आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 174 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
रात भर मैं सोई कहाँ थी.......श्रीराजाराम अपनें पुत्रों से मिलेंगें ।
महर्षि नें कहा है ....अश्वमेध यज्ञ की पूर्णाहुति में वो भी पहुँचेंगे ।
मेरे पुत्र उठ गए थे ........मुझे उठाना भी नही पड़ा आज ......हाँ बालकों को तो भ्रमण में उत्साह रहता ही है ...........मुझे प्रणाम करके गंगा स्नान करनें चले गए थे .......और फिर सन्ध्या इत्यादि करके ......वो आगये ..........मैने कलेवा दिया ..........तभी महर्षि का आगमन हुआ ........बालकों नें अल्पाहार कर लिया था ........उठकर उन्होंने महर्षि की चरण वन्दना की ......सजल नयन थे महर्षि के ।
वत्स ! जैसे भी हो अयोध्या का और वहाँ के नरेश का हृदय जीतना ।
महर्षि का लक्ष्य यही था ..........कि अयोध्या वासियों से कितना बड़ा अपराध हुआ है .......सीता का त्याग करके .....ये बताना ।
महर्षि नें अपनी पूरी ऊर्जा इसी में झोंक दी थी .........रामायण महाकाव्य लिखनें के पीछे यही तो उद्देश्य था उनका ।
"अंतर के आल्हाद का उत्स होता है काव्य । उसका उपयोग अंतर को आल्हादित करनें में ही है.....महर्षि मेरे पुत्रों को फिर समझानें लगे थे ।
वत्स ! कला यदि लोक हृदय को रसपूर्ण नही बनाती ......तो वह कला वन्ध्या है ...........इसलिये हे बालकों ! मैं तुमसे बारबार कह रहा हूँ ......इस बार अयोध्या का हृदय जीत लेना ...........राजा राम के हृदय को झकझोर देना ......उन्हें अपना आधा अंग याद आजाये ..........करुण रस है ये ..........इसे इसी तरह से गाना ........डूब जाना गाते गाते .....।
बालक समझ गए थे.......... कि अपनी छाप छोड़नी है हमें ..........अयोध्या नरेश तक पहुँचना है ........और उन्हें ये रामायण सुनानी है ...............।
जाओ वत्स ! जाओ ! आशीर्वाद दिया महर्षि नें .............
मेरी परिक्रमा करके ..........मेरे पद वन्दन करके .............मैने रोते हुये अपनें हृदय से लगा लिया था कुश लव को ...........।
महर्षि नें स्वयं स्वस्तिवाचन करके मेरे बालकों को विदा किया ......एक.हाथ में छोटी सी वीणा......दूसरे हाथ में कमण्डलु , ।
मैं और महर्षि देखते रहे .......वो चले गए ......मेरे छोटे छोटे लाल ।
पुत्री सीता ! ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि ये सफल हों .......राजाराम तुम्हे स्वीकार कर लें .........महर्षि नें कहा था ।
मुझे अब मेरी चिन्ता नही है.....महर्षि ! बस ये दो बालक उनके हैं और उन्हीं के पास चले जाएँ.....मुझे अब नही बनना अयोध्या की साम्राज्ञी ।
ये क्या कह रही हो तुम पुत्री ! महर्षि चौंके ।
हाँ .........अब मुझ में कोई उत्साह नही रहा उस अयोध्या में जानें का ..........महर्षि ! ये रामावतार मात्र धर्म का आदर्श प्रस्तुत करनें के लिये ही था ...........मुझे सब पता है आगे अब क्या होगा !
महर्षि नें मुझे आज हाथ जोड़कर प्रणाम किया.......और हाँ मेरी परिक्रमा भी लगाई ..........और चले गए थे अपनें आश्रम ।
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मेरे पास महर्षि आते .......दो तीन दिन में .............और वही मुझे कुश लव के बारे में बताते ...........कैसे अयोध्या पहुँचे , कैसे वहाँ रामायण का गान करना शुरू किया ..........मैं सुनती ........पर मेरे मन में अब उदासीनता छा रही थी ..........मैं न कुश लव की ख्याति से प्रसन्न हो रही थी ......न अब कोई दुःख रह गया था ........।
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कुश लव नें एक ही दिन में आश्रम से चलते हुये सन्ध्या तक अयोध्या पहुँच गए थे ..........वहाँ जाते ही ये दोनों यज्ञ मण्डप में पहुँचे .........कुश लव को सबनें देखा वहाँ .......कुमार शत्रुघ्न नें ....भरत भैया नें .....लक्ष्मण नें.......पहचाननें के बाद भी इन्हें क्रोध नही आया था .........पर .....क्रोध तो मेरे बालकों को आया ।
कुश भैया ! गलती हो गयी ........हम धनुष क्यों नही लाये !
लव नें कुश से कहा था ।
पर क्या हुआ ? धनुष क्यों चाहिये ?
कुश भैया ! देखो ! राजा राम के बगल में किसकी मूर्ति है ?
लव ! ये तो हमारी माँ है.......ये तो हमारी माँ की मूर्ति है ।
क्रोध से लाल हो गया था लव का मुखमण्डल.............लग रहा था कि बिना अस्त्र के ही ये अयोध्या में भूचाल ला देगा ।
हमारी माँ ! तपश्विनी है ..........
.......किसी राजा के बगल में उसकी मूर्ति कैसे ?
पर कुश नें बात को सम्हाल लिया .......लव ! हो सकता है .....इनकी महारानी का रूप हमारी माँ से मिलता हो ......ऐसा होता है ना ?
लव शान्त हो गए थे .............फिर इन दोनों को उस यज्ञ में बैठना अच्छा नही लगा .......क्यों की वह सुवर्ण की मूर्ति दिखाई दे रही थी ।
दोनों बालक निकल गए बाहर.......अयोध्या की नगरी में घूमनें लगे ।
आहा ! आवाज में जादू है ........कुश लव का गायन् शुरू हो गया था ........अयोध्या के बाजार में .......अयोध्या के राजपथ में .....अयोध्या की गलियों में .......हर जगह गानें लगे थे ये ।
छोटे बालक कोयल से भी मीठी आवाज .............सुन्दरता ?
अजी ! हमारे राजा राम ऐसे ही लगते थे जब छोटे थे .......एक वयोवृद्ध नें कहा ।
कुश लव को श्रोता एकत्रित नही करनें थे .......इन्हें तो बस गाना था .....चलते , बैठते ..........भीड़ इनके पीछे चल रही थी .......
"मिथिला की राजदुलारी की हम कथा सुनाते हैं"
बड़े बड़े गन्धर्व आये थे गायन् के लिए .........अश्वमेध यज्ञ में भी तो कला का प्रदर्शन था .......पर भीड़ जुटती नही थी उन गन्धर्वों की सभा में........देवर्षि नारद के शिष्य तुम्बुरु का गायन् भी लोगों को प्रिय नही लग रहा था ........।
इस समय प्रिय तो सबको कुश और लव ही लग रहे हैं ............।
कितनें प्रसन्न हैं महर्षि मेरे पुत्रों का अयोध्या में स्वागत देखकर ।
अश्रुत गायक, अकल्पनीय सुमधुर स्वर, और सुन्दर इतनें कि उपमा मात्र श्रीराजाराम से ही दी जा सकती है ..........पागल हो रहे थे लोग इन बालकों का गायन सुनकर .........।
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ऐसा लगता है आर्य ! कि सुनते रहें .............आर्य ! ऐसा लगता है कि ....... .देखते रहें उन बालकों को ।
इतना ही नही आर्य ! महान संगीतकार तुम्बुरु, उनको भी अयोध्या की प्रजा नें नकार दिया .............प्रजा का कहना है कि संगीत के कार्यक्रम में इन बालकों के गायन् की व्यवस्था की जाए ।
आर्य ! आप भी सुनेंगे तो सुनते रह जाएंगे ।
कुमार शत्रुघ्न नें राजा राम से ये सब कहा ............और उस समय हनुमान भी थे .......भरत और लक्ष्मण भी थे ।
ये बालक वही तो नही हैं ?
राजाराम समझ गए थे ...............कुमार नें सिर झुका दिया .....हाँ ये वही बालक हैं ........जिन्होनें हमें मूर्छित किया था ।
पर कोई बात नही ............कुमार शत्रुघ्न ! आश्चर्य की बात है ....जो इतना बड़ा योद्धा है ........वो अद्भुत संगीतज्ञ भी है ।
क्यों न सन्ध्या के बाद ........यज्ञ विश्राम के पश्चात् ......हम लोग रामायण सुनें ............बहुत मधुर रामायण गान करते हैं आर्य !
कुमार शत्रुघ्न की बात का सबनें समर्थन किया ।
तो फिर ठीक है ......कल से उन बालकों को बुलाया जाए .............और नियम से पूरी रामायण हम सब सुनेंगे ।
राजाराम नें आदेश दिया ।
पुत्री सीता ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ ........अब देखना ........सम्पूर्ण अयोध्या की प्रजा मेरे शिष्य को सुनेगी .......अयोध्या से क्या अपराध हुआ है ये जानेगी ......सीता नही गयी उनके यहाँ से ......"श्री" चली गयी है ।
महर्षि को आश्रम जाना था , वो उठ गए थे ...........मैं अपनी माँ धरती से बातें करनें लगी थी ।
अब मुझे बुला लो ......माँ ! अब मुझे बुला लो ..............
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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