वैदेही की आत्मकथा - भाग 172

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 172 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

हाय !   ये क्या होगया मेरे साथ !       अयोध्यावासी क्या सोचेंगें ? 

मेरा विलाप चल ही रहा था  कि........तभी महर्षि का आगमन हुआ ।

"राजा राम स्वस्थ हैं पुत्री !...........महर्षि नें मुझ से कहा  ।

हाँ  तीनों भाईयों की मूर्च्छा अभी खुली नही हैं ......पर कोई बात नही !   मैनें अश्विनी कुमारों का आव्हान कर दिया है .......वो सबको स्वस्थ बना देंगें   ......महर्षि बड़ी गम्भीरता से बोल रहे थे ।

पर महर्षि !    अयोध्या की प्रजा क्या सोचेगी ?     

क्या सोचेगी पुत्री !      वीर बालक हैं ...........अनजाने में  इनसे भूल हो गयी ..........बालक ही तो हैं .............। 

फिर कुछ देर बाद महर्षि बोले ..........देखो  पुत्री सीता !     ज्यादा मत सोचो ......जो वीर पुरुष होता है ना ........वो  वीरता को देखकर प्रसन्न ही होता है ...................।

मैं कुछ ओर भी कहनें जा रही थी ........पर मुझे रोक दिया  महर्षि नें ।

अभी  बीती बातों को लेकर  शोक करनें का समय नही है .............अब जो हो गया  वो हो गया........इसलिये  तुम जाओ !    गंगा में स्नान करके  आओ ..........और  हाँ  वत्स !   तुम दोनों भी  माँ के साथ जाओ  ।

अब आप कहाँ जायेंगें  ?      महर्षि से  मैने पूछा था  ।

पर मेरी बात का सीधे  उत्तर न देकर.........महर्षि नें  तुरन्त  हनुमान की ओर देखकर कहा .......पवनसुत !   तुम अश्व को खोल लो .......और मेरे साथ चलो   राजा राम के पास  ।

जो आज्ञा  महर्षि !      हनुमान नें  सिर झुकाकर आज्ञा मानीं .......और   उस अश्व को  मुक्त कर -  लेकर  चल दिए थे  ।

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बालकों  को समझ आगया था कि  उनसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है ।

पूज्यवर हैं  ये सब.......और वैसे भी  राजा,   विष्णु भगवान का रूप माना गया है.......हम लोगों को इतना भीषण युद्ध करनें की आवश्यकता नही थी  ।

मैं  हताश .........खिन्न मन से  चली  जा आरही थी ।

माँ !    माँ !     दोनों नें मुझे  पुकारा था   ।

पर आज इनके  उत्तर  देंनें की भी इच्छा नही है .............

क्या किया इन बालकों नें !     जिनके लिए इस सीता का  मन, प्राण, रोम रोम  मंगल कामना करते नही थकता ..........उनके ऊपर  अपनें ही पुत्रों नें  धनुष उठा दिया !........मेरे जो आराध्य हैं ....सर्वश्व हैं ........उनका अपराध किया.......और उन्हीं के पुत्रों नें  !

हाय !  समाज क्या कहेगा !    ये संस्कार दिए सीता नें अपनें पुत्रों को ?

मेरा हृदय चीख चीख कर रो रहा था  ।

माँ !  माँ सुनो  ना !       जब ज्यादा ही पुकारनें लगे थे मुझे .....तब मैने एक बार कुश लव की ओर देखा ...................

वो रो रहे थे .......वो हिलकियों से रो रहे थे ........बारबार कान पकड़ कर क्षमा माँग रहे थे   ।

ये दृश्य भी  एक माँ से कैसे देखा जा सकता था ...................

मैने  उन दोनों को अपनें हृदय से लगा लिया .....................

यह सब अनजाने में किया है इन बालकों नें .........मेरे मन नें मुझे कहा ।

पर  किया तो अपराध ही है ना ?       भले ही अनजाने में हो !   

मेरी बुद्धि बोली ।

मैं  मन और बुद्धि के झंझावात में  फंस गयी थी ................

ओह !   कैसे छुटकारा मिलेगा  इस भार से .......मेरे हृदय में ये अनुभूति भार बनकर बैठ गयी है ........ओह !      

सीता !     अब जो हुआ ,    वो हो गया ......उसे परिवर्तित तो नही किया जा सकता ना   !       मेरे मन नें मुझे समझाया   ।

मैं स्नान करनें उतर गयी थी गंगा जी में ......मेरे पुत्र  कुछ  बोल नही रहे थे अब ........पर  वो  अंदर से घुट रहे थे आज ....।

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महर्षि के ही मुखारविन्द से सुना था ये सब मैने ...............

महर्षि  अपनें वरिष्ठ शिष्यों के साथ  और हनुमान को लेकर पहुँचे थे  उस भूमि में .....जहाँ कुमार शत्रुघ्न , लक्ष्मण, भरत  सब मूर्छित पड़े हैं ।

और इतना ही कहाँ ..........हजारों सैनिक  कटे पड़े हैं  ।

आँखें बन्दकर  के अश्विनी कुमार,  जो देवताओं के वैद्य हैं  उनका आव्हान किया था.....और  अश्विनी कुमार  तुरन्त आ भी गए थे  ।

" जो सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं,   वही धरा पर आकर   आज  हमारे राजा बने .........मैं  महर्षि वाल्मीकि,   उन चक्रवर्ती सम्राट  श्रीराजा राम को प्रणाम करता हूँ ।.......मुझ पर प्रसन्न हों   राजन् आप !    

ये शब्द  महर्षि नें बोले थे   राजा राम से  ।

जैसे ही कान में ये शब्द गए......श्रीराजाराम नें तुरन्त अपनी पीताम्बरी फेंकी,   और  रथ से नीचे आ खड़े हुए थे....और महर्षि को प्रणाम किया ।

हे श्रीराजाराम !     आश्रम के इतनें निकट आकर भी .....मैं आपसे  आतिथ्य स्वीकार  करनें की प्रार्थना भी नही कर सकता  ।

पर महर्षि !  वो बालक कहाँ हैं  ?    मैं उन्हें देखना चाहता हूँ  ।

 बात  को बदलते हुये   कुश लव को ही पूछा था श्रीराम नें ।

बालकों नें जो किया वो अज्ञानतावश किया  ......मैं उनकी ओर से क्षमा प्रार्थी हूँ .........महर्षि नें हाथ जोड़े  ।

नही ...नही ......आप हाथ मत जोड़िये.........वीर थे बालक .....और वीरता  क्षत्रियों  का भूषण है ।

महर्षि !  क्या  वो बालक क्षत्रिय हैं  ?      श्रीराम नें पूछा ।

आप सब जानते हैं  फिर भी .............महर्षि नें अभी भेद खोलना उचित नही समझा .........पर  बता भी दिया  इशारे में   ।

पर  उस दुष्ट बालक पर क्रोध नही आरहा .......है ना भैया ! 

अश्विनी कुमारों नें   सब को ठीक कर दिया था ......और  सब भाई एवम्  सैनिक  उठ गए थे ........और स्वस्थ अनुभव भी कर रहे थे ।

हनुमान  !  अश्व को लेकर  चलो.....कुमार  शत्रुघ्न !    आगे बढ़ों .....भरत और लक्ष्मण को भी सैनिकों के साथ  भेज दिया अयोध्या ....श्रीराम नें ।

महर्षि !   

महर्षि के   चरणों में गिर गए थे   श्रीराम...............

मैं जा रहा हूँ अयोध्या .............पर अब    अश्व भी  दो दिन मैं पहुँच ही जाएगा ........फिर एक   विशाल अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होगा ....।

महर्षि !  आपको अवश्य पधारना  है...........जैसे इस अश्वमेध यज्ञ को आपनें ही प्रारम्भ किया था .......ऐसे ही  आप ही इसे पूर्ण भी करें  ।

हाँ   श्री राम !      मैं अवश्य आऊंगा  । 

  महर्षि नें निमन्त्रण स्वीकार किया  ।

उठकर अब रथ की ओर बढ़े थे  श्रीराम.........पर फिर रुक गए ..........

पीछे मुड़कर देखा ..............फिर बोले  -

उन दो बालकों को भी लाना ........महर्षि !   ये आँखें उनको देखने के  लिए तरस रही हैं .................अब लगता है उन बालकों को ही देखता रहूँ ..........महर्षि !   उनको अपनें साथ लाना .............।

हाँ .........लाऊँगा उनको  ,  अवश्य लाऊँगा ..........इसी दिन की तो प्रतीक्षा थी मुझे ........अब वो दिन आगया है .............मैं अयोध्या आऊंगा........और   तुम्हे सौंप दूँगा .........सीता पुत्री को भी  और अपनें दौहित्र  कुश लव को भी   ।

मन ही मन में  मैने  ये बता कही  थी ...........सीता पुत्री !     श्रीराजाराम  की आँखों में  तड़फ़ थी ......अपनें आपको देखनें की ..........कुश लव  श्रीराम ही तो हैं ................।

मेरी गोद में सो गए थे बालक ...........थक गए ........नही नही युद्ध से नही थके .........अपनी  माँ को कष्ट में देखकर थक गए  थे आज  ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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