आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 171 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
एक दिन कुश और लव .......नही .......लव ज्यादा उत्तेजित था ।
माँ ! माँ ! आवाज "लव" की ही आरही थी .........।
मैं दौड़ी बाहर.....क्यों बुला रहा है इस तरह ? मैं जैसे ही बाहर आयी ..जो दृश्य मेरे सामनें था उसे देखकर मैं जड़वत् हो गयी थी.....ये क्या !
कुश और लव बड़े प्रसन्न थे .......बड़े खुश थे ......माँ ! देखो हम किसे बाँध कर लाये हैं ?
मैं दौड़ी ......पागलों की तरह........दौड़ी............
नही ! माँ ! खोलना नही इसे ..............पता है ये कौन है ? ये अयोध्या की सेना का सबसे उपद्रवी वानर है ।
माँ ! आपनें खोल दिया इस वानर को............कुश लव कुछ रोष प्रकट कर रहे थे ................पर ।
पवनपुत्र मेरे पांव में गिर गए थे ...........माता ! उनके नेत्रों से अविरल अश्रु बहते जा रहे थे ।
मेरे भी नेत्र बह चले ।
"माँ ! इतना ही नही".....बालकों को अपनी पड़ी थी ...........
माँ ! वो देखो ! दूर देखो.........अश्व ! अश्वमेध यज्ञ का अश्व हमनें बाँध दिया है ........अब हम नही छोडेँगेँ उस अश्व को ।
हनुमान हाथ जोड़कर खड़े थे.....उनके शरीर बाणों से विंधे हुये थे .....रक्त भी बह रहा था .....पर मेरे सामनें मुस्कुराते हुये पवनपुत्र ।
पर ये सब आपके साथ किसनें किया ? मैं घबड़ाई हुयी पूछ रही थी ।
क्यों की आप तो अतुलित बल के धाम है ..............किसकी हिम्मत , कि आपको इस स्थिति में पहुँचाये ।
मैनें किया है माँ ! मैने .......वो दुधमुँहा बालक लव बोले जा रहा था पर उसकी बात पर मैं ध्यान नही दे रही थी ।
किसनें आपकी ये हालत की ? मैने फिर पवनपुत्र से ही पूछा ।
मुस्कुराते हुये पवनपुत्र नें लव और कुश की ओर इशारा किया ।
देखा माँ ! देखा ! और इतना ही नही ........शत्रुघ्न कुमार मूर्छित हैं.......भरत , लक्ष्मण सब भूमि में मूर्छित पड़े हैं ।
लव नें जैसे ही ये कहा.........मैं पास में गयी लव के .......एक थप्पड़ दिया .......क्या बोल रहा है तू ? ऐसे बोलते हैं ?
माँ ! इतना ही नही...........राजा राम चन्द्र नें हमारे आगे हार स्वीकार कर ली ..........कुश नें गर्व से कहा ।
क्या ! ! ! ! !
मैं इतना सुनते ही मूर्छित हो गयी थी ।
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अश्व निकल रहा था .............आश्रम के निकट से ही ।
गंगा का किनारा देखा कुमार शत्रुघ्न नें ..............और महर्षि वाल्मीकि को प्रणाम करनें गए थे ......पर वो नही मिले ..........।
एक विशाल पाकर वृक्ष के नीचे खड़ा था वो यज्ञीय अश्व ।
लव उस समय अकेला था .......कुश महर्षि के पास में था उस दिन ।
लव नें देखा .....अश्व को ..........फिर पास जाकर उसे छूआ .......फिर मस्तक पर स्वर्ण की पट्टिका देखी ..........उसमें ये लिखा था -
" यह अश्व विजय के लिये निकला है......जो अपनें को वीर माननें का गर्व रखते हों वही इसे पकड़ें , और युद्ध के लिये तैयार रहें । जहाँ से ये अश्व जाएगा वह भूमि अयोध्या नरेश की मानी जायेगी .....सावधान ! अश्व पकड़नें वाले का अहंकार चूर्ण करके उससे ये अश्व फिर प्राप्त किया जाएगा"
हम वीर है ........ये तो चुनौती हैं हमारे लिए !
इस अश्व में लिखे शब्दों से पता चलता है .........राजा राम अहंकारी हैं ।
लव यही सोचता रहा ................क्या हम वीर नही हैं !
अब चाहे कुछ भी हो .......ये अश्व हमारा है ...............
लव नें आगे बढ़कर पकड़ लिया था अश्व को.......हाँ वो थोडा हिनहिनाया .....पर लव नें उसे पकड़ कर दूर एक वृक्ष के नीचे बांध दिया ।
मुझे नही सुनना था अपनें बालकों के मुख से ये सब ...............मैने पवनपुत्र से ही विनती की ...........क्या हुआ मुझे आप बताओ ।
तब वो मेरे बालकों को देखकर मन्द मन्द मुस्कुराये हुये ...... सारी घटना बता रहे थे ।
मैं देख रही थी अपनें बालकों के मुख में .........उन्हें अब लगनें लगा था कि उनसे शायद बहुत बड़ी भूल हुयी है ।
हे माता ! पवनपुत्र बता रहे थे -
वहाँ सैनिक अश्व को खोजनें लगे थे.........कुमार शत्रुघ्न आये महर्षि की कुटिया से .........तब उनको भी ये बात जब बताई गयी कि अश्व दिखाई नही दे रहा .......तब उन्होंने भी गम्भीरता से नही लिया ।
यहीं कहीं होगा ............गंगा के किनारे उसे अच्छा लग रहा है ........थोडा दूर जाकर देखो ! कुमार शत्रुघ्न नें आज्ञा दी ।
सेनापति गए .............दूर तक सैनिकों को भेजा ............
दूर मिला ...........पर बंधा हुआ ..........एक वृक्ष के नीचे ...........
जाकर जब सेना पति अश्व को खोलनें लगे ....तो कहीं से एक बाण आया और सेनापति को घायल करते हुये चला गया ।
सावधान ! ये अश्व अब मेरे कब्जे में है ........इसे अब कोई नही छू सकता । लव नें ललकारा ।
ऋषि कुमार ! जिद्द मत करो .........ये अश्व कोई साधारण नही है ।
तो हम तुम्हे कहाँ से साधारण लग रहे हैं ! लव नें उत्तर दिया ।
हनुमान ये सब बताते हुये गदगद् थे .......पर मेरा हृदय काँप रहा था ........मुझे पसीनें आरहे थे ......ये सोच सोच कर की श्रीराजा राम क्या सोचेंगें ? कहीं वो ऐसा न सोचें कि .....मैने ही अपनें बालकों को प्रशिक्षण देकर अयोध्या से अपनें निर्वासन का बदला लिया ।
हाँ फिर क्या हुआ पवनपुत्र ! मैने आगे की बात जाननी चाही ।
माता ! कुमार शत्रुघ्न को आना पड़ा.......क्यों की सेनापति के साथ कुछ सेना भी मूर्छित हो गयी थी ।
ओह ! मेरे मस्तक में तीव्र पीड़ा होनें लगी ..........।
हँसते हुये बोले पवनपुत्र ..........माता ! ये साधारण अस्त्र तो चलाते ही नही हैं ............ये सीधे दिव्यास्त्र ..........।
पहले कुमार शत्रुघ्न नें ....इन्हें बालक समझकर ज्यादा कठोरता नही दिखाई ..............पर जब देखा कि लव नें दिव्यास्त्र चला दिया .....रथ टूट गया .........रथ का सारथि मर गया ............और अपनें पीछे जितनी सेना थी ..........वो सब एक ही झटके में लव नें सबको भूमि में सुला दिया ........तब काँप गए थे कुमार शत्रुघ्न ।
पर माता उसी समय ........ये कुश भी वहाँ पर आपहुँचे ।
लव थक जाते ....तो कुश बाणों की वर्षा करते ................और कुश थकते तो लव ........वैसे ये थकना जानते ही नही हैं माता !
कुमार शत्रुघ्न को मूर्छित कर दिया ........इन दोनों बालकों नें ......
हनुमान नें मुझे बताया ।
ओह ! मैं अपना मस्तक पकड़े हुये थी .....हे भगवान ! क्या कर दिया तुम दोनों नें ! मेरे कुछ समझ नही आरहा था ।
हनुमान मुझे बता रहे थे .........माता ! अयोध्या से तुरन्त सेना लेकर भरत भैया आगये थे .................
उनके साथ भी युद्ध हुआ ...........भरत भैया सेना के साथ थे और ये दोनों अकेले ..............माता ! आपको पता ही है .........भरत भैया बहुत वीर हैं ......मुझ जैसे महावीर को एक बाण से अयोध्या में गिरा दिया था ........जब मैं संजीवनी लेकर जा रहा था ।
पर इन बालकों के सामनें ........माता ! ये दिव्यास्त्र चलाते हैं ..........और इनको सारे दिव्यास्त्रों की शिक्षा अच्छे से मिली है ।
पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र ,...........ये सब इनके पास हैं ।
माता ! भरत भैया के साथ जो युद्ध हुआ इनका.......वो अद्भुत था ।
दोनों भाई मिलकर ऐसा युद्ध कर रहे थे .........क्यों न करें माता ! पुत्र किसके हैं ? हनुमान फिर गदगद् हो गए कुश लव को देखकर ।
फिर आगे क्या हुआ ? मैने पूछा ।
फिर तो माँ ! मूर्छित कर ही दिया भरत भैया को भी ।
ओह ! .........मुझे अपार कष्ट हो रहा था ।
लक्ष्मण आये अब ..............मेघनाद का वध करनें वाले लक्ष्मण ......पर इनके सामनें वो कुछ देर ही टिक पाये ................।
लक्ष्मण भी मूर्छित ? ओह !
फिर माता ! श्रीराघवेंद्र सरकार आये ...................
उन्होंने देखा इन्हें ....................
क्या बोले वो इन्हें देखकर ? मैने पूछा ।
लव आगे आया ............माँ ! मैं बताता हूँ .............
राजा राम नें कहा ......हम ऋषि कुमार के ऊपर हाथ नही उठाते ....हे पूज्य ऋषि कुमारों ! हमारा अश्व हमें लौटा दो ।
फिर ? फिर क्या कहा तुम नें ? मैने झँकझोरा लव को ।
भैया कुश नें आगे बढ़कर कहा .......हम ब्राह्मण नही हैं ......हम ऋषि कुमार नही हैं .......हमारे गुरुदेव कहते हैं हम क्षत्रिय हैं ।
हमारी माता भी हमें बताती हैं कि हम क्षत्रिय हैं ...........।
क्या पूछा उन्होनें और ? मैने कुश को पकड़ कर फिर पूछा ।
आपकी माता का नाम ?
"वनदेवी"......पर हमारे गुरुदेव उन्हें कभी कभी "वैदेही" भी कहते हैं ।
मैं कुश के मुँह से इतना सुनते ही हिलकियों से रो पड़ी ।
फिर ? मैने रोते हुए ही पूछा ।
हमें वो देखते रहे .............पर उनकी आँखों में क्रोध नही था माँ !
वो हमें देखते देखते रथ को ले गये बाहर युद्ध भूमि से .....और अपनी पीताम्बरी निकाल कर सो गए ।
मैं कुश लव को थप्पड़ मारनें लगी थी ...................
मेरे आराध्य , मेरे सर्वस्व , मेरे प्राणधन ......उनको इतना कष्ट दिया ।
हनुमान नें ही मुझे रोका ...................
हमें क्षमा कर दो माँ !
मेरे दोनों बालक यही कह रहे थे .......मुझ से कान पकड़ कर ।
तभी महर्षि वाल्मीकि आगये थे वहाँ ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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