आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 175 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
आज पाँच दिन होनें को आये हैं ..........पर महर्षि नही आये ?
महर्षि नें कोई सूचना नही दी कि मेरे बालक कैसे हैं ? उनका वो गायन् श्रीराजाराम के सामनें सफल रहा या नही ?
जिस उद्देश्य से कुश लव को भेजा था अयोध्या, उसमें कितनें सफल हुए महर्षि ?
मुझे अब जानना था.........मैं अपनी कुटिया से आश्रम के लिए निकल गयी थी.....पर जैसे ही आश्रम पहुँची....महर्षि मेरे पास ही आरहे थे ।
पुत्री ! उनके नयन सजल हो उठे .........मैं तुम्हारे ही पास आरहा था ।
मैं कल प्रातः अयोध्या जा रहा हूँ.........महर्षि नें मुझे बताया ।
सब ठीक तो है ना ? मैने महर्षि को देखा ।
पुत्री ! राजाराम नें मुझे बुलवाया है ।
क्यों ? मेरा हृदय अज्ञात भय से काँप गया ।.
बैठो ! मुझे कुशासन देकर बैठनें के लिये कहा ..........फिर वो अयोध्या की बातें , कुश लव का वहाँ लोकप्रिय होना ............और राजाराम के सामनें कैसे प्रस्तुति दी और उसका प्रभाव क्या पड़ा .....सब मुझे विस्तार से बताया ..............।
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सीता पुत्री ! दूसरे दिन यज्ञ के उपरान्त.........उस विशाल सभा में सब लोग इकट्ठे हुए थे .................कुश लव को निमन्त्रण दिया जा चुका था ।
चारों ओर गणमान्य व्यक्ति थे ....देश विदेश के राजा भी थे .....कलाकारों का एक समूह था ......व्यापारी वर्ग भी प्रसन्नता के साथ बैठा था ............देवताओं के लिए भी आसन थे ......पर वो भी प्रत्यक्ष् दिखाई दे रहे थे ............ऋषि मुनिओं के साथ साथ सप्तऋषि भी प्रमुखता से बैठे थे .........विद्वान , वेदज्ञ, संगीतज्ञ कौन उपस्थित नही था उस सभा में .......आम अयोध्यावासी भी इस गायन् का आनन्द लें इसके लिये सुन्दर व्यवस्था थी ............।
उन बालकों का गायन् है आज सूर्यास्त के पश्चात कुछ घड़ी बाद ही उनका गायन् शुरू हो जाएगा ..........जल्दी करो ........।
अयोध्या के हर घर में ये हल्ला हो रहा था .................जल्दी भोजन करके सब लोग आगे आकर बैठ गए थे ...........युवाओं में एक अलग ही उत्साह देखनें को मिल रहा था ........।
ये कहीं हमारे युवराज तो नही ?
कहनें वाले ये भी कह रहे थे ।
लग तो रहे हैं ........देखो ! सब लोगों की दृष्टि बालकों पर टिक गयी थी .....जब कुश और लव सभा में आये ।
मध्य में चौकी लगाई गयी थी ........और चारों ओर लोग ।
सामनें रघुकुल का दिव्य सिंहासन.......उस सिंहासन में श्रीराजाराम .........बस श्रीराजाराम ।
महर्षि बोल रहे थे , अयोध्या की घटी घटना मुझे सुना थे ।
दोनों बालक अतीव सुन्दर बालक ......करोड़ों काम को मूर्छित कर दें ऐसी सुन्दरता ......वीणा गले में लटकाये......जटाजूट ......वल्कल धारण किये हुए.......मुस्कुराते हुए, उस सभा में प्रवेश किया ।
बालकों के सभा में आते ही करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया गया ...........
हे चक्रवर्ती सम्राट ! श्रीरघुकुल मणि ! आपके श्री चरणों में हम महर्षि श्री वाल्मीकि के शिष्य, आपको प्रणाम करते हैं !
प्रसन्नता से भर गए थे राजाराम ........उन्होंने आसन में बैठनें की आज्ञा दी ..........कुश लव दोनों प्रणाम करके बैठ गए थे ।
सरस्वती देवी को प्रणाम करके रामायण की शुरुआत कर दी थी ।
प्रथम दिन की ही कथा का ऐसा अद्भुत प्रभाव की ........राजाराम अपनें सिंहासन से उतरकर कब नीचे आगये ...........न उन्हें पता चला न प्रजा को ...........।
इतना ही नही ..............गुरुवशिष्ठ भी अपने आपको ही भूल गए थे ।
सप्तऋषि अपना तप अपना पुण्य सब देनें लगे थे उन बालकों को ।
प्रथम दिन की कथा में विघ्न तक आया ........जब राजाराम नें अपनें कण्ठ का हार उतार कर कुश लव को देना चाहा ।
नही राजन् ! हम किसी से कथा के बदले उपहार नही लेते ........
भरी सभा में राजाराम के द्वारा दिए गए उपहार को मना कर दिया था .....सभा चकित थी ..........सुर दुर्लभ वो मणियों का हार ......उसे मना कर दिया इन बालकों नें ..................
पर ये हम प्रसन्नता पूर्वंक दे रहे हैं वत्स ! ले लो !
राजाराम नें फिर आग्रह किया ।
यह संगीत का गायन , संगीतमयी कथा का गायन हमारी लोक सेवा है ..........हम इसके बदले कुछ ले नही सकते ..........।
पर कोई प्रसन्नता से दे तो ? राजाराम नें फिर आग्रह किया ।
हम तर्क नही करेंगें आपसे ............पर इतना ही कहेंगें कि हमारे गुरुदेव की आज्ञा नही है ......।
सभा में बैठे समस्त ऋषिवृन्द "साधू साधू" कह उठे थे .............
आम प्रजा नें करतल ध्वनि से कुश लव की बात का समर्थन किया ।
मुस्कुराते हुए राजाराम नें वो हार अपनें ही पास रख लिया ।
संगीतमयी रामायण फिर प्रारम्भ हुयी ।
श्रीराम का जन्म, ताड़का वध, जनकपुर में आगमन ..............
विदेहराज भी विराजे हैं .............बालकों को अपलक देख रहे हैं ।
सुनयना अम्बा से कहती हैं कौशल्या माँ.......लगता है राम के ही पुत्र हैं.......दूसरे का मुख तो देखो........सीता के जैसा है ।
सुनयना माँ रो गयी.....हाँ ....हाँ मेरे मन में भी यही बात आरही थी ।
श्रीराम नें धनुष भंग किया ......और सिया सुकुमारी से विवाह रचाया ।
धूमधाम से विवाह हुआ........जनकपुर आनन्द में डूब गया था ।
सब श्रोता मन्त्रमुग्ध से सुन रहे थे .........पर एक दिन की कथा हो गयी थी .....समय कैसे बीत गया ये किसी को पता ही नही चला था ।
शेष चरित्र कल
Harisharan
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