आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 176 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
महर्षि वाल्मीकि मुझे बता रहे थे ........दूसरे दिन बैठनें की व्यवस्था में परिवर्तन किया गया......मध्य का स्थान विस्तीर्ण किया गया ।
पुत्री ! सम्मान अब सिंहासनों पर बैठनें में नही रह गया था ......गायकों के समीप स्थान मिलना सम्मान की बात हो गयी थी ।
अयोध्या की इस संगीतमयी कथा में दोनों बालक सबके आकर्षण का केंद्र बन गए थे ........भरत शत्रुघ्न लक्ष्मण के पुत्र तो उन्हीं कुश लव के साथ ही बैठ गए थे ...........।
रामायण महाकाव्य का गायन अभी प्रारम्भ भी नही हुआ....कि संगीत की वह विशाल सभा भी भर गयी.........वहाँ पैर रखनें की जगह भी नही थी ।
कुश और लव दोनों बैठ गए थे .............और श्रीराजाराम को प्रणाम करके मंगलाचरण पश्चात् रामायण का गायन् शुरू किया ।
"विवाह ..........जनकपुर आनंदातिरेक में डूब गया था ....
सीता इतनी सुन्दरी लग रही थीं कि महालक्ष्मी भी लज्जित हो जाए ।
श्रीराम .....राजिव नयन इनकी भी कोई तुलना नही थी ।
ब्रह्मा चकित थे......शिव की कभी समाधि लग रही थी तो कभी समाधि से बाहर आरहे थे .....और बाहर इसलिये आरहे थे कि .....समाधि तो लगती रहेगी......पर ऐसा आनन्द कहाँ ? जनकपुर में दूल्हा बनें ब्रह्म और दुल्हिन उनकी आद्यशक्ति ......इनके दर्शन का आनन्द ।
विदा का प्रसंग .......कैकेई की कुटिलता ........महाराज दशरथ की मृत्यु .........भरत का विलाप ......फिर भरत और राम का मिलन ।
सब रो उठे थे.............पूरी सभा रो रही थी ।
कौन हो तुम ? किसके पुत्र हो ?
अश्रु प्रवाहित करते हुए श्रीराजाराम नें कथा प्रसंग के मध्य में ही पूछ लिया था ......................
आपका प्रश्न अनुचित है राजन् ! लव नें कह दिया ।
सभा स्तब्ध हो गयी ..........ये क्या कह दिया इन बालकों नें ।
महर्षि वाल्मीकि से ये सुनकर मेरा हृदय रो उठा था .....लव नें ऐसी धृष्टता क्यों की ! महर्षि !
यही प्रश्न गुरुवशिष्ठ नें भी लव से पूछा ..........पुत्री सीता !
वत्स ! प्रश्न उचित है - हमारे राजा जो पूछ रहे हैं उसमे अनुचित क्या है ?
हमारे भेष को देख रहे हैं आप गुरुवर ! कुश नें उत्तर दिया ।
क्या ये भेष एक साधू और तपश्वी का नही लग रहा ?
और आपसे मैं क्या कहूँ आप सब जानते हैं ...........क्या किसी साधू और तपश्वी से उसके पिता या माँ का परिचय पूछना उचित है ?
सभा चुप हो गयी थी ......पर श्रीराजाराम प्रसन्न थे इस उत्तर से ।
आगे सुनाओ ! आगे ............पूरी सभा बोलनें लगी ।
हाथों के इशारे से राजाराम नें आगे का प्रसंग सुनानें को कहा ।
सीता हरण, सुग्रीव मिलन, हनुमान के द्वारा लंका दहन ........राम की सेना द्वारा सागर में पुल का बाँधा जाना.....समस्त राक्षसों के सहित रावण वध.....राज्याभिषेक ।.....इतना सुना दिया था कुश लव नें ।
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अब आगे सुनोगे अयोध्यावासियों ! कुश लव उठ गए ........सभा मुग्ध हो गयी थी ............सुनो ! आगे क्या हुआ .........उठकर , चलते हुए ...... घूमघूमकर...........लोगों को इशारे करते हुये .......कुश लव प्रसंग को धाराप्रवाह सुनाये जा रहे थे ।
"एक दिन ऐसा आया ........ओह ! विधाता नें सीता के साथ कैसा न्याय किया ......राजाराम न्यायप्रिय हैं ........तो ये कैसा न्याय ?
एक मदिरा पीये हुए धोबी की बात सुनकर ..........सीता को वनवास भेज दिया ...........कुश लव की आँखें लाल हो गयी थीं ।
गायन शैली में.........पूछ रहे थे कुश लव .........हे राजन् ! क्या यही न्याय है .......ये अन्याय है .....चिल्ला उठे लव कुश ।
और ये प्रजा ? ये अयोध्या की प्रजा भी एक शब्द न बोली .....अपनी महारानी के लिये .............क्या अन्याय के विरूद्ध आवाज न उठाना भी अन्याय करना नही है ! हे अवध वासियों ! क्या तुम्हे पता भी है ....वो जनकनंदिनी वन में कैसे रहती हैं ?
रो गए राजाराम .......लक्ष्मण की हिलकियाँ बंध गयीं ..........भरत मूर्छित से हो गए थे .........कुमार शत्रुघ्न...........वो मौन नयन से अश्रु बहाते रहे ......हनुमान अपनी मुष्टिका अपनें वक्ष पर मारनें लगे थे ।
पूरी सभा ...........रो उठी ....विलाप करनें लगी थी ।
सुनो ! अवध वासी ! सुनो ! अपना अपराध सुनो ! अपनें राजाराम के द्वारा किये गए अपराध का वर्णन सुनो ।
एक गर्भवती .........मिथिला की राजकुमारी .......अयोध्या की सम्राज्ञी ...........पता है कैसे रहती है वो वन में ?
कैसे चलती है वो कांटों में ?............कैसे पीसती है वो अनाज ?
कैसी है वो ? कभी जाननें का प्रयास भी किया आप लोगों नें ?
वो केवल अपनें राम की पूजा करती है .......वो केवल अपनें राम के अलावा किसी को नही मानती ..............
कौन हो तुम ? अपना परिचय दो ?
राजाराम इस बार उठे............बोलो ! कौन हो तुम !
हे राजा श्रीराम ! हम महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं .............
कुश लव हमारे नाम हैं ।
तुम्हारी माता का नाम क्या है ?
कुश कुछ और बोलनें जा रहे थे ......पर रोक दिया राम नें ...........मेरे प्रश्न का उत्तर दो ...........................
नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे दोनों बालकों के ........
हमारी माँ को वनदेवी कहते हैं .......पर कभी कभी हमारे गुरुदेव उन्हें पुत्री "वैदेही" कहकर पुकारते हैं ..............।
पिता का नाम हम पूछते हैं तो हमारी माँ रोनें लग जाती है ।
क्या ?
पूरी सभा चौंक गयी ..................क्या ये सीता के पुत्र हैं ?
क्या ये हमारे युवराज हैं ? क्या यही हैं ?
"जीजी के बालक हैं ये" ............श्रुतकीर्ति चिल्ला उठी ।
माण्डवी मुखर बोलनें लगीं .....यही हैं हमारी बहन सिया जू के बालक ........इन्हें अब राजमहल में ठहराया जाए ........।
लक्ष्मण रोते हुए बोले..........हे भैया ! ये आपके पुत्र हैं ...........नही तो आप ही विचार कीजिये ........लक्ष्मण को इन्होनें पराजित किया .....भरत भैया को ......शत्रुघ्न को भी ।
इन्हें स्वीकार कीजिये ........ये सीता भाभी के ही पुत्र हैं ।
आपकी माता कहाँ हैं ? राजाराम नें पूछा ।
महर्षि वाल्मीकि नें उन्हें अपनें संरक्षण में रखा है.........एक सन्यासी नें उन्हें आसरा दिया .........सिर झुकाकर बोले ।
तो अब महर्षि वाल्मीकि को ही बुलाया जाए.....वही निर्णय देंगे कि ये पुत्र किसके हैं ? राजाराम नें फिर गम्भीरता और कठोरता ओढ़ ली ।
नही .......अब हम ऐसा नही होनें देंगें........ये आपके ही पुत्र हैं ...इनके साथ और इनकी माता सीता के साथ न्याय होना ही चाहिये ......
प्रजा एक स्वर में बोली ।
क्या न्याय चाहते हैं आप लोग ?
राजाराम नें प्रजा से ही पूछा ।
"सीता देवी को बुलाया जाए".............सारी प्रजा बोल उठी ।
पर ये सीता के ही पुत्र हैं इसका प्रमाण ?
कुछ लोग ऐसे भी थे...........।
"महर्षि वाल्मीकि को शीघ्र बुलाया जाए"
राजा राम नें इतना कहकर सभा को विराम दिया ।
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पुत्री सीता ! मैं जा रहा हूँ अयोध्या .....रथ आचुका है राजाराम का ।
महर्षि नें मुझ से कहा ...और वो रथ में बैठनें जा ही रहे थे कि .......
महर्षि ! मैं भी चलूंगी ! मैने शान्त मनस्थिति के साथ कहा ।
मुझे आज रोना नही आरहा था .............मैं शान्त थी ..........।
हाँ ....मैं चलूंगी ...............शायद मुझे एक बार और परीक्षा देनी पड़े ..........महर्षि ! मैने जो सोचा था वही हुआ .................
शायद मेरी ये अंतिम परीक्षा होगी ......................
मैं रथ में बैठ गयी थी ..........रथ चल पड़ा था ।
पर मुझे देखकर महर्षि भयभीत थे ........उन्हें लग रहा था कि मैं कहीं कुछ कर न बैठूँ .............मैं चल पड़ी थी अयोध्या की ओर ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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