वैदेही की आत्मकथा - भाग 28

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 28 )

रनिवास हास बिलास रस बस,  जनम को फलु सब लहैं ...
( रामचरितमानस )

*** कल से आगे का चरित्र -

 मैं वैदेही !  

कोहवर में  अब  हमें प्रवेश करनें दिया था सखियों नें ..........

वह  कोहवर  दिव्य था .............नाना प्रकार के  मोतियों मणियों की लड़ियाँ लगी हुयी थीं ........कोहवर के खम्भो में  दीये झिलमिला रहे थे ....वो  कोई तेल बाती का दीया थोड़े ही था ..........मणियों का दीपक था ....जिसमें से स्वयं प्रकाश  फैल रहा था .............।

लाल अनुराग का रँग होता है ...............मेरे कोहवर में  लाल रँग का ही ज्यादा से ज्यादा प्रयोग था ..........।

पर  चित्रकारी बहुत सुन्दर थी .........दीवारों में ..............लाल , हरे, पीले नीले रँग  के   नाना प्रकार के चित्र अंकित किये गए थे ।   

और हाँ  दीवारों पर  लताओं के चित्र  इतनें जीवन्त काढ़े गए थे  कि  देखनें वालों को लगे  कि  हम लताओं के नीचे ही बैठे हैं  ।

कुछ दीये जल रहे थे ........उनमें    सुगन्धित तैल  डाला गया था ...जिससे कोहवर महक रहा था ............।

वैसे   श्रीरघुनंदन के कोहवर में आते ही   कोहवर महक उठा था  ।

पर दुष्ट हैं मेरी सखियाँ भी .................मैने तो सोचा था ........हम दोनों युगल  को  कोहवर में बिठा कर चली जायेगीं .......पर ।

देखो !    कैसे देख रहे हैं   ये कुँवर  हमारी किशोरी को .........

फिर शुरू हो गयी थीं  सखियाँ  ।

मैने तो सिर झुका लिया ...................और सिर झुकाये ही रही  ।

हमारी सिया जू को देखो ........इनकी और देख भी नही रहीं .......पर ये अवध के दूल्हा  .....................

दूसरी सखी नें तुरन्त कहा .............इतनी सुन्दर दुल्हन  इन्होनें देखि कहाँ होगी !.............

पर   सिया जू  !   तुम  एक बार तो इन्हें देख लो ...........

पर मैने अपना सिर  ऊपर नही किया ...............

मेरी सखी  चन्द्रकला नें   .........मेरी चोरी पकड़ ली .............

बात ये थी   कि   मेरे कँगन मणियों के थे ..........और  अँगूठी  हीरों की थी .........मेरे कँगन में   श्रीरघुनन्दन का प्रतिविंव  स्पष्ट पड़ रहा था .....मै वहीँ  से  उन्हें देख रही थी ...................चन्द्रकला समझ गयी ......और  वो बातूनी चन्द्रकला  इस रहस्य को खोलनें लगी ........तो मैने ही  उसे तुरन्त कह दिया ..................चुप !    

सारी सखियाँ हँस पड़ी थीं ..................।

दूध भात,    चाँदी  के कटोरे में  लाकर  सखियों  नें मेरे  हाथों में दिया था...........और  रघुनन्दन को खिलानें के लिये कहा .........

मै खिलानें लगी ...............रघुनन्दन खानें लगे .............

ये अवध वासी भूखे होते हैं क्या ?  देखो  ! कैसे गपागप खाये जा रहे हैं......अजी !  इतनी समझ भी नही है  इनको   कि हमारी कोमल किशोरी जी नें,   सुबह से कुछ खाया ही नही है ............

बिना कुछ कहे  मेरे  रघुनन्दन नें   मेरे हाथों से वह दूध भात का कटोरा  लिया .............और मुझे खिलानें लगे थे  ।

देखा !    खीर  केवल एक बार ही खाया है ..............डरते हैं खीर खानें से ये अवध वासी  !...........दूसरी सखी  कहाँ चुप रहनें वाली थी ......

क्यों डरते हैं सखी  ?        ये प्रश्न और उठा बैठी  ।

इनके यहाँ    खीर खानें से  गर्भवती  हो जाते हैं ...............

ये कहकर  सारी सखियाँ  कोहवर में  ताली बजा बजा कर हँसनें लगीं ।

फिर तुरन्त दूसरी सखी बोली ..............इनकी माता भी ऐसे ही गर्भवती हुयी थीं................ये ऐसे ही खीर से पैदा हुए हैं ...........

तो चक्रवर्ती जी का कोई  काम नही ....................

तीसरी सखी  पेट पकड़ कर हँसते हुए  पूछ रही थी  ।

ना जी !   चक्रवर्ती जी का कोई  काम नही....ये तो खीर खानें से हुए हैं ।

पर  सखियों की बातें सुनकर ............

 मेरे रघुनन्दन   मुस्कुरा रहे थे.......और  मुझे खीर खिला रहे थे ।

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अब चलो !    अब चलो सखियों    इनको विध्न न करो ..........

मेरी  सबसे चंचल सखी   चन्द्रकला  ही   सबको पकड़ कर बोली ।

हाँ हाँ .....सही कह रही हो .......रात भी बीती जा रही है ...........सुबह इन्हें जल्दी उठना भी है ........फिर इनकी आँखें  लोग देखेंगें  तो   कहेंगें रात भर  क्या करते रहे  जी !   उनींदी आँखें हैं  !  

ये कहते हुए  सारी सखियाँ  फिर हँस पडीं ......................

चलो अब निकलो.....नही तो  हमारी सिया सुकुमारी  रिसाय जाएँगी ।

सब जानें लगीं ...........मैने  लम्बी  साँस ली ............राहत की  ।

पर ........... 

  ........सिया जू !   एक विधि  तो  अंतिम रह ही गयी ............

चन्द्रकला  फिर बाहर से  आयी  ।

अब कौन सी विधि रह गयी है   ?      मुझे हँसी आयी .....ये बात  मेरे श्रीरघुनंदन बोले थे ....सारी विवाह की विधि तो हो गयीं ना !

बड़ी जल्दी मिलनें की पड़ी है.......मिल लेना ....पूरी रात बाकी है.......अब  तुम्हारी ही है,   हमारी ये बहन  सिया  सुकुमारी  ।

मुझे हँसी आरही थी..........मै अंदर ही अंदर हँसे जा रही थी  ।

विधि रह गयी है  अब अंतिम,   और इस विवाह विधि का नाम है -

 "बाती जुड़ावन"      

ये कहते हुये चन्द्रकला   एक थाल में दो बाती जलाकर मंगवाती है ।

हे दूल्हा कुँवर !   अब इन दो  बाती को एक करके,    आप दोनों एक हो  इस बात को प्रमाणित कर दो ........

चन्द्रकला नें श्रीरघुनन्दन से कहा  ।

नेग क्या दोगी  सखी  !       अब बारी श्रीरघुनन्दन की थी   ।

मै दोनों बातीयों को एक कर दूँगा .....पर इसके बदलें मुझे भी नेग चाहिए ......बोलो  ?   

बैठ गयी  मेरी  वो चन्द्रकला  हम दोनों के पांवों में ............नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे उसके ................हिलकियाँ छूट पड़ी थीं ।

हम क्या देंगी आपको कुँवर ?     हमारे प्राण  सिया जू  को  आप ले जारहे हो ........इनसे कीमती और कुछ हो सकता है क्या ?  

हमारे जीवन  का खजाना .......हमारे जीवन  की पूंजी .......हमारे जीवन की निधि ......सब कुछ तो दे दिया हमनें आपको ......अब आपको हम क्या दें ........हम   अपनी  इन सिया बहन के बिना  गरीब हैं ...दरिद्र हैं ...... हमारे पास कुछ नही है     हे रघुवर !

देखो !  अब तक तुम मांगती रहीं  हम देते रहे .........बस  हम नें  एक बार क्या माँगा ........तुम रोनें लगीं  !

.......मेरे  रघुनन्दन  अभी से   जनकपुर के वातावरण को  विरह युक्त नही बनाना चाहते थे ।

आँसुओं को पोंछा मेरी  चन्द्रकला नें ........माँगिये कुँवर ! माँगिये !

कुछ नही ..........बस ये  राम,   तुम मिथिलानियों से इतना ही चाहता है  कि   जितना प्रेम तुम लोग अपनी बहन से करते हो .........उस प्रेम का दसवां हिस्सा    इस  राम से भी कर लेना ।.........ओह !  कितनी प्रेमपूर्ण बात कही थी  मेरी सखियों से  मेरे प्राणेश नें  ।

फिर प्रेम के अश्रु छलक पड़े थे ........मेरी चन्द्रकला की  अँखियों  से  ।

हे  कुँवर !     कैसी बात कह दी आपनें ...........सिया हमारी प्राण हैं  तो  हे कुँवर ! आप  उन प्राणों के भी प्राण हो ..........फिर आपनें कैसे कह दिया कि  दसवें हिस्से का प्रेम मुझे देना .........अरे ! प्यारे कुँवर ! 

दसवें हिस्से का  प्रेम नही ...........बल्कि   सिया जू से जितना प्रेम करती हैं उससे ज्यादा ही करेंगी .....क्यों की हमारी  सिया के आप प्राण हो ।

अब हम भी कुछ माँगें ....................

सारी मेरी आठों सखियाँ   हाथ जोड़कर  खड़ी हो गयी थीं  मेरे रघुनन्दन 
के आगे ........................

हाँ हाँ .....माँगो  !  क्या चाहिए  ? 

सबके नेत्रों से गंगा जमुना बहनें लगे थे ......................

माँगों ना .........!   मेरे  रघुनन्दन  बोले जा  रहे थे......  माँगो ना ! 

पर  भावातिरेक के कारण  कण्ठ अवरुद्ध हो गए थे मेरी सखियों के  ।

क्या चाहिए ?     बोलो .....................फिर  कहा  रघुनन्दन नें  ।

रुंधे कण्ठ से  सब  यही बोलीं ....................

""या मिथिले में तू रहिजैयो ,  या अपनें संग लेहुना""

यहीं रहो ना  कुवँर !   हमारी किशोरी के साथ ।     सदैव यहीं रहो ना ...............

ऐसे ही हमें  नयन भर देखनें को मिले   आप दोनों की छवि ........।

""हे पहुना  !  अब मिथिले में  रहुना ""

शेष चरित्र कल ....................

Harisharan

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