों दिशाओं में ..........आकाश से  बिजली  गिरने  लगी ........सब काँप गए ........सबको लगनें लगा  अब कहीं प्रलय न आजाये ........तभी    एकाएक पृथ्वी हिली ............

सब के देखते ही देखते  सभा स्थल के मध्य भाग से पृथ्वी  फ़टी  ......एक ज्योतिर्मय  दिव्य  भगवती  प्रकट हुयीं .....कोई देख नही सका  उन्हें ...........क्यों की प्रकाश  बहुत था  ।

पुत्री सीता !    आओ पुत्री !       वो वात्सल्यमयी माँ धरती .......मुझे पुकार रही थीं .......आओ  भूमिजा !  आओ  !      

मैं दौड़ी............माँ !   अब नही रहना यहाँ .............

मैं गले से लग गयी उनके.........मुझे अपनी गोद में रखकर  वो अंतर्ध्यान हो गयीं.....पर  पृथ्वी  फिर  वैसी ही ........उस स्थान पर कोई दरार नही  नही रहा गया था  अब  ।

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सीते !  सीते !    एकाएक  सिंहासन  से  कूद पड़े  थे  राजाराम .................

 ...पृथ्वी को   .हाथों से छूनें लगे .......सीते !  कहाँ है  मेरी प्राणबल्लभा ........पृथ्वी !    हे वसुधा  !    मेरी सीता को लौटा दो .....मेरी सीता को लौटा दो ............नही तो ........लाल मुख मण्डल हो गया था राजाराम का ..........क्रोध  चरम पर पहुँचा  ......

धनुष उठाते हुए  चिल्लाये   राजाराम .............मैं प्रलय ला दूँगा ....... पृथ्वी  !  मैं  तुझे भी   फिर सागर में  डुबो दूँगा  ..........।

गुरु वशिष्ठ आगे आये ........राम !   धनुष रख दो ..........तुम ऐसा कुछ भी नही करोगे ........ये बात गुरु  वशिष्ठ् नें  अत्यन्त क्रोध में भरकर कहा था .......और इतना क्रोधित आज तक किसी नें देखा भी नही था  ।

हतप्रभ राजाराम नें अपनें गुरु जी को देखा ..............

कोई अधिकार नही है तुम्हे क्रोध करनें का  - और सीता को प्राप्त करनें का .......राम ! तुमसे अपराध हुआ है .........तुम  सर्वथा  महासती सीता को  पवित्र जानते हुये भी   उसकी परीक्षा लेते रहे .........तुमनें उसे निर्वासित रखा ........क्या तुम्हे पता नही था कि  महासती सीता  पवित्रता की  मूर्ति है ............फिर भी  ?

गुरु वशिष्ठ अत्यन्त क्रोधित हो उठे थे  ।

और ये अयोध्या की प्रजा ......ये अधम प्रजा .....जिसनें  सीता जैसी पवित्र नारी का अपमान किया ..........अवधवासियों नें पाप किया है ....सीता के अपमान का पाप किया है ...........काँप रहे थे गुरु वशिष्ठ ये कहते हुए ......उनका सम्पूर्ण शरीर क्रोध से काँप रहा था ........और खबरदार !  किसी को अधिकार नही है  सीता के पवित्र नाम के जयघोष करनें का भी ............आँखों से आँसू टपकनें लगे थे गुरु के ।

भगवती भूमिजा की .......जय जय जय ........अकेले चिल्ला रहे थे गुरु ।

महासती सीता महारानी की ....जय जय जय ...........

परम पूज्यनीया  वैदेही की ........ जय जय जय ..................

मुझे क्षमा कर देना ........मुझे क्षमा कर देना ................गुरु वशिष्ठ रोते रहे .....अरुंधती नें आकर उन्हें सम्भाला  ।

कुश लव ....दौड़ पड़े महर्षि वाल्मीकि के पास ....और गले लग कर बहुत रोये .....हमारी माँ कहाँ गयी  गुरुदेव !  

हमारी माँ नें हमें क्यों छोड़ दिया .........हमनें तो कोई अपराध नही किया था ......फिर हमें क्यों छोड़ गयी हमारी माँ !  

हम नही  रहेंगे  अयोध्या में ............गुरुदेव !   हमारी  माँ  कहाँ है  ! 

हमारी माँ ....हमारे पिता सब वही थीं............हम नही जानते किसी पिता को .........हमें नही चाहिये कोई पिता .....हमें मात्र हमारी माँ चाहिए ....हमारी  वात्सल्यमयी माँ .........माँ ! 

मूर्छित हो गए थे  कुश लव  ।

राम !      ये तुम्हारे बालक है ........

राजाराम दीन हीन की तरह  महर्षि की ओर देख रहे थे  ।

राम ! मैं तो तुम्हारी अयोध्या को  पवित्र पावनी सम्राज्ञी देनें आया था ....पर   .........अपनें आँसू पोंछते हुए   महर्षि वाल्मीकि नें कहा ।

अब ये बालक तुम्हारे हैं ..........सम्भालों इन्हें ..........और नही सम्भाल सकते .इन्हें भी  ........अभी भी स्वीकार नही है .......तो अब  याचना नही करेगा  वाल्मीकि ........न हाथ जोड़ेगा ......कि इन पुत्रों को  स्वीकार करो ...ये तुम्हारे हैं ......मैं ले जाऊँगा इन्हें   ।

नही .....नही .....धरती पर गिर पड़े थे  राजाराम ..............महर्षि !  अब  आप ऐसा न करें .............मैं अपराधी हूँ .......मुझे दण्ड दिया जाए वह स्वीकार है .......राजा राम बोलते रहे  ।

पर महर्षि वाल्मीकि नें इतना ही कहा....ये वीर पुत्र सीता के हैं ....तुम्हारे हैं   इन्हें सम्भालो ........मैं जा रहा हूँ   ।

और मेरे पिता तुल्य  महर्षि वाल्मीकि   उस गंगा किनारे भी नही गए जहाँ उनका आश्रम था......अयोध्या क्षेत्र से ही उन्हें  घृणा हो गयी थी ......वो  मेरी जन्म भूमि  जनकपुर के पास  ही आगये थे .......और  वहीँ रहे ।

(आज भी नेपाल में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम नारायण घाट के पास है )

मैं वैदेही ! 

नही नही .....मै तो साकेत में आगयी  हूँ ......साकेत धाम में ......और अब मेरी प्रतीक्षा है  कि   मेरे प्राण नाथ  श्रीराम भी जल्दी  आएं ........पर मैं उनसे इस बार  कुछ शिकायत करनें वाली हूँ ...........कि   ये रामावतार कुछ कठोरता लिए  हुए  नही हैं  ?    मैं मानती हूँ .....कि धर्म और कर्तव्य  कठिन है...........पर  जहाँ प्रेम नही है ..........मात्र धर्म   ?       

पर ये अवतार  धर्म और कर्तव्य  को ही केंद्र में रख कर लिया गया था ......इसलिये मेरे श्रीराम सर्वथा निर्दोष हैं .......जगत को धर्म और सत्य  की शिक्षा देंनें के  लिये ही तो रामावतार है  ।

चलिये  अब मैं  दूसरे अवतार में आऊँगी ..............जल्दी ही .........

कृष्ण बनेंगे मेरे श्रीराम............  और  मैं उनकी  राधा  ।

वो प्रेमपूर्ण होगा  ।

मेरी आत्मकथा यहीं पर विश्राम लेती है  ।

                                                                                    वैदेही  ।

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साधकों !  "वैदेही की आत्मकथा"  आप को कैसी लगी  मैं नही पूछूँगा ।

पर मेरा भगवतचिंतन बहुत अच्छा हुआ ........श्रीकिशोरी जू की कृपा से  ही ये सब लिखा गया है ........सिर्फ उनकी कृपा से ही मैने लिखा है  ।

किन्हीं किन्ही प्रसंगों में तो   मैं  रोता रहता था   ......और  मेरे हाथ  लिखते रहते थे .............कोशिश की  -   वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस के आधार पर ही ये आत्मकथा लिखी गयी है ......और  बाकी कुछ जो मैंने सन्तों से सुना था ........उन्हें भी मैने लिख दिया ।

मैं क्यों लिखता हूँ ?   

ये प्रश्न मेरे साधकों  नें मुझ से बहुत पूछा है ।

मैं इतना ही कहूँगा  कि मेरा अन्तःकरण  इसी बहानें,   भगवत् चिन्तन में लग जाता है ......ये मेरे लिये उपलब्धि है ......मैं इसीलिये लिखता हूँ ।

एक बार फिर सजल नयनों से   श्री जनकनन्दिनी  जू  के पावन चरणों में मेरा प्रणाम ...........मेरे ऊपर  श्रीकिशोरी जू कृपा करें .....इसी कामना से ......ये "वैदेही की आत्मकथा" ....उन्हीं के चरणों में समर्पित है ।

Harisharan

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